24.9.11

रखता हूँ अपनी जेब में अब छुपा के हाथ...


गज़ल लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। यह विधा मुझे बहुत कठिन लगती है। कभी कभार हिमाकत कर बैठता हूँ। गलतियाँ बतायेंगे तो सुधारने का प्रयास करूंगा। सुधार देंगे तो और भी अच्छी बात हो जायेगी।


गुजरे हैं फिर करीब से वो उठा के हाथ
करते थे बात देर तक जो मिला के हाथ

वादे पे उनके हमको इतना यकीन था
करते थे याद नींद में हम हिला के हाथ

उठ जाये ना भूल से फिर उनको देखकर
रखता हूँ अपनी जेब में अब छुपा के हाथ

मिल जायेगा अगर कहीं पहुँचा हुआ फकीर
पूछेंगे इसका राज तब हम दिखा के हाथ

करता हूँ अब तो दूर से सबको मैं सलाम
जब से गई है जिंदगी मुझसे छुड़ा के हाथ

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20.9.11

संकट मोचन की मंगला आरती।



मैं बनारस में पैदा हुआ, असंख्य बार संकट मोचन मंदिर गया लेकिन कभी मंगला आरती नहीं देखी। मंगला आरती सुबह साढ़े चार बजे होती है। समय इतना कठिन है कि सुबह उठकर स्नान ध्यान के पश्चात सारनाथ से संकट मोचन ( लगभग 15 किमी दूर ) जाना कभी संभव न लगा। विगत दो माह से बच्चों की पढ़ाई के चक्कर में लंका में ही किराये का कमरा लेकर रह रहा हूँ। कल जब श्री कैलाश तिवारी ने हमेशा की तरह कहा कि तू कब्बो मंगला आरती में संकट मोचन नाहीं गइला अउर हमें देखा तs हम तोहरे से भी 10 किमी दूर रहिला लेकिन आज 25 साल से ऐसन एक्को मंगल ना भयल कि हमार आरती छूट गयल हो ! हम उनका चेहरा देखते रह गये। सेवा निवृत्त होने के पश्चात भी मास्टर साहब इतनी दूर मोटर साइकिल चला कर हर मंगलवार सुबह 4 बजे संकट मोचन मंदिर पहुंच जाते हैं और मैं इनके बार-बार ताव दिलाने के बाद भी एक दिन नहीं जा सका ! लेकिन अगले ही पल खयाल आया अब क्या है, अब तो हम भी जा सकते हैं ! अब तो मैं संकट मोचन से मात्र आधे किमी दूर रह रहा हूँ। उनसे कह दिया..तोहू का याद करबा......काल मंगलवार हौ...हम आवत हई। बहुत तारीफ कइला...हमहूँ देखि कैसन होला मंगला आरती ! मैने उन्हें नहीं बताया कि मैं अब सारनाथ में नहीं संकट मोचन के पास ही रह रहा हूँ। उन्हें मेरी बात पर यकीन नहीं हुआ। तू का अइबा...10 साल तs हमे कहत भयल हो गयल। कहा तs हम तोहरे घरे आ जाई सबेर तीन बजे...सारनाथ। मैने घबड़ाकर कहा..नाहीं तिवारी जी, आप हमरे घरे मत आवा हम काल जरूर आइब। खाली हमें फोन करके जगा दिया । तिवारी जी बोले.....ठीक हौ तs हम फोन करब। उन्होने सख्त चेतावनी दी....अ काल ना अइला तs एकर पेनाल्टी भुगते के तैयार रहे।बात आई गई हो गई। काम की व्यस्तता में मैं अपना वादा भूल चुका था। सोने में काफी देर हो चुकी थी। कई बार फोन की घंटी बजी तो नींद में ही उठा कर देखा...कौन इतनी रात में फोन कर रहा है ! कैलाश तिवारी...नाम पढ़कर चौंक गया। नींद जाती रही। समय देखा सुबह के चार  बज रहे थे। अपना वादा याद आया। फोन उठाकर बोला...हाँ तिवारी जी ! आवत हई...। तिवारी जी हंसने लगे.... जग गइला...तू कहले न होता तs न जगाइत...जा सुत जा...तू का अइबा...हम पहुंचत हई संकट मोचन...एक घंटा से फोन करत हई और तू अब जाके उठला...। इतना कहकर उन्होने फोन काट दिया। मैं हड़बड़ी में ताव खा कर बाथरूम में घुसा। अब नहीं गये तो कब जायेंगे..!  

