9.2.25

लोहे का घर

मदुरई, तमिलनाडु से ट्रेन में बैठे हैं। केरल की राजधानी त्रिवेंद्रम जा रहे हैं। यह मदुरई-त्रिवेंद्रम, अमृता एक्सप्रेस है। अपनी स्लीपर बोगी है। ट्रेन की खिड़की से इन रास्तों की तस्वीरें लेने के लिए जानबूझकर कर स्लीपर में रिजर्वेशन करवाए हैं। इन रास्तों में ठण्डी नहीं है, गर्मी है। मेरे साथ शर्मा जी हैं। दोनो लोअर बर्थ है। सूर्यास्त के बाद मौसम मस्त हो जाता है। खिड़कियों से आती ठण्डी हवा अच्छी लगती है। अभी सूर्यास्त नहीं हुआ। पश्चिम की खिड़कियों से धूप बोगी में झाँक रही थी, हमने खिड़कियों के दरवाजे बन्द कर दिए। शाम 3.50 हो चुके। ट्रेन को 5 मिनट पहले चल देना था, अभी खड़ी है। कल भोर में पहुँचना है त्रिवेंद्रम।

भीड़ नहीं है, सिर्फ आरक्षित बर्थ के यात्री ही आए हैं। अभी ट्रेन ने प्लेटफॉर्म से रेंगना शुरू ही किया था कि रुक गई! सभी यात्री तमिल में प्रतिक्रिया दे रहे हैं, कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा। कुछ मिनट रुकने के बाद एक तेज हारन के साथ ट्रेन चल दी। अपने कूपे के दोनो अपर बर्थ वाला एक युवा जोड़ा आया है, उनके गोदी में एक जोड़ी बच्चे हैं। बातें समझ में नहीं आ रही लेकिन भाव अभिव्यक्त हो जा रहे हैं। मौन की अपनी भाषा होती है जो कहीं भी, कभी भी, अभिव्यक्त हो जाती है। शाम होने वाली है, जौनपुर से बनारस की यात्रा का संस्मरण हो रहा है।

अपनी ट्रेन पलनी स्टेशन पर रुकी है। नारियल के वृक्षों और पर्वतों के सामने से गुजरते हुए यहाँ आई है ट्रेन। इस मार्ग में भी हिजड़े दिखते हैं। इधर के हिजड़े मुझे अपने स्टॉफ का नहीं समझते। ताली बजाकर तमिल में पैसे मांगते हैं। पैसे मांगने या देने की अपनी भाषा होती है, हिन्दी या तमिल से इसका कोई लेना, देना नहीं। पैसे देने के बाद मैने एक तस्वीर खीचनी चाही, बंदी ने प्रेम से पोज दिया। यह है लोहे के घर का आनंद।








20.1.25

पुस्तक लोकार्पण एवं नवगीत परिचर्चा

 19 जनवरी, 2025 को राजकीय लाइब्रेरी, एल.टी. कॉलेज वाराणसी में नवगीत कुटुंब समूह के बैनर तले पुस्तक लोकार्पण एवं राष्ट्रीय गोष्ठी का आयोजन किया गया। 

समारोह में दो पुस्तकों 'नवगीत अर्द्ध शतक भाग -1'  और 'एक मुट्ठी भात' का लोकार्पण हुआ जिसके सम्पादक एवं कृतिकार श्री शिवानंद 'सहयोगी' हैं। इसके अलावा 'नवगीत दिशा एवं दशा' इस विषय पर एक परिचर्चा भी हुई जिसमें राजा अवस्थी, डॉ भुवनेश्वर दुबे, डॉ चंद्रभाल सुकुमार, डॉ रणजीत पटेल, गणेश गंभीर जैसे विद्वान वक्ताओं ने अपने सारगर्भित विचार रखे। मुख्य अतिथि डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'जी रहे। 

प्रसिद्ध गीतकार आदरणीय डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी का अध्यक्षीय उद्बोधन यादगार रहा। इस अवसर पर उन्होने दो गीत भी सुनाए।वीडियो का लिंक... https://youtu.be/nSYiay7sW64?si=3sM-jYYdc6VmD2Kl








