29.7.13

कदंब के फूल



घर की बाउंड्री के बाहर
लगे हैं
कदंब के वृक्ष

जब लगे थे
बहुत छोटे थे
अब बड़े हो चुके हैं
बच्चे
और बड़े हो चुके हैं
वृक्ष,
छत से भी
कई हाथ ऊँचे!

खिलते हैं
तो सुंदर दिखते हैं
फूल
हँसते हैं
तो सुंदर दिखते हैं
बच्चे

झरते हैं
कदंब के फूल
तो न जाने क्यों
ऐसा लगता है
जैसे
झर रहा है
बच्चों का बचपन!
शेष बचेगा
फल
धीरे-धीरे
पकेगा
और झर जायेगा
टप्प से
एक दिन।


झरे हुए फूल
टपके हुए फल
जमा हो जाते हैं
छत पर
ध्यान न दो
तो बंद हो जाती है 
छत की नाली
ठहर जाता है
वर्षा का पानी
सिलने लगती हैं
दीवारें
धुलने लगती है
पेंटिग
पुस्तकों में
लग जाते हैं
दीमक।

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28.7.13

मूर्ख!


भेड़ो कें झुँड से
अलग कर दी गई बकरी
बकरियों के साथ
नहीं रह पाया भेड़
सियार बनने के प्रयास में
मारे गये कुत्ते
खरगोशों ने
दूर तक खदेड़ा
सफेद चूहों को
बिल्ली मारी गई
कुत्तों के चक्कर में।

शेर ने खाया
बस पेट भर
मौके का लाभ उठा
स्वाद के लिए
निरीह का खून पीते रहे
दूसरे जानवर।

जी नहीं पाया
सुकून से
जिसने स्वीकार नहीं किया
जंगल का कानून।

नहीं दिखते
बिच्छुओं से डंक खाते जाने
और...
माफ करते रहने वाले
साधू।

क्या आप फँसे हैं कभी
ऐसे जंगल में?
नहीं...!
ओह!
निःसंदेह आप
भाग्यशाली और
बुद्धिमान हैं।
.....................

27.7.13

धरो धीर...


दिन भर गर्मी थी
शाम को
बरसा पानी
एहसास हुआ
शीतलता का

धूप में
तप रहा था जिस्म
रौशनी से
चुंधिया रही थीं आँखें
मन निराश था
डूबा था कहीं
घने अंधेरे में।

अभी
हो रही है बारिश
बाहर अंधेरा है
भीतर
फैली हुई है
रौशनी।

सुन रहा हूँ
कह रही हैं
वर्षा की बूँदें
धरो धीर
बदलते हैं
प्रकृति के रंग।
....................

23.7.13

कइसे कही कि सावन आयल !


कत्तो बिजुरी नाहीं चमकल 
एक्को बुन्नी नाहीं बरसल

धरती धूप ताप धधायल
कइसे कही कि सावन