नहा धो कर मंदिर पहुँचा तो साढ़े चार बजने में कुछ मिनट बाकी थे। हनुमान जी के दर्शन से अधिक तिवारी जी के दर्शन के लिए लालायित था। उन्हें यह दिखाना चाहता था कि मैं भी भोर में सारनाथ से संकट मोचन आ सकता हूँ। मंदिर के सामने तिवारी जी दिखाई दिये। पूर्ण भक्ति भाव से थपड़ी बजाते हुए। जय सियाराम जै, जै सियाराम। मैने लपक कर उनको स्पर्श किया। मुझे देख कर बोले...आ गइला...! इतनी जल्दी... !! और फिर वे अपने भजन में लीन हो गये । मेरा अहं तुष्ट हुआ। मैं आगे जाकर जो खाली स्थान दिखा वहीं बैठ गया। 

वह एक अद्भुत दृष्य था। न देखा न महसूस किया। संकट मोचन मंदिर में जा कर दर्शन करने में आनंद का अनुभव होता है लेकिन वह तो परमानंद था। मेरे जैसा अहंकारी, शंकालु और छुद्र मन चित्त का प्राणी भी वहां जाकर इतने आनंद का अनुभव कर सकता है तो निर्मल ह्रदय जमा हुए असंख्य भक्तों का क्या हाल होगा...! सारा अहंकार पल में धुल चुका था। हनुमान जी के सामने चबूतरे पर बीच में जो खाली जगह मिली वहीं बैठ गया। भजन चल रहा था। मंदिर का पर्दा जिसमें सिया राम लिखा था खुलने ही वाला था। अचानक से सब खड़े हो गये ! सबकी देखा देखी मैं भी खड़ा हो गया। पीछे मुड़कर देखा तो मेरे पीछे कोई नहीं था ! भक्त पंक्ति बद्ध हो दो कतार में खड़े हो जोर जोर से भजन गा रहे थे। जय सियाराम जै, जै सियाराम। दरअसल हनुमान जी के मंदिर के ठीक सामने पचास कदम की दूरी पर राम जानकी का मंदिर है। वहाँ भी मूर्तियाँ वैसे ही पर्दे में थीं। हनुमान मंदिर से राम जानकी मंदिर तक पंक्ति बद्ध हो, दो कतार में लोग भजन गा रहे थे। बीच का मार्ग खुला छुटा हुआ था। मैं वहीं बीच में खड़ा था ! सहसा मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ। पहली बार आने के कारण यह ज्ञान नहीं था कि बीच में नहीं बैठना चाहिये। वह स्थान इसीलिए खाली था। जल्दी से पंक्ति में शामिल होना चाहा तो वहां खड़े भक्तों ने पीछे जाने का इशारा किया। कुछ लोग मुझ पर हंस भी रहे थे। जैसे तैसे जगह मिली तो मैं भी एक पंक्ति में शामिल हो गया।  पहले राम जानकी मंदिर का पर्दा हटा फिर बजरंग बली के दर्शन हुए। दोनो तरफ एक साथ आरती शुरू हो चुकी थी। अद्भुत दृश्य था। भजन संगीत और आरती ने ऐसा समा बांधा कि वर्णन करना संभव ही नहीं। सिर्फ और सिर्फ महसूस किया जा सकता है। आरती समाप्त होते ही राम जानकी मंदिर और हनुमान मंदिर दोनो ओर से आरती लेकर पुजारी भक्तों के बीच वाले मार्ग से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। एक ओर से बायीं कतार में खड़े भक्तों को तो दूसरी ओर से दायीं कतार में खड़े भक्तों को आरती दिखाते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। राम जानकी मंदिर के पुजारी जब हनुमान मंदिर तक तथा हनुमान मंदिर के पुजारी राम मंदिर तक पहुँचे तो पंक्ति बदलकर दूसरी पंक्ति को आरती दिखाने लगे। इस प्रकार दोनो पंक्तियों में खड़े श्रद्धालुओं तक दोनो मंदिरों की आरती मिल गई। इसी तरीके से चरणामृत और प्रसाद भी वितरित हुआ। 15 मिनट के भीतर सभी भक्तों को आरती, चरणामृत और प्रसाद वितरित कर दिया गया। प्रसाद पा कर भींड़ इधर उधर तितर बितर हो गई। कोई मंदिर की परिक्रमा करने लगा तो कोई सुंदर कांड का पाठ करने लगा। कहना मुश्किल था कि भक्तों की भक्ति ने भगवान को हाजिर होने के लिए बाध्य किया था या भगवान की उपस्थिति ने भक्तों को हाजिर किया था। भक्त और भगवान का यह प्रेम अलौकिक था। मैं तो मात्र दर्शक बन कर अवाक खड़ा देखता रह गया !

