19.2.17

प्रेम

खामोश हो गईं
शाख पर बैठीं
चिड़ियाँ

शरमा कर
सिंदूरी हो गई
सरसों के पीले फूलों पर
दिनभर खेलती
धूप

आपस में नहीं मिलते
चाँद और सूरज
सुबह औ शाम
मगर दिखता है
धरती पर
प्रेम ।

सुबह की बातें-5

यूँ तो मॉर्निंग रोज ही गुड होती है लेकिन नौकर की मॉर्निंग तभी गुड होती है जब नौकरी से छुट्टी का दिन हो और लगे आज तो हम अपने मर्जी के मालिक हैं। कैमरा लेकर, मोबाइल छोड़ कर सुबह ही घर से निकलने के बाद हरे-भरे निछद्द्म वातावरण में अकेले घूमते हुए एहसास होता है कि हम भी इसी स्वतंत्र प्रकृति के अंग हैं। दौड़ने, हाँफने, टहलने के बाद थक कर सारनाथ के खंडहर वाले पार्क में घने नीम वृक्षों के नीचे किसी बेंच्च पर बेफिक्र हो बैठकर घण्टों प्रकृति का नजारा लेना, आनन्द दायक है।
खण्डहर के एक कोने में वेलेंटाइन जोड़े हीरो-हीरोइन की तरह फोटू हिंचा रहे थे। तैयारी से आये लगते थे। कपड़े बदलते और नए कपड़े में नई तस्वीरें खिंचाते। मैं उन्हें देखने में मशगूल था और सोच ही रहा था कि इनमें वेलेंटाइन वाली नेचुरल फीलिंग नहीं है भले ही ये फेसबुक में फोटो चिपकाएं तो बड़े रोमांटिक जोड़े नजर आएं कि तोतों के जोड़े नीम की शाख पर टाँय-टाँय करने लगे। उनके टाँय-टाँय से ध्यान भंग हुआ और उन्हें ही देखने लगा। एक लहराती, पतली शाख पकड़ कर झूलने और कलाबाजी खाते हुए टाँय-टाँय करने लगा और दूसरा उसे देख कर टाँय-टाँय करने लगा। दोनों में कौन तोता, कौन तोती ये अपने पल्ले नहीं पड़ा लेकिन असली वेलेंटाइन जोड़े लग रहे थे। बगल में खड़ा एक थाई जोड़ा चिंग-मिंग, चियाऊं-मियाऊं कर रहा था लेकिन जैसे टाँय-टाँय का मतलब नहीं समझा वैसे चियाऊं-मियाऊं भी नहीं समझा।
एक गिलहरी मेरे कदमों के पास से कुछ मुँह में दबा कर भाग गई और सरपट दौड़ती, अपने साथी के बगल में बैठ दोनों हाथों से पकड़ कर खाने लगी। इन्हें देख एक बात समझ में आती है कि खाने के मामले में ये कभी एक-दूसरे को कुछ शेयर नहीं करते। इस मामले में मनुष्य इनसे श्रेष्ठ प्राणी हैं।
एक थाई बच्चा लॉन में ही एक ओर खड़ा होकर, हिलते हुए बनारसी अंदाज में सू-सू करने लगा! उसकी मम्मी दौड़ते हुए आईं और उसे चपत लगाते हुए डाँट कर सभ्यता सिखाने लगी। अपने साथियों के बीच मम्मी शर्मसार होते हुए चीं-चां और अपने साथियों के बीच बच्चा हीरो बना ही-ही कर रहा था।
पौधों में बसन्ती बहार थी। भौरे गुनगुना रहे थे। दो सहेलियाँ बड़ी अदा से एक दूसरे की तस्वीरें खींच रहीं थीं। रह रह कर गेट की तरफ उचक/मचल कर देखतीं फिर फोटो खिंचाने में मशगूल हो जातीं। शायद उन्हें किसी की प्रतीक्षा थी।
धमेख स्तुप से नीम की शाख तक कबूतरों, कौओं और तोतों का आना-जारी था। मृगों के झुण्ड वैसे ही घास के लालच में बाउंड्री के उस पार ललचाई नजरों से टुकुर-टुकुर ताक रहे थे। मोर के इर्द-गिर्द मोरनियां न जाने क्या चुग रहीं थीं। एक कौआ एक हिरन की पीठ की सवारी कर रहा था। कौए तो कौए हैं कहीं भी बैठ जाते हैं। इनके लिये क्या हिरन, क्या भैंस! क्या संसद भवन, क्या गांधी जी की मूर्ती!!!

