काशी दर्शन-1
काशी में निवास करने का एक सुख यह भी है कि दूर-दराज के रिश्तेदार, मित्र तीर्थाटन की दृष्टि से पधारते हैं और अपने स्वागत-सत्कार का अवसर काशी वासियों को स्वेच्छा से प्रदान करते हैं। यह अवसर सभी को प्राप्त होता है मगर काशी वासियों को कुछ अधिक ही मिलता होगा, ऐसा मेरा सोचना है। एक तो बाबा विश्वनाथ दूसरे माँ गंगा के पवित्र तट पर स्थित काशी के घाट, दोनों इतनी ख्याति अर्जित कर चुके हैं कि काशी के ठग, सड़कें और गंगा में गिरने वाली गंदी नालियों के संयुक्त प्रयास भी व्यर्थ ही सिद्ध हुए हैं। यह अवसर जब कभी हाथ लगता है तो नव निर्माण से गुजर रहे बनारस की खस्ताहाल सड़कों, भयंकर जाम व धूल-गंदगी के चलते अपनी दशा सांप-छछुंदर वाली हो जाती है। न तीर्थ यात्रियों के संग घूमने का ही मन करता है और न अतिथि की मनोकामना पूर्ण करने में किसी प्रकार की कोताही कर के, सामाजिक अपराध का भागी ही बनना चाहता हूँ । ‘मन मन भावे, मुड़ी हिलावे’ से उलट, ‘मन ना भावे, मुड़ी झुकावे’ वाले हालात पैदा हो जाते हैं। तुरत-फुरत पहला प्रयास तो यह होता है कि आई बला भक्काटे हो जाय ! सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे ! मतलब अतिथि को दर्शन भी प्राप्त हो जाय और मुझे साथ जाना ही न पड़े। मगर ऐसे मौकों पर सबसे पहले जीवन साथी ही साथ छोड़ जाती है तो मित्रों या घर के दूसरे सदस्यों से क्या अपेक्षा की जाय ! टका सा जवाब होता है...”जब मैं ही घूमने चली जाऊँगी तो घर का काम कौन करेगा...? भूख तो लगेगी ? भोजन तो ठीक टाईम पर चाहिए ही होगा ? यह संभव नहीं कि दिन भर घूमूं और शाम ढले वापस आकर स्वादिष्ट भोजन भी परोस दूँ..! आपके मित्र हैं, आप ही जाइए...मुझे तो माफ ही कर दीजिए..! ‘ऑफिस जाना जरूरी है और शर्मा जी की पत्नी भी चाहती हैं कि तुम साथ रहोगी तो कुछ खरीददारी भी हो जाएगी !’……सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहते कि मैं चाहता हूँ कि मेरी आफत तुम झेलो ! मुझे नहीं फांकनी सड़कों की धूल । एक दिन की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते ऑफिस से ?“ मेरे पास खिसियाकर तुरंत ‘यू टर्न’ लेने के सिवा कोई चारा शेष नहीं रहता..”हाँ, तुम ठीक कह रही हो...! यह सब तुम्हारे बस का नहीं..! मैं ही चला जाता हूँ।“
दूसरे दिन, अलसुबह, बाधरूम में मेरा जोर-जोर से गाना...”सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है” सुनकर जब ‘शर्मा जी’ की नींद उचटती है और उनके मुखारविंद से मेरे लिए तारीफ के दो बोल फूटते हैं...”पाण्डेय जी, आप गाना बहुत अच्छा गाते हैं....हम भी थोड़ा बहुत गा लेते हैं.. कभी अवसर मिला तो जरूर सुनाएंगे !” मैने कहा, ”अरे नहीं, वो तो बाथरूम में...! आप तो पुराने गायक हैं...कभी क्या, आज शाम को ही सुनेंगे। .......चलना नहीं है क्या ? जल्दी से आप लोग भी तैयार हो जाईए..’सुबहे काशी’ की छटा ही निराली है...वही नहीं देखा तो क्या देखा !” तभी दूसरे कमरे से, अकर्णप्रिय आवाज गूँजती है...”सुनिए..s...s..!