दर्शन के बाद जब होश आया तो देखा तिवारी जी सुंदर काण्ड का पाठ करने में मगन थे। मैने लढ्ढू खरीदा और भगवान को चढ़ाकर प्रसाद खाने लगा। संकटमोचन के लढ्ढू मुझे बचपन से ही प्रिय हैं। लढ्ढू खा कर कुएँ का पानी पीते ही मन तृप्त हो जाता है। कोई पूछे आनंद आया तो एक बनारसी तुरत कहेगा...तबियत प्रसन्न हो गयल। भजन, दर्शन, आरती, प्रसाद लेने और कुएँ का पानी पीने के बाद धरती में शायद ही कोई ऐसा भक्त हो जो पूर्ण तृप्त न हो पाये। बस मन में भगवान के प्रति थोड़ी सी श्रद्धा होनी चाहिये। इस मंदिर की एक और बड़ी विशेषता है कि यहां आकर आप सिर्फ प्राप्त ही करते हैं। गवांने की कोई संभावना नहीं रहती। बजरंग बली की ऐसी कृपा है कि ठग, बेइमान इसके आस पास भी नहीं फटकते। दर्शन, प्रसाद, फूल-माला, जूता चप्पल रखने आदि किसी भी कर्म में आपके साथ ठगी नहीं हो सकती। यहाँ कि व्यवस्था सुंदर और आइने की तरह साफ है। किसी भी प्रकार के लूट की कोई संभावना नहीं है। यहाँ आपको सिर्फ पाना ही पाना है। कितना ? यह आपकी पात्रता पर निर्भर करता है। यहाँ आकर पुन्य मिलता है या नहीं यह मैं नहीं जानता लेकिन इतना दावा जरूर कर सकता हूँ कि यहाँ आकर खूब आनंद आता है।
    
सुंदर काण्ड के पाठ के बाद तिवारी जी सीधे आये और आश्चर्य से पूछने लगे...आज तs तू आ ही गइला ! ई त कमाल हो गयल । मगर एक बात बतावा, इतनी जल्दी कैसे आ गइला....? अब मुझसे न रहा गया। मैने उनको हकीकत बताया तो जैसे उनकी परेशानी कम हुई। बोले...तबै कहत हई कि इतनी जल्दी कैसे आ गइला...! चला हम न सही आखिर बजरंग बली सही, तोहेँ अपनी ओरी खींचे लेहलन। हमने कहा ..नहीं तिवारी जी...यह आपका ही प्रेम था कि मैं आ गया। तिवारी जी बोले नाहीं...हमार होत तs तू कहिये आ गयल होता। सब बजरंग बली कs कृपा हौ। अब हम न कहब……..देखी, अगले मंगल के का करsला!

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18.9.11

भूकंप के झटके


बनारस में भी महसूस किये गये भूकंप के झटके। सच कहें तो हमने नहीं महसूस किये। हम तो गहरी नींद में सो रहे थे। एक गोष्ठी से लौटे थे जिसका विषय था... अखंडता, सांप्रदायिकता और लक्षित हिंसा विधेयक । नाम कुछ और क्लिष्ट था लेकिन मूल में यही तीनों भयंकर शब्द थे। भरपूर मगज़ मारी के बाद दोपहर तीन बजे के करीब जब गोष्ठी खत्म हुई तो भोजन मिला। भोजन शुद्ध देशी था... दाल-बाटी, लिट्टी-चोखा और चावल की मीठी खीर । हचक के लिट्टी, हचक के चोखा और चौचक खीर पीने के बाद मस्त पान घुलाकर लौटे थे। घर आये तो इधर ब्लॉग खुला उधर गहरी नींद आ गई। शाम को साढ़े छ बजे के आस पास श्रीमती जी ने झकझोर के उठाया...सुन रहे हैं..भुकंप आ गया...उठिये मेरी आँखें खुली की खुली रह गईँ। बाबा के नगर में भूकंप !! हो ही नहीं सकता, सोने दो। वो फिर चीखीं...मेरे सामने टी0वी0 हिली थी..मैने देखा है..उठिए। उठकर बाहर झांका तो लोग बरामदे में खड़े हो अपने रिश्तेदारों को फोनियाते नज़र आये। तब तक अपनी भी मोबाइल बजने लगी। टी0वी0 खोला तो बात साफ हो गई। रियेक्टर पैमाने ( पता नहीं ई कौन पैमाना होता है, कभी स्कूल में तो पढ़े नहीं थे ) इसकी तीव्रता 6.8 आंकी गई। केन्द्र बिंदु...सिक्किम।

