कभी सोचा है ! एक अकेली सड़क को कितने लोग खोदते हैं ? टेलीफोन वाले, बिजली वाले, पानी वाले, सीवर वाले, ओवरब्रिज बनाने वाले, शादी के पंडाल वाले, रामलीला मैदान वाले, और भी बहुत से लोग जिन्हें मैं नहीं जानता . मजे की बात यह है कि एक खोदता है, मतलब साधता है और चल देता है, दूसरा खुदी हुई सड़क के बनने का इंतज़ार करता है कि कब बने और मैं खोदूँ ! किस्मत की मारी सड़क खुदाई तंत्र के दंश झेलती जिए जाती है यूँ ही सालों साल.
प्रसिद्द व्यंग कवि 'बेढब बनारसी' आजादी से पहले मिली अंग्रेज मेजर, "लंफटट पिगलस" की डायरी के माध्यम से लिखते हैं कि 'बनारस की सड़कें ऐसी हैं, जिनपर खेती की जा सकती है' !
आभागी सड़क ! तब से लेकर आज तक, बार-बार सुनती है उस माँ का श्राप, जिसका बच्चा गिरकर मर गया गढ्ढे में, उस दद्दू की गालियाँ, टूट चुकी हैं जिनकी टाँगे या फिर उन मोटर साईकिल वालों की मतरिया-बहनियाँ, जो गिरकर संभल जाते हैं अपनी किस्मत से .
यकबयक भरने लगे गढ्ढे, चलने लगे रोलर, गिरने लगे गिट्टियाँ, पिघलने लगे तारकोल तो खुशी के मारे उछल मत पड़ना कि अरे..! टेलीफून विभाग वाले जिस सड़क को खोदकर गए थे वह इतनी जल्दी बनने जा रही है ! दरअसल हुआ यों होगा कि सीवर के लिए पाईप बिछाने वालों ने फोन कर दिया होगा, सड़क बनाने वालों को कि जाओ, जल्दी अपना बज़ट बनाओ, माल खपाओ, हम आ रहे हैं सीवर लाईन के लिए पाईप बिछाने ! फिर ना कहना कि बताया नहीं ! लो जी, कर लो बात ! एक फसल कटी नहीं कि दूजी हो गयी तैयार ! इधर सड़क बनी नहीं, कालोनी वाले 'मार्निंग वाक' का मूड बना ही रहे थे कि आ गए सीवर वाले अपना ताम झाम लेकर !
शर्माजी की हालत देखते ही बनती थी. बिचारे मार्निंग वाक का सूट भी ले आये थे बाजार से ! बड़े अरमान से पहन कर निकले तो क्या देखते हैं कि सड़क पर बोर्ड टंगा है ..."सावधान! आगे रास्ता बंद है . सीवर के लिए पाईप बिछाने का कार्य प्रगति पर है." बोर्ड पढते ही शर्मा जी हत्थे से उखड़ गए. दिन भर पूरी कॉलोनी को माथे पर उठाए रहे.
"ये तो कोई बात नहीं हुई ! जो तुरंत खोदाई करनी थी तो बनायीं ही क्यों ? ये सरकारी विभाग वाले आपस में तालमेल क्यों नहीं करते ? जनता की गाढ़ी कमाई सरे आम बर्बाद कर रहे हैं !" मैंने सलाह दिया, "अरे, नाहक यहाँ चीखने से क्या होगा ? यदि आप वास्तव में अपनी बात सरकार तक पहुँचाना चाहते हैं तो अपने विधायक जी से इसकी शिकायत कीजिए. आखिर वो हैं किस मर्ज की दवा !"
शाम को शर्मा जी पान की दूकान पर पान घुलाये, मुहँ फुलाए, चुपचाप जुगाली की मुद्रा में बैठे दिखाई दिए. मुझे देखते ही पान यूँ थूका मानों ज्वालामुखी को फूटने के लिए इसी पल का इन्तजार था ! मैं हडबड़ा कर संभल गया वरना पान से मेरी पैंट लाल हो जाती ! फिर भी कुछ छींटे तो पड़ ही गए.
मैंने कहा, " संभल के शर्मा जी, क्या बात है ? गए थे विधायक जी के पास ? क्या हुआ ?"
शर्मा जी छूटते ही बोले, " आप भी न ! ...कवियों के चक्कर में जो पड़ा समझो जलालत हाथ लगी ! विधायक जी उल्टे मेरा ही मजाक उड़ाने लगे. उनके गुर्गे मुझ पर ऐसे हंस रहे थे मानो दुनियाँ का सबसे मूर्ख आदमी मैं ही हूँ. "
मैंने कहा, " अरे शर्मा जी क्या हुआ ? कुछ तो बताइए !"
होना क्या था, विधायक जी मेरा मजाक उड़ाते हुए कहने लगे.." लो भाई, सुन लो, इतनी मेहनत से सीवर लगवाने का इंतजाम किया तो भाई लोग इसमें भी नुख्स निकालने लगे ! भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा. कुछ दिन परेशानी सह लीजिए भाई साहब, पूरी जिंदगी मज़ा भी तो आप ही लेंगे." मैंने उनको समझाया कि ठीक है, पाइप लाईन बिछा रहे हैं मगर थोड़ा सा तालमेल हो जाता तो सड़क बनाने का पैसा तो बच जाता ! लेकिन वो कहाँ सुनने वाले कहने लगे, " आम खाईये, गुठलियाँ मत गीनिये ! ये तो राज-काज है. मैं भी क्या करता अपना सा मुँह लेकर चला आया.
अब शर्मा जी को कौन समझाए कि ये जो हो रहा है, 'तालमेल' से ही हो रहा है ! सरकारी विभागों में तालमेल इस बात तो लेकर नहीं होता कि कैसे राष्ट्र का धन अपव्यय होने से बचाया जाय ! हाँ, इस बात को लेकर जरूर हो सकता है कि ............................................................
कभी सोचा है !