मैं अढ़ाई इंची मुस्कान चेहरे पर जबरी झोंकते हुए, शर्मा जी से....”अभी आया, आप जल्दी से तैयार हो जाइए..” कहकर श्रीमती जी के सम्मुख डरते-डरते वैसे ही उपस्थित होता हूँ जैसे कोई कक्षा में शोरगुल मचा रहा बच्चा,कक्षा अध्यापक के बुलावे पर अपराध बोध से ग्रस्त उनकी मेज के सम्मुख उपस्थित होता है....”क्या जरूरी है कि सुबह-सुबह सारे मोहल्ले की नींद हराम की जाय ? सर फरोशी की तमन्ना....उंह, वो तो अच्छा है कि शर्मा जी ने कंठ की तारीफ की, कहीं बोल पर ध्यान देते तो कितना बुरा मानते !.. सोचा है ? घूमने में इतनी परेशानी ! शहीद होने जा रहे हैं…! क्यों ?” मैने खिसियाकर कहा, “तुम भी न….! ....सो जाओ चुपचाप। कभी घर से बाहर निकलती तो हो नहीं, तुम्हें क्या मालूम कि आजकल बनारस की सड़कों के क्या हाल हैं ! ‘हर कदम रखना कि जैसे अब मरा...चल रहा हर शख्श डरा डरा ।‘ यहाँ, ‘कहीं पहाड़ तो कहीं गहरी खाई है..सड़कें देखो तो लगता है, बिहार से भटककर बनारस में चली आई है।‘” श्रीमती जी ने ‘जाओ मरो’ न कहके बस इतना ही कहा, ”अच्छा जाइए, शहीद हो जाइए..धीरे बोलिए, बच्चे सो रहे हैं, मेरी हर बात को कविता में न उड़ाइए।“
हम सब जब चलने को उद्यत हुए तो श्रीमति जी ने पत्नी धर्म का बखूबी निर्वहन किया । जिसकी उम्मीद, सुबह के प्रेमालाप के बाद मैं लगभग छोड़ चुका था। “सुनिए..s..s..एक कप चाय तो पीते जाईए...कहते हुए जब उन्होने चाय की ट्रे मुस्कुराते हुए पास किया तो मुझे भारतीय पती होने पर होने पर अनायास ही गर्व का अनुभव हुआ।“ चाय पीने के पश्चात, शर्मा जी - शर्माइन जी और उनके दो होनहार बाल पुत्रों के साथ अभी-अभी रूके बारिश और हर कहीं खुदे सड़क पर जब हमारी साहसिक यात्रा का शुभारंभ हुआ तो शर्मा जी बोले, “हें..हें..हें..आप ठीक कह रहे थे...यहां कोई गाड़ी नहीं आ सकती। कितनी दूर...?” (मैने बात बीच में ही काटी), अरे, बस एक कि0मी0 की पदयात्रा के बाद आटो मिल जाएगी, इसीलिए कह रहा था न कि सुबह-सुबह चलने में भलाई है। मार्निंग वॉक भी हो जाएगी और दर्शन भी हो जाएगा। व्हेन देयर इज नो वे, से… हे..हे..!” शर्माजी हंसते हुए बोले, “आप बढ़िया मजाक कर लेते हैं। आपके साथ दुःख अपने आप दूर हो जाता है।“
अब रास्ते के गढ्ढों, शर्माइन जी की रेशमी साड़ी पर पड़ने वाले कीचड़ के छींटों, बच्चों के फिसल कर गिरने की चर्चा करूंगा तो बात और भी लम्बी हो जाएगी, कोई पढ़ेगा भी नहीं। सीधे मुद्दे पर आते हैं। लगभग एक कि0मी0 की पदयात्रा के पश्चात जब हम ऑटो पर सवार हुए तो सबकी जान में जान आई। शर्मा जी ने ही मौन तोड़ा, “सड़क बहुत खराब है।“ मैने कहा, “हाँ.... पूरे वरूणा पार ईलाके में सीवर लाईन बिछाने का कार्य चल रहा है न, इसीलिए अभी इतनी खराब हो गई है।“ पहले से भरे बैठीं, शर्माईन जी ने वार्ता में भाग लिया..”