आप बताइये क्या हाल है आपके शहर में...? दिवालें कुछ चिटकीं की नहीं...? कलकत्ते वाले ढेर मजा लिये होंगे ई भूंकप की हिलाई का। हम तो...का बतायें ...जीवन में ले दे कर एक बार आया.. वो भी हम सो रहे थे। कितना कम फासला है न जीवन और मृत्यु के बीच...! काहे को हम झगड़ते हैं आपस में ? ई विधेयक ऊ विधेयक...कौन सा तीर मार लोगे नासपीटों....? अभ्भी एक्के रियेक्टर बड़ा होता तो अकल ठिकाने लग जाती।
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इस पोस्ट के लिए कमेंट का विकल्प अब बंद कर रहा हूँ। दरअसल भूकंप की घटना ने उत्तेजित कर दिया था। पटना, कलकत्ता, आसाम और नेपाल तक फैले अपने ब्लॉगर मित्रों का हाल चाल लेने व उनकी त्वरित प्रतिक्रिया जानने के लिए चैट की तरह इसका इस्तेमाल किया था। उद्देश्य पूरा हुआ। धन्यवाद।

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16.9.11

दिमाग तो सात तालों में बंद है.....!


स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय के लम्बे सफर के बाद
ज्ञान हुआ
मेरे पास भी दिमाग है
लेकिन जब भी काम लेना चाहता
धोखा देता
काम नहीं आता

काफी ठोकरें खाने के बाद
जान पाया कि
दिमाग तो
सात तालों में बंद है
और चाभियाँ
गुरूजी के पास हैं !

सबसे पहले स्कूल वाले गुरूजी को पकड़ा
गुरूजी !
आपने जो दिमाग दिया था
वह तो ताले में बंद हो गया है
काम नहीं करता
चाभी घुमाइये न गुरूजी

थक हार कर
गुरूजी बोले
इसमें तो धर्म का ताला लगा है
मैं नहीं खोल सकता !

भागा भागा
कॉलेज वाले गुरूजी के पास गया
उन्होने भी प्रयास किया
हार कर बोले
इसमें तो
जाति का भी ताला लगा है
मैं नहीं खोल सकता !!

विश्वविद्यालय पहुँचा
गुरूजी बोले
इसमें धर्म जाति का ही नहीं
काम क्रोध लोभ मोह
कई प्रकार के ताले लगे हैं
और तो और
भ्रष्ट आचरण की जंग ने
सभी को
मजबूती से जकड़ रखा है
इन्हें तो मैं भी नहीं खोल सकता !!!

तो मैं क्या करूँ गुरूजी ?
क्या मान लूँ कि
यह जीवन व्यर्थ ही बीत गया ?

गुरू जी हंसकर बोले
नहीं नहीं....
तुम्हारा दिमाग काम नहीं कर रहा इसलिए समझ नहीं रहे
तुम्हारी तरह बहुत से लोग ऐसे हैं
जो अपनी जेब नहीं तलाशते
और मेरे पास आते हैं
दिमाग पर ताले
किसी और ने नहीं तुम्हीं ने लगाये हैं
इसलिए इनकी चाभियाँ भी
तुम्हारे ही पास हैं

देखो !
अहंकार के तले कहीं दबा होगा
मिल जायेगा।

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14.9.11

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मार्निंग वॉक




चाँद
अभी डूबा नहीं
हल्का पियरा गया है
सूर्य
अभी निकला नहीं
चमक की धमक है
जारी है
घने वृक्षों की ऊँची-ऊँची फुनगियों से निकल
इत-उत भागते
पंछियों का कलरव

पवन
शीतल नहीं है
फिजाओं में गर्मी है, उमस है

मधुबन से आगे
स्वतंत्रता भवन से आगे
वीटी तक के सफर में
दिखते हैं कई चेहरे
रोगी भी
डाक्टर भी
विद्यार्थी भी
मास्टर भी
कर्मचारी भी
अधिकारी भी

सभी हैं मार्निंग वॉक पर
लेकिन सबकी चाल में फर्क है
उनकी तेज है
जिनके जिस्म हलके हैं
उनकी धीमी
जो भारी हैं

पंछियों की प्यास से बेखबर
कलरव से खुश हैं
सभी
 .
चीख रहे हैं
बड़े पंछी
चहक रहे हैं
छोटे