लोहे का घर - 26

नींद से जाग कर/करवट बदल फिर सो गया/ लोहे के घर में/ खर्राटे भरता आदमी. भीड़ नहीं है ट्रेन में/ जौनपुर पहुँचने वाली है किसान. मजे-मजे में सुन रहे थे सभी रोज के यात्री उसके खर्राटे. तास खेलने वाले खर्राटे के सुर से सुर मिलाकर जोर से पटकते हैं अपने पत्ते..हूँssss!/ अखबार पढ़ने वाले सांस से सांस मिलाकर/ ऊंची-नीची करते अपनी गरदन/ मोबाइल में वीडियो देखने वालों पर छाने लगा है खर्राटे का नशा. वे भी सो गये टाँगे फैलाकर. वह अभी और खर्राटे भरता लेकिन जगा दिया अपने अजीब स्वर से वेंडरों ने...हरी मटर ईss/ मटर बोलो, मटर/ ताजा पानी, मैंगो जूस/ कॉफी, चाय, गुटका बोलोsss/ चईया! अभी और खर्राटे भरता मगर जाग कर सोचने लगा/ खर्राटे भरता हुआ आदमी. एक बात समझ में आई/ सुर से सुर मिलाने से अच्छा है अजीब आवाजें निकालना/ अजीब आवाजों से/ खर्राटे भरने वाला आदमी क्या/ नींद से जाग सकती है देश की सरकार भी!
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जिनका सफ़र लम्बा होता है वे ट्रेन में खर्राटे भरते हैं। जिनका जितना छोटा, वे उतने बेचैन। गोदिया नामक लोहे के इस घर में बेचैन भी हैं और खर्राटे भरने वाले भी। कुछ कम्बल ओढ़ कर खामोशी से लेटे हैं अपनी बर्थ पर, कुछ लेटे-लेटे चला रहे हैं मोबाइल में उँगलियाँ और कुछ तो इतने खामोश हैं कि हिलाने के बाद ही इनके होने का एहसास हो पायेगा।
रात के खर्राटे और सुबह के खर्राटे में बड़ा फर्क होता है। रात में कोई खर्राटे भरे तो लगता है यह उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। सुबह-सुबह नहा-धो कर, दौड़ते-भागते ट्रेन पकड़े और सामने की बर्थ से लगातार जोर-शोर से खर्राटे की आवाज अनवरत आती रहे तब? तब आपका मन क्या करेगा? या तो आप भाग कर दूसरी बोगी में बैठ जायेंगे या खर्राटे भरने वाले के ऊपर अपनी बोतल का पानी छिड़कर जगा देंगे। क्या करेंगे यह आपकी ताकत और सहन शक्ति पर निर्भर करता है। 
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डबल बेड नहीं होता लोहे के घर में। लोअर बर्थ ही दिन में गप्प लड़ाने वालों की अड़ी, रात में सिंगल बेड बन जाती है। जव तक जगे हो चाहे जितना चोंच लड़ाओ मगर रात में सिंगल ही रहो। सिंगल बेड ही ठीक है लोहे के घर में। बे दर औ दीवार के कई घर साथ चलते हैं, डबल हो गया तो बवाल हो जायेगा!