वो तो ठीक है भाई साहब, लेकिन जिधर सीवर लाईन बिछ गई, उधर तो सड़क बना देनी चाहिए। कम से कम मजदूर लगा कर मिट्टी तो एक बराबर कर ही सकते थे। गढ्ढे तो पट जाते। सड़क तो एक लेबल की हो जाती। लगता है सारनाथ के लोगों पर भगवान बुद्ध के उपदेशों का गहरा असर पड़ा है। हड़ताल, हिंसा पर यकीन नहीं करते। कम से कम बापू को ही याद कर लेते। मुन्ना भाई पिक्चर भी नहीं देखी क्या ? थोड़ा गांधी गिरी चलाते तो भी सड़क बन जाती। बैठे हैं भगवान के भरोसे ! फल भी शाख से तोड़कर खाना पड़ता है। नहीं तोड़ा तो कौआ खा जाएगा।“ मैने हंसकर कहा, “सारनाथ का ही नहीं भाभी जी, पूरे शहर का यही हाल है ! इधर वरूणापार के लोगों पर भगवान बुद्ध के उपदेशों का असर है तो उधर गंगा तट के लोगों पर भोले बाबा की बूटी का गहरा प्रभाव देखने को मिलेगा ! आगे-आगे देखिए, दिखता है क्या !”
शुक्र है कि सुबह का समय था, जाम नहीं झेलना पड़ा लेकिन विश्वनाथ मंदिर पहुंचने से पहले, रास्ते में बन रहे दो-दो ओवर ब्रिजों के लिए की गई खुदाई से बने गढ्ढों, धूल से सने पवन झोकों और आजादी के पहले से अनवरत खराब चल रही खस्ता हाल सड़कों पर उछलते हुए हमारी टेम्पो जैसे ही गोदौलिया चौराहे पर रुकी, उतरने से पहले गंगा मैया के भेजे दो घाट दूत साधिकार रास्ता रोक सामने आ खड़े हो गए ! उनमें से एक बोला. “नाव में जाना है साहब ? दूसरा उत्तर का इंतजार किए बिना बोला, “चलिए हम ले चलते हैं, हमारी नाव एकदम अच्छी है, जहाँ कहेंगे वहीं घुमा देंगे ! मैने झल्लाकर उसी की भाषा में जवाब दिया, “नैया में घूमें नाहीं दर्शन करे निकलल हई ! समझला ? नाव में जाना है ! अबहिन रेगिस्तान कs धूल फांक के उतरबो नाहीं किया कि आ गइलन नैया लेके ! नदी इहाँ हौ ? 2 कि0मी0 पहिले से खोपड़ी पर सवार !“ मेरी बात सुनते ही दोनो बड़बड़ाते हुए भाग खड़े हुए..”अरे, नाहीं जाएके हौ तs मत जा ! कौनो जबरी तs उठा न ले जाब ! चीखत काहे हौआ कौआ मतिन !” शर्माइन जी यूँ खिलखिला कर हंसने लगीं मानो उन्हें बात पूरी तरह से समझ में आ गई हो ! मैं भी उनकी तरफ देख कर बोला, “अभी बड़े-बड़े यमदूत आएंगे भाभी जी, किसी की बात मत सुनिएगा।“ शर्माइन जी हंसते हुए बोलीं, “नहीं भाई साहब, मैं तो केवल आपकी ही बात सुनुंगी !” शर्माजी ने बस अपनी पत्नी को घूरा और मेरी तरफ देख कर जबरी मुस्कान बिखेरी, “आप ठीक कह रहे हैं।“
विश्वनाथ मंदिर पहुंचने से पहले विश्वनाथ गली से होकर गुजरना पड़ता है। विश्वनाथ गली, दुनियाँ की सबसे नायाब गली है। भांति-भांति की दुकाने, भांति-भांति के लोग। बिंदी, टिकुली, चूड़ी, कंगना, साड़ी, धोती, कुर्ता, पैजामा से लेकर पीतल के बर्तन, खिलौने, मूर्तियाँ, भगवान को सजाने वाले कपड़े, पत्थऱ के छोटे-छोटे टुकड़े, फूल-माला की दुकानें, कैसेट सब कुछ मिलता है यहाँ। जिधर देखो उधर निगाहें ठहर जाती हैं। आपके साथ कोई महिला हो, बच्चे हों तो फिर आपकी इतनी पूछ होती है कि कहना ही क्या ! जगह-जगह रास्ता रोकने के लिए तैयार खड़े दलाल, राह चलना मुश्किल कर देते हैं। “आईए बहेंजी, मत खरीदिएगा...