मौन, गंभीर हैं
घने वृक्ष
हंसते दिखते हैं
पीपल

ऐसा लगता है 
जानते हैं सभी
भारी होकर जीने से अच्छा है
हलके होकर रहना

हलके होने में
चलते रहने
चहकते रहने
हंसते रहने की
अधिक संभावना है।

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11.9.11

जीने की कला


वह
एक पंथ
दो काज करता है
कल के लिए
आज मरता है

डरते-डरते हँसता
हँसते-हँसते रोता है
पाने की कोशिश में
खुद को भी खोता है

मार्निंग वॉक के समय
तोड़ लाता है
सार्वजनिक उद्यान से
पूजा के लिए फूल

अखबार पढ़ते-पढ़ते
पी लेता है चाय

नहाते वक्त
गा लेता है गीत

पूजा के समय
दे देता है
पूरे घर को उपदेश

खाते-खाते
देख लेता है टी0वी0

मोटर साइकिल चलाते-चलाते
कर लेता है
जरूरी काम की बातें

दफ्तर में काम करते-करते
कर लेता है
क्रिकेट, राजनीति, मौसम या फिर
देश के हालात पर चर्चा

कम्प्युटर में
सुनता है म्युजिक
करता है चैट
देखता है ब्लॉग
और....
थककर सोते समय़
कर लेता है
रिश्तों की चिंता

सभी कहते हैं
वह बहुत 'स्मार्ट' है !
क्या जीने का
यही 'आर्ट' है ?

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3.9.11

स्कूल चलें हम


यह व्यंग्य तब लिखा गया था जब दूरदर्शन में एक विज्ञापन आता था...स्कूल चलें हम। लिखकर भूल चुका था। दिसम्बर 2009 में रचनाकार द्वारा एक व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया तो मैने इसे यूँ ही भेज दिया। मेरी खूशी का ठिकाना न रहा जब इस व्यंग्य को प्रतियोगिता में दूसरा स्थान मिला। दो हजार रूपये का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। सोचा था कभी ब्लॉग में प्रकाशित करूंगा लेकिन भूलता चला गया। इधर शिक्षक दिवस के अवसर पर ब्लॉग में प्रकाशित करने के लिए सामग्री तलाश रहा था तो अचानक से इस व्यंग्य की याद आई। मजे की बात यह है कि इसे मैने जिस पन्ने पर लिखा था उसे भी फेक चुका था। रचनाकार में कब प्रकाशित हुआ था इसे भी भूल चुका था। बड़ी मशक्कत से ढूँढ निकाला तो कट पेस्ट नहीं कर पा रहा था। मुझे इस बात की खुशी है कि काफी मेहनत से सही इसे यहां प्रकाशित कर पाया। प्रस्तुत है व्यंग्य ...


स्कूल चलें हम


चिड़ा, बार-बार चिड़िया की पीठ पर कूदता, बार-बार फिसल कर गिर जाता।

"चिड़-पिड़, चिड़-पिड़, चिड़-पिड़, चिड़-पिड़" ….चिड़ा चिड़चिड़ाया।

"चूँ चूँ- चूँ चूँ, चूँ चूँ-चूँ चूँ"……चिड़िया कुनमुनाई।

"क्या बात है ? आज तुम्हारा मन कहीं और गुम है ? किसी खेल में तुम्हारा मन नहीं लगरहा ?" चिड़े ने चिड़िया को डांट पिलाई।

"हाँ बात ही कुछ ऐसी है कि आज सुबह से मेरा मन परेशान है। देखो, मध्यान्ह होने को आया अभी तक मैने दाल का एक दाना भी मुंह में नहीं डाला‍‍"….. चिड़िया झल्लाई।

"बात क्या है ?"

"बात यह है कि आज सुबह-सुबह मैं रेडियो स्टेशन के पीछे बने एक दो पाए के घर में भूल से घुस गई थी। अरे, वहीऽऽ जहाँ युकेलिप्टस के लम्बे-लम्बे वृक्ष हुआ करते थे, याद आया ?

हाँ-हाँ याद है। तो क्या हुआ?

वहीं मैने देखा कि कमरे के एक कोने में एक बड़ा सा डिब्बा रखा हुआ था उसमें तरह-तरह के चित्र आ जा रहे थे गाना बजाना चल रहा था।

"हाँ-हाँ, दो पाए उसे टी०वी० कहते हैं चिड़ा हंसने लगा। इत्ती सी बात पर तुम इतनी परेशान हो !"

"नहींऽऽ बात कुछ और है। तुम जिसे टी०वी० कह रही हो उसमें एक बुढ्ढा दो पाया धीरे-धीरे चलकर आया, सब उसे देखकर खड़े हो गये और फिर वह सबसे हमारी बात कहने लगा।"


क्या ?


कह रहा था- बच्चे तैयार हैं। सुबह हो चुकी है। चिड़ियाँ अपने घोंसलों से निकल चुकी हैं। हम भी तैयार हैं। स्कूल चलें हम। इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आया। यह स्कूल क्या होता है ? जैसे हम घोंसलों से निकलते हैं वैसे ही ये दो पायों के बच्चे घरों से निकलकर स्कूल जाने को तैयार हैं। हम तो कभीस्कूल नहीं गये। क्या तुम गये हो ?