5.1.25

लोहे का घर

लोहे के घर में लेटे हैं। यह डेली यात्री की स्लीपर बोगी नहीं, वरिष्ठ नागरिक की वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी की लोअर बर्थ है। कंबल, चादर बिछा लिया हूँ और दूसरी चादर ओढ़ लिया हूँ। मेरे कूपे में 3 यात्री और हैं। रात्रि के 11 बज चुके हैं, कूपे की बत्तियाँ बुझाई जा चुकी हैं। सिर्फ टी टी की आवाज सुनाई पड़ रही है। वेटिंग टिकट वाले टी टी से बर्थ मांग रहे हैं और वो शालीनता से असमर्थता व्यक्त कर रहे हैं, "सीट है ही नहीं, कहाँ से दे दें? RAC वाले बर्थ माँग रहे हैं, उनको नहीं दे पा रहा हूँ, आपको कैसे दे दूँ?" इसके अलावा गहरी शांति है, अँधेरा है। पूरा सोने का माहौल है। 

घर में 9 बजे ही सो जाने वाला, लोहे के घर में रात्रि 11 बजे के बाद भी जाग रहा है! नींद नहीं आ रही। यह शिव गंगा है। दिल्ली पहुँचाने का सही समय तो सुबह 8.30 है लेकिन कोहरे के कारण शाम भी हो सकती है। मैं शाम तक के लेट की संभावनाओं के लिए तैयार हूँ। पानी, ब्रेड, बिस्कुट, नमकीन और मिठाई सब रख लिया हूँ। लोहे के घर में देर तक रुकने का ट्रेन कोई अतिरिक्त किराया नहीं लेती, फिर क्या फिकर? डरें वो जिन्हें आगे की ट्रेन पकड़नी हो, हमें तो कुछ दिन दिल्ली में ही खूंटा गाड़ना है। शुभ रात्रि बोलना पड़ेगा, नमस्कार।

चकाचौँध करने वाली लाइटें, कई ओवर ब्रिज पार करते हुए प्रयागराज स्टेशन के आउटर से आगे बढ़ रही है ट्रेन।  अभी तो लगभग सही समय चल रही है।

कानपुर से 10 किमी आगे 'पंकी धाम' नामक स्टेशन पर रुकी है। कानपुर से आगे, दिल्ली से पहले कहीं ठहराव नहीं है मगर अब यह ठहर-ठहर, सिसक-सिसक चलना शुरू कर चुकी है। 1 घण्टे, 40 मिनट लेट हो चुकी है, लगता है, सुबह नहीं शाम तक पहुंचाएगी।

सुबह के 9 बज चुके हैं। कोहरे में ट्रेन कभी चलती, कभी रेंगती नजर आ रही है। अभी ज्यादा नहीं, मात्र 4 घण्टे लेट हुई है। मुझे इसके लेट होने से कोई शिकायत नहीं है। सकुशल पहुँचा रही है, इसका आभारी हूँ। इस हाड़ कंपाती ठंड और घने कोहरे में सकुशल चल रही है, यही बड़ी बात है। अभी जल्दी के चक्कर में कोई दुर्घटना हो जाय तब? जान चली जाय, कोई बात नहीं, लाश को और फूंकेंगे लेकिन घायल होकर अपाहिज हो गए तब? इस जाड़े में थोड़ी चोट भी भारी लगेगी। इससे अच्छा है कि खूब देख भाल कर आराम-आराम से चले। सुबह के बदले शाम को पहुंचाए लेकिन सुरक्षित पहुंचाए। 

शीशे से बाहर झाँकता हूँ तो घने कोहरे में तन कर, चौकीदार की तरह खड़े, भारी वृक्ष दिखलाई देते हैं। सरसों के खेत कोहरे में धुंधले दिख रहे हैं। पीले फूलों के कारण पहचाने जा रहे हैं। कोई ग्रामीण हलचल नहीं दिख रही, लगता है किसान भी ठण्ड से बच रहे हैं! दिल्ली तक कोई स्टॉपेज नहीं है लेकिन बहुत से छोटे-छोटे स्टेशन हैं। कहीं रुक नहीं रही लेकिन छोटे स्टेशन को पार करते समय धीमी हो जाती है। लगता है स्टेशन मास्टर को सलाम कर रही है। डरती होगी, "कहीं स्टेशन मास्टर ने रोक दिया तो पूरा दिन इसी छोटे स्टेशन पर बिताना पड़ेगा।" ट्रेनों की मास्टरी करना भी कठिन काम है। सबके एक-एक पल का ध्यान रखना पड़ता है। हर ट्रेन में असंख्य जीवित प्राणी रहते हैं।, जरा सी चूक इन प्राणियों पर भारी पड़ सकती है।

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