मरूधर हवा से बातें कर रही है। यात्री आपस में खुशी का इजहार कर रहे हैं। रोज के यात्रियों को दफ्तर छोड़ने के बाद राइट टाइम पर मिली लेकिन अपने समय के अनुसार बहुत लेट है। समय के मामले में कितनों की किस्मत फूटी तब जा कर हम सौभग्यशाली बने। यही होता है। किस्मत का कटु सत्य यही है। किसी की अपने आप नहीं जगती। किसी की फूटती है तो किसी की जगती है। किस्मत से मिली खुशी मजा तो खूब देती है मगर श्रम अर्जित सुख वाला स्थाई भाव नहीं होता। आज है, कल गुम।

पीछे अड़ी जमी है। जोरदार बहस हो रही है। देश की चिंता हो रही है। शिक्षा के स्तर से लेकर चुनाव की बातें हो रही हैं। चुनाव ड्यूटी और निलंबन की बातें हो रही हैं। फुर्सत के समय लोहे के घर की अड़ी से बढ़िया कोई दूसरा स्थान नहीं होता देश की चिंता के लिये। जब कोई काम न कर पाओ तब देश की चिंता करो। नेता से लेकर अधिकारी तक की कमियाँ गिनाओ। खुद को छोड़ सब में झँकों। प्रचलित दूसरी अड़ियों की तरह लोहे के घर की अड़ी में देश की चिंता करने के लिए बढ़िया टॉनिक नहीं मिल पाता। चाय, पान, बीड़ी-सिगरेट, भांग या शराब नहीं मिल पाता। लोग होश में बहस करते हैं इसलिये जोर से शोर भले कर लें, आपस में हाथापाई नहीं करते। बहस गम्भीर हो जाए तो बात का रुख बदल कर देश की चिंता छोड़ अपनी चिंता करने लगते हैं। बात ठहाकों में समाप्त हो जाती है।

अभी सुबह शाम चकाचक ठंड है। बंद हैं लोहे के घर के शीशे। दिन में कड़क धूप है। जैकेट-मफ़लर उतरे, रात में छोड़नी, सुबह ढूँढ कर ओढ़नी पड़े रजाई तब समझो कि बसन्त आया। धूल उड़ाती बहने लगी हवा तब समझो बसन्त आया। अभी तो बसन्त का आउटर आया है। अपनी ट्रेन भी आउटर पर खड़ी है। बनारस घूमने आये एक विदेशी यात्री ने मुझसे हाथ मिलाकर 'थैंक यू' बोला और गेट पर जा कर खड़ा हो गया। किसी कन्या के हाथ की तरह कोमल था उसका हाथ! सोंच रहा हूँ उसने मुझे थैंक यू क्यों बोला? कहीं इसलिए तो नहीं कि मैं चुपचाप मोबाइल पर लिखता रहा और उसे डिस्टर्ब नहीं किया!
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गोदिया हवा से बातें कर रही है। शादी का मौसम है इसलिए भीड़-भाड़ है ट्रेन में। एक परिवार कई बच्चों के साथ जौनपुर में चढ़ा था। सभी बदहवास से थे। पुरुष बर्थ तलाश रहा था तो महिला सामान और बच्चों की गिनती कर रही थी। सामान की गिनती पूरी हुई तो बच्चों की शुरू हुई। अचानक से चीखने लगी-राहुल! राहुल! ...अरे! राहुल नहीं आया!!! ट्रेन चल दी, राहुल नहीं आया! भयाक्रांत महिला रुआंसी हो चुकी थी कि राहुल की आवाज आई-मम्मी! मैं यहाँ हूँ। अगले ही पल भय क्रोध में बदल गया-साथ क्यों नहीं रहता? राहुल हँसते हुए बोला-यहीं तो था! तब तक पुरुष ने पुरुषार्थ किया-बर्थ मिल गई, आगे है, चलो! सब चलो-चलो कहते हुए आगे बढ़ गये। उनके जाने के बाद आस-पास बैठे यात्री अपना-अपना विचार रखने लगे...घबराहट हो ही जाती है..कितना सामान था!..बच्चे भी बहुत थे..सामान मिलाने के बाद ही बच्चों पर ध्यान गया..आदमी के चिंता ना रहल, मेहरारू ढेर घबड़ा गयल..लोग बहुत जल्दी घबड़ा जाते हैं..।
गोदिया अभी भी हवा से बातें कर रही है। जौनपुर से बनारस नॉन स्टाप है। कोई स्टेशन आता है तो पटरियों से खट-पट करती है। कोई पुल आता है तो थर्रा देती है। कभी धीमें, कभी तेज मगर लगातार हवा से बातें कर रही है गोदिया। लोहे के घर के बाहर बहुत बड़ी दुनियाँ है। सफर में ही आसान लगती है जिंदगी। पड़ाव आया नहीं कि कई जरूरी काम याद आ जाते हैं। 