चिड़-पिड़, चिड़-पिड़, चिड़-पिड़, चिड़-पिड़….चिड़ा खिलखिलाने लगा। तुम भी न, महामूर्ख हो। वे इन दो पायों के राजा हैं।


जैसे गिद्धराज !---- चिड़िया ने फटी आँखों से पूछा ?

हाँ। फिर समझाने लगा - ये दो पाये जीवन भर अपने बच्चों को अपनी छाती से लगाए रखते हैं। उन्हें खिलाते-पिलाते ही नहीं बल्कि अपने ही रंग में ढाल देतेहैं। इन्होंने अपने-अपने धर्म बना रखे हैं। प्रत्येक धर्म को मानने वाले भी कई भागों में बंटे हुए हैं। बाहर से देखने मे सब एक जैसे दिखते हैं मगर भीतर से अलग-अलग विचारों के होते हैं। जैसे हमारे यहाँ बाज और कबूतर को देखकर तुरंत पहचाना जा सकता है मगर इनको देखकर नहीं पहचाना जा सकता कि कौन हिंसक है कौन साधू।---चिड़े ने अपना ज्ञान बघारा।

हाँ हाँ, मैने बगुले को देखा है। एकदम शांत भाव से तालाब के किनारे बैठा रहता है और फिर अचानक 'गडुप' से एक मछली चोंच में दबा लेता है। वैसा ही क्या ! चिड़िया ने कुछ-कुछ समझते हुए कहा।

हाँ-हाँ, ठीक वैसा ही। तो ये लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं-ताकि वहाँ जाकर एक दूसरे को जानने-पहचानने की कला सीख सकें, ताकि कोई उन्हें बाज की तरह झपट्टा मारकर खा न जाय।

अच्छा तो यह बात है। चलो हम भी स्कूल चलकर देखते हैं कि वहाँ क्या होता है।

ठीक है चलो। आखिर अपने देश के राजा की इच्छा का सम्मान करना हम चिड़िया प्रजाति का भी तो कुछ धर्म बनता है।

(चिड़पिड़ाते-चहचहाते दोनो एक सरकारी प्राइमरी पाठशाला में जाकर एक वृक्ष की डाल पर बैठ जाते हैं।)

अरे, यह क्या ! यहाँ तो बहुत कम बच्चेहैं --चिड़ा बोला।

जो हैं वे भी कैसे खेल रहे हैं !----चिड़िया बोली।

लगता है यहाँ एक भी मास्टर नहीं है। अरे, वह देखो, वहाँ एक कुर्सी पर बैठकर कौन अखबार पढ़ रहा है ?

वे यहाँ के हेडमास्टर साहब लगते हैं।

तुम्हें कैसे मालूम ?

मैं जानता हूँ। जो हेड होते हैंवे मास्टर नहीं होते। मास्टर होते तो पढ़ाते नहीं ?

शायद तुम ठीक कहते हो। चलो हम कमरे में घुसकर देखते हैं -चिड़िया बोली।

चलो।

अरे, यहाँ तो ढेर सारे कबूतर हैं ! देखो-देखो प्रत्येक बेंच पर इन कबूतरों ने कितना बीट कर छोड़ा है ! पूरा कमरा गंदगी से भरा पड़ा है। दीवारों के प्लास्टर भी उखड़ चुके हैं।

हाँ हाँ, क्यों न यहीं घोंसला बना लें ?

हाँ, प्रस्ताव तो अच्छा है। स्कूल से अच्छा स्थान कौन हो सकता है एक पंछी को घोंसला बनाने के लिए ! तभी तो सीधे-सादे कबूतर यहाँ आकर रहते हैं।

चलो दूसरे कमरों में भी घूम लें।

अरे, यह कमरा तो और भी अच्छा है ! इसमें तो एक दीवार ही नहीं है !!