देख तो लीजिए...!”…..” जूते यहाँ उतार दीजिए, आगे मंदिर है.....!”…”दर्शन करा दूँ...? भींड़ में कहाँ जाईएगा ? मैं आपको जल्दी और आराम से दर्शन करा दुंगा....!” भांति-भांति के विद्वान अपनी चंद्रकलाओं का समवेत गान करते हुए साधिकार राह रोके खड़े हो जाते हैं। मेरे लाख बचाने का प्रयास करते हुए भी शर्मा जी, श्रीमती जी के साथ कई स्थानो पर रूके और समान खरीदने के लिए लपकते दिखाई दिए। मैंने समझाया कि पहले दर्शन-पूजन हो जाय फिर आप जितना चाहें खरीददारी कर लेना, तब जाकर शांत हुए।
मंदिर में प्रवेश के कई मार्ग हैं। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में गेट बने हैं। पुलिस चौचक जांच-पड़ताल करती है। मोबाईल, कलम भी भीतर ले जाना सख्त मना है। मैंने सीधे रास्ते से मंदिर में प्रवेश करना चाहा तो पुलिस ने ज्ञानवापी वाला रास्ता पकड़ा दिया। भगवान के दर्शन में, किसी प्रकार का सोर्स या पंडे की मदद लेना नहीं चाहता था अतः जिधर पुलिस ने मोड़ा उधर ही मुड़ गया। ज्ञानवापी मार्ग थोड़ा घुमावदार है लेकिन वहाँ से गुजरना भी कम रोचक नहीं होता। इधर मस्जिद, उधर मंदिर और चौतरफा पुलिस की चौचक सुरक्षा व्यवस्था। हमारी रक्षा भगवान करते हैं और भगवान की रक्षा सिपाही ! दिन-रात मंदिर की सुरक्षा में लगे सुरक्षा कर्मियों की हालत दयनीय हो जाती है। खूब जांच पड़ताल के बाद जब हमने ज्ञानवापी गेट से प्रवेश लिया तो वहाँ का नजारा, श्रीमान-श्रीमती, बच्चों के साथ आँखें फाड़े देखने लगे। मैने कहा, “अब चलिगा भी...! आगे लम्बी लाईन है।“ “हाँ भाई साहब, चल तो रहे हैं...ये बंदर आपस में क्यों झगड़ रहे हैं ?” मैने कहा, “ये मंदिर के बदंर हैं, वे मस्जिद के बंदर हैं। झगड़ेंगे नहीं तो क्या प्रेम से रहेंगे.. ? आदमी जब समझदार नहीं हो सके तो बंदरों से क्या उम्मीद की जाय…!”
मंदिर में खूब भींड़ थी लेकिन व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि आराम से दर्शन हो गया। दर्शन के बाद शर्माइन जी का धैर्य का बांध पूरी तरह टूट गया। मेरे लाख मना करने के बाद भी उन्होने जमकर खरीददारी की, शर्मा जी ने मुक्त भाव से पैसे लुटाए और मैं मूर्ख भाव से सबकुछ शांत होकर देखता रहा। विश्वनाथ गली से निकलते-निकलते धूप तेज हो चुकी थी, हमने गंगा में नौका विहार की योजना दूसरे दिन के लिए टाल दिया और यह तय किया कि आज अधिक से अधिक मंदिरों के दर्शन कीए जांय। ‘केरला कफे’ में दिन का भोजन लेने के पश्चात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित विश्वनाथ मंदिर, संकट मोचन, मानस मंदिर, दुर्गा मंदिर आदि घूमते-घूमते शाम ढल चुकी थी, बच्चों के साथ हम भी थककर चूर हो चुके थे और हमारे पास घर की राह पकड़ने के सिवा दूसरा कोई चारा न था।