अच्छा खासा रविवार था। अच्छा इसलिए कि छुट्टी थी और खासा इसलिए कि मुझे कोई खास काम नहीं था। फरवरी की उतरती ठंड थी, नहाया था और स्वच्छ वस्त्र धारण किये, गुनगुनी धूप में बैठकर सरसों के फूल.. नहीं, तेल में तला आलू-चना खा रहा था।
बदरी कभी बताकर नहीं छाती। काली घटा कभी भी घिर कर आ सकती है। मैं प्रसन्न था तभी एक हादसा हो गया! मुक्त छंद वाले एक कवि मित्र, उन्मुक्त भाव से छत पर चढ़े चले आ रहे थे। उन्हें देखते ही मैं हकबकाहट में आलू-चने के बीच श्रीमती जी द्वारा प्यार से समर्पित हरा मिर्चा पूरा खड़ा चबा गया। इधर मैं तीते से सी-सी कर रहा था उधर मेरे कवि मित्र तेजी से सीढ़ी चढ़ने के कारण हाँफ रहे थे। दोनो की सांसें तेज-तेज चल रही थीं। मुझे देखते ही बोल पड़े..मिर्ची लगी क्या ? फिर नमस्कार के बाद बिला सकुचाए कबूतर की तरह गुटरियाने लगे, "हें.. हें.. हें.. लगता है धूप में बैठकर कुछ खा रहे हैं! क्या खा रहे हैं? हमने आज एक नई कविता लिखी है। सुनिये, सुना रहे हैं।" उन्होने मुझे कुछ कहने का अवसर नहीं दिया। मैने दुखी मन से पानी पीया और उन्हें देर तक मिर्च जलित, अश्रुपूरित निगाहों से अवाक हो देखता रहा।
यह लोगों की आदत होती है कि आपको जो करते देखते हैं वही पूछ बैठते हैं। आप सुबह चाय की दुकान में बैठकर अखबार पढ़ना शुरू किये नहीं कि कोई धप्प से आपकी खोपड़ी पर सवार हो प्रश्न का हथौड़ा जमा देगा, "अखबार पढ़ रहे हैं?" आप बीबी से झगड़ कर चाय पीने नहीं आये हैं तो ठीक वरना क्रोध में कह सकते हैं, "नहीं, पढ़ नहीं रहे हैं, इसको अपना चेहरा दिखा रहे हैं! पढ़ तो अखबार हमको रहा है।"
बहरहाल जोश से भरे कवि जी को रोकने की गरज से मैने कहा, "रूकिये! पानी-वानी पी लीजिए, थोड़ा आराम कर लीजिए, इत्ती जल्दी क्या है? वे बोले, "नहीं, नहीं... ठीक है। हम घर से अभी खा पी कर चले हैं। फारमेल्टी की कोई जरूरत नहीं है, आप बस हमारी कविता सुन लीजिए और बताइये कैसी है? आपको तो पता ही चल गया होगा कि अफ़जल गुरू को फाँसी दे दी गई! उसी पर लिखा है। मेरे कुछ कहने से पहले ही वे शुरू हो गये...
अच्छा किया कसाब को फाँसी चढ़ा दिया
अच्छा किया अफ़जल को फाँसी चढ़ा दिया
बलात्कार किया जिन पापियों ने बस में
सबको अब चुन-चुन के फाँसी पे चढ़ा दो।
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मैं यही सब सुन-सुन कर पहले से ही बहुत पका हुआ था। खीझकर सच बोल दिया..."कविता सुना रहे हैं या सड़क पर खड़े होकर चुनावी नारा लगा रहे हैं!" इत्ता सुनना था कि कवि जी सकपका गये। आश्चर्य से बोले, "यह तो आलोचना है!" मुझे भी शब्द भ्रम हो गया। मैने समझा, वे जान गये कि मैं आलू-चना खा रहा हूँ! बोला, "हाँ, आलू-चना है। बढ़िया है।"
बहुतों की यही कमजोरी होती है। कटु आलोचना के बीच भी एकाध शब्द को अपनी प्रशंसा मान फूले नहीं समाते। वे मेरे अंतिम शब्द को सुनकर थोड़े खुश हुए फिर अचानक से अकबका गये..
बढि़या है तो आलोचना कैसे है? तारीफ हुई!!! हें हें हें.. आप मजाक अच्छा कर लेते हैं।
मैने कहा, "मजाक नहीं कर रहा यार! यह वाकई आलू-चना है। मैं आपकी कविता की आलोचना की नहीं अपने आलू-चना की बात कर रहा हूँ। आपकी कविता बेकार है, खाकर देखिये यह बहुत बढ़िया है।"
वे अब बात पूरी तरह समझ चुके थे। गुस्से से उठे और जैसे चढ़े थे वैसे ही बड़ाबड़ाते हुए उतर गये- "पढ़े-लिखे लोगों का यह हाल है तो अनपढ़ों से क्या उम्मीद की जाय! कविता की समझ अब किसी में नहीं रह गई है। इस देश को अब भगवान ही बचा सकता है।"
मैं ठगा सा उनको जाते हुए देखता रहा। मैने महसूस किया कि मुझसे गलती हो गई। उनकी कविता नहीं सुनी, नहीं सुनी लेकिन बेवकूफी से अपना भी तो एक अच्छा पाठक गवा दिया! :) अच्छा खासे रविवार पर शनी की कृपा कुछ ऐसे भी होती है।
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