(तब तक बच्चों का झुण्ड चीखते-चिल्लाते, कूदते-फांदते, धूल उड़ाते कमरे में प्रवेश कर जाता है। मास्साब आ गए..... मास्साब आ गए.....।)

डर के मारे दोनों पंछी टूटे दीवार से उड़कर भाग जाते हैं और पुनः उसी स्थान पर जा कर बैठ जाते हैं जहाँ पहले बैठे थे। थोड़े समय बाद क्या देखते हैं कि मास्टर साहब कमरे से बाहर निकल रहे हैं। बाहर निकल कर एक लोटा पानी पीते हैं और बेंच पर बैठकर अपने एक हाथ के अंगूठे से दूसरे हाथ की हथेली को देर तक रगड़ते हैं। जोर-जोर से ताली पीटते हैं फिर रगड़ते हैं फिर ताली पीटते हैं। कुछ देर पश्चात अपने निचले ओंठ को खींचकर चोंच बनाते हैं कुछ रखते हैं और दोनो पैर फैलाकर सो जाते हैं। कमरे के भीतर से दो पायों के बच्चों के जोर-जोर से चीखने की आवाज आती रहती है।

बिचारे बच्चे ! चिड़िया को दया आ गई। इस आदमी ने बच्चों को जबरदस्ती कमरे में बिठा रखा है। देखो न, बच्चे कितने चीख-चिल्ला रहे हैं। क्या इसी को पढ़ाई कहते हैं ? क्या इन दो पायों के राजा को मालूम है कि स्कूल में क्या होता है ? क्या इसलिए सुबह-सबेरे सबसे कहता है कि हम भी तैयार हैं स्कूल चलें हम ! इनका राजा कहाँ है ? वह तो कहीं दिखाई नहीं देता !-- बहुत देर बाद चिड़िया ने मौन तोड़ा।

राजा, राजा होता है। ताकतवर और ज्ञानी होता है। उसको स्कूल जाने की क्या जरूरत ? -चिड़ा बोला।

छिः। स्कूल तो बहुत गंदी जगंह होती है। यहाँ तो सिर्फ यातना दी जाती है।

नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। चिड़े ने समझाया-"यह गरीबों का स्कूल है। यहाँ मुफ्त शिक्षा दी जाती है। जो चीज मुफ्त में मिलती है वह अच्छी नहीं होती। टी०वी० में ऐसी बातें करके राजा जनता की सहानुभूति बटोरना चाहता है।"

अच्छा ! तो और भी स्कूल है ? यह गरीबों का स्कूल है तो अमीरों का स्कूल कैसा होता है ?----चिड़िया ने पूछा।

चलो चलकर देखते हैं। चलो।

(दोनों पंछी उड़कर एक अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में पहुंच जाते हैं जहाँ की दीवारें रंगी-पुती हैं, बड़ा सा मैदान है, सुंदर सी फुलवारी है और बड़े से लोहे के गेट के बाहर मूछों वाला चौकिदार बंदूक लिए पहरा दे रहा है।)

यह तो बहुत सुंदर जगह है !

मगर तुमने देखा ? उस दो पाये के हाथ में बंदूक है। वह हमें मार भी सकता है ! -- चिड़िया एक आम्र वृक्ष की पत्तियों में खुद को छुपाते हुए डरते-डरते बोली।

नहीं-नहींss । डरने की कोई जरूरत नहीं है। यह चौकिदार है। दो पायों को हमसे नहीं अपने ही लोगों से ज्यादा खतरा है ! यह अमीरोंका स्कूल है। उनके बच्चे गरीबों की तरह सस्ते नहीं होते। यह उन्हीं की सुरक्षा केलिए है।

अच्छा ! मगर यहाँ तो एक बच्चा भी खेलते हुए नहीं दिखता। बच्चे कहाँ हैं ?

अभी तो तुमने स्कूल की बाहरी दीवार ही पार की है। बच्चों को देखने के लिए कमरों में घुसना होगा जहाँ एक दूसरा चौकिदार बैठा है।

चलो यहाँ से भाग चलें। यह जगह तो बड़ी भयानक है।

नहीं, जब आए हैं तो पूरा स्कूल देखकर ही चलेंगे, डरो मत।

चलो, उस दीवार के ऊपर की तरफ जो गोल सुराख दिखलाई पड़ रही है, वहीं से प्रवेश कर जाते हैं।

मुझे तो बड़ा डर लग रहा है--चिड़िया हिचकिचाई।

डरो मत। मेरे पीछे-पीछे आओ। इतना कहकर चिड़ा फुर्र से उड़कर रोशनदान में प्रवेश करता है। चिड़िया भी पीछे-पीछे रोशनदान में घुस जाती है। वहाँ से दोनो कमरों में देखने लगते हैं। नीचे कक्षा चल रही है मैडम पढ़ा रहीं हैं।

वाह ! क्या दृश्य है। देखो, सभी बच्चे एक जैसे साफ-सुथरे कपड़े पहने सुंदर-सुंदर कुर्सियों पर बैठे हैं।

इनके टेबल भी कितने सुंदर हैं !

दीवारें कितनी सुंदर हैं। जमीन कितनी साफ है।

वह देखो, हवा वाली मशीन ! यह अपने आप घूम रही है !!