हमारा बसन्त

न आम में बौर आया, न गेहूँ की बालियों ने बसन्ती हवा में चुम्मा-चुम्मी शुरू करी, न धूल उड़े शोखी से और न पत्ते ही झरे शाख से! अभी तो कोहरा टपकता है पात से। सुबह जब उठ कर ताला खोलने जाता हूँ गेट का तो टप-टप टपकते ओस को सुन लगता है कहीं बारिश तो नहीं हो रही! कहाँ है बसन्त? कवियों के बौराने से बसन्त नहीं आता। बसन्त आता है तो हवा गाने लगती है, कोयल कूकने लगती है और पत्थर भी बौराने लगते हैं। अभी तो चुनाव आया है। जो जीतेगा बसन्त तो सबसे पहले उसी के घर आयेगा। आम को तो बस बदलते दाम देखने हैं। अभी जो परिवर्तन के लिए उत्साहित हैं वे बाद में समझेंगे कि रहनुमा बदलने से दुश्वारियाँ नहीं जातीं। मालिक भेड़-बकरी का सदियों से कसाई है। कहॉ है बसन्त?

द़फ्तर जाते हुए रेल की पटरियों पर भागते लोहे के घर की खिड़की से बाहर देखता हूँ अरहर और सरसों के खेत पीले-पीले फूल! क्या यही बसंत है? भीतर सामने बैठी दो चोटियों वाली सांवली लड़की दरवाजे पर खड़े लड़कों की बातें सुनकर लज़ाते हुए हौले से मुस्कुरा देती है। लड़के कूदने की हद तक उछलते हुए शोर मचाते हैं! क्या यही बसंत है?

अपने वज़न से चौगुना बोझ उठाये भागती, लोहे के घर में चढ़कर देर तक हाँफती, प्रौढ़ महिला को अपनी सीट पर बिठाकर दरवाजे पर खड़े-खड़े सुर्ती रगड़ते मजदूर के चेहरे को चूमने लगती हैं सूरज की किरणें! क्या यही बसंत है?

अंधे भिखारी की डफ़ली पर जल्दी-जल्दी थिरकने लगती हैं उँगलियाँ। होठों से कुछ और तेज़ फूटने लगते हैं फागुन के गीत। झोली में जाता है, हथेली का सिक्का। क्या यही बसंत है?

द़फ्तर से लौटते हुए लोहे के घर से मुक्ति की प्रतीक्षा में टेसन-टेसन अंधेरे में झाँकते नेट पर दूसरे शहर की चाल जांचते मोबाइल में बच्चों का हालचाल लेते पत्नी को जल्दी आने का आश्वासन देते मंजिल पर पहुँचते ही अज़नबी की तरह साथियों से बिछड़ते, हर्ष से उछलते, थके-मादे कामगार। क्या यही बसंत है?

पहले बसन्त आता था और बसन्त के बाद फागुन आता था। बसन्त और फागुन के मिलन का सुखद परिणाम यह हुआ कि हमारे नौजवानों को प्यार सिखाने वेलेंटाइन आ गया! प्यार तो हम पहले भी करते थे मगर गुलाब पेश करते बहुत झिझकते थे। कितने फूल किताबों में मुर्झा गए। कितने शादी के बाद किताबों में दुश्मन के हाथ लगे। जब से वेलेन्टाइन की शुरुआत हुई गुलाब क्या खुल्लम खुल्ला गुलदस्ता पकड़ाये जाने लगे! बसन्त पंचमी के दिन माँ सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त कर पढ़ाई में जुटने के बजाय लड़के वेलेंटाइन के इन्तजार में दंड पेलने लगे। लड़के तो लड़के उनके पिताजी भी बेचैन आत्मा का गीत गुनगुनाने लगे-"बिसरल बसन्त अब त राजा आयल वेलेंटाइन! आन क लागे सोन चिरैया, आपन लागे डाइन!!"

अभी तो कड़ाकी ठंड है। सुबह गेट खोलो तो बसन्त के बदले देसी कुत्तों के पिल्ले भीतर झांकते हुए पूछते हैं-मैं आऊँ? मैं आऊँ? अभी तो खूब हैं लेकिन कड़ाकी ठंड में पैदा हुए कुत्ते के दर्जन भर पिल्ले बसन्त आने तक दो या तीन ही दिखते हैं। जैसे आम आदमी को बसन्त नसीब नहीं होता वइसे ही सभी पिल्लों को बसन्त नसीब नहीं होता। जिन्दा रहते तो गली में निकलना और भी कठिन हो जाता। प्रकृति को इससे कोई मतलब नहीं। कोशिश करो तो छप्पर फाड़ कर देती है। कहती है-पाल सको तो पालो वरना हम तो उसी मिट्टी से नये खिलौने गढ़ देंगे! शायद इसी को महसूस कर नारा बना होगा-दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे। बाद में सरकार को इससे भी कठिनाई महसूस हुई तो नारा दिया-हम दो, हमारे दो। नहीं माने तो परमाणु बम हइये है। कोई #ट्रम्प चाल चलेंगे और साफ़ हो जाएंगे दोनों तरफ के आम आदमी। फिर आराम से मजे लेंगें ख़ास, बसन्त का। हमारा बसन्त तो बाबाजी का घण्टा!
.

3.2.17

पचपन साल का आदमी

वरिष्ठ नागरिक होने
और
रिटायर्ड होने की
निर्धारित उम्र
साठ साल होती है
साठ से
पाँच ही कम होता है
पचपन साल का आदमी

समा जाते हैं
हाथ की पाँच उँगलियों में
ख़ास होते हैं
ये पाँच साल
फैले तो जिंदगी
रेत की तरह फिसलती,
भिखारी-सी लगे
जुड़े तो
मुठ्ठी बन जाय!

कभी
अँगूठा या तर्जनी मत दिखाना!
पचपन साल का आदमी
तुम्हारा
अँगूठा देखता है तो
चबा लेता है
अपनी ही चारों उँगलियाँ
तुम्हारी
तर्जनी देखता है तो
गुस्से से पटक देता है
अपने ही मेज पर
मुठ्ठी!

अकेले में
नींद से पहले
छाती पर मूँग की तरह
सोती हैं उँगलियाँ...
अब पाँच साल ही बचे
करनी है
बिटिया की शादी
अब पाँच साल ही बचे
लड़के को
नहीं मिली नौकरी
अब पाँच साल ही बचे
लदा है माथे पर
ढेर सारा कर्ज

कभी अखबार से
कभी
नई सरकार के बजट से
करता है उम्मीद
ढूंढता है...
शादी के रिश्ते,
नौकरी के विज्ञापन,
आयकर में छूट,
युवाओं के लिये रोजगार,
होम लोन की ब्याज दर
और....
पत्नी को खुश करने के लिये
कोई अच्छी खबर

नहीं होती उसके पास
बच्चे की तरह
पूरी धरती
युवा की तरह
पूरा आकाश
या फिर
वरिष्ठ नागरिकों की तरह
जिंदगी का
कोई एक
निर्धारित कोना

सोम से शनि तक
काम से जूझता
बीच-बीच में
ज्ञान बघारता
हा-हा, ही -ही करता
खुद को सही
दूसरों को
गलत कहता
झूठी हँसी हँसता
कभी घर
कभी दफ्तर
सर पर उठाये
देर तक
हाँफता रहता है
पचपन साल का आदमी।

1.2.17

बसंत

माचिस ढूँढ कर रखना
उजाले में
सुना है
भड़क कर जलती है
लौ
बुझने से पहले

हौसला
बचा कर रखना
अँधेरे में
यूँ ही
डराती रहती हैं
काली रातें
सुबह से पहले
सांसें
चलती रहें
ठंडी हवा में भी
सुना है
बर्फ बन
भहरा कर गिरता है
जाड़ा
बसंत से पहले।
….......................