वह देखो, रोशनी वाली डंडियाँ ! कितना प्रकाश है !!

अरे, वह देखो, वह मादा दोपाया एक कुर्सी में बैठकर जाने किस भाषा में बोल रही है ! उसके पीछे की दीवार में काले रंग की लम्बी चौड़ी पट्टी लगी है। लगता है यह मास्टरनी है !!

हाँ, कितनी सुंदर है !

(दोनों की चिड़-पिड़-चूँ-चूँ से बच्चों का ध्यान बटता है। बच्चे रोशनदान की ओर ऊपर देखने लगते हैं। शोर मचाने लगतेहैं।)

व्हाट ए नाइस बर्ड !

हाऊ स्वीट !

मैडम, चौकिदार को आवाज देती है और चौकिदार बंदूक लेकर आता है। बच्चों के शोर, मैडम की चीख, और चौकिदार की बंदूक देखकर दोनो पंछी मारे डर के भाग जाते हैं। कुछ देर तक हवा में उड़ते रहते हैं और एक तालाब के पास जाकर दम लेते हैं। चीड़िया ढेर सारा पानी पीती है देर तक हाँफती है और हाँफते-हाँफते चिड़े से कहती है----

"जान बची लाखों पाए। अब हमें कभी स्कूल नहीं जाना। ये दो पाये तो दो रंगे होते हैं ! जैसे इनको देखकर समझना मुश्किल है कि कौन बाज है कौन कबूतर वैसे ही इनके स्कलों को देख कर समझना मुश्किल है कि कौन अच्छा है और कौन बुरा ! वह मास्टरनी क्या गिट-पिट गिट-पिट कर रही थी ?"

चिड़ा चिड़िया की बदहवासी देखकर देर तक खिलखिलाता रहा फिर बोला, "मेरी चिड़िया, ये दो पाये दो रंगे नहीं, रंग-बिरंगे होते हैं। जैसे इनके घर जैसे इनके कपड़े, जैसा इनका जीवन स्तर वैसे ही इनके स्कूल। जिसे तुम 'गिट-पिट गिट-पिट' कह रही हो, वह श्वेत पंछियों की भाषा है। तुमने देखा होगा कि जब जाड़ा बहुत बढ़ जाता है तो वे पंछी उड़कर यहाँ आ जाते हैं। बहुत दिनों तक यह देश भी उनके देश का गुलाम था। इन लोगों ने उनको भगा दिया मगर उनकी गुलामी करते-करते यहाँ के लोगों ने उनकी भाषा में बात करना उसी भाषा में अपने बच्चों को पढ़ाना अपनी शान समझने लगे। इन दो पायों में जो पैसे वाले होते हैं यावे जो पैसे वाले दिखना बनना चाहते हैं, अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलोंमें पढ़ाते हैं। यहाँ की शिक्षा बहुत मंहगी है। ये पैसे वाले हैं इसलिए इनके स्कूलभी अच्छे बने होते हैं। गावों में गरीब लोग रहते हैं, शहरों में अक्सर अमीर लोग रहतेहैं। हम भी गावों रहते हैं इसलिए गांव की भाषा ही जानते हैं। जैसे हम पंछियों की कई भाषाएँ होती हैं, वैसे ही इन दो पायों की भी कई भाषाएँ होती हैं।ये मात्र देखने में एक जैसे लगते हैं, भाषा के मामले में भी रंग-बिरंगे होते हैं। मेरी प्यारी चिड़िया अब मैं तुमको कितना समझाऊँ ? तुम तो एक ही दिन में दो पायों को पूरा समझ लेना चाहती हो जबकि गिद्धराज कहते हैं कि ये दो पाये बड़े अद्भुत प्राणी हैं। भगवान भी इन्हें पैदा करने के बाद इन्हें समझना नहीं चाहता !

"शायद तुम ठीक कहतेहो"--चिड़िया बोली, "हमें इनके धोखे में नहीं फंसना चाहिए। देखो शाम हो चुकी है, बच्चे स्कूलों से घरों की ओर लौट रहे हैं, हम भी तैयार हैं, घर चलें हम।

चिड़ा चिड़िया की बोली सुनकर भय खाता है कि एक दिन में ही इसकी बोली बदल गई। हड़बड़ा कर इतना ही कहता है - "चलो चलें, घर चलें हम।"

चिड़-पिड़, चूँ-चूँ ..चिड़-पिड़, चूँ-चूँ ....करते, चहचहाते, दोनों पंछी अपने घोंसले में दुबक जाते हैं और देखते ही देखते शर्म से लाल हुआ सूरज अंधेरे के आगोश में गुम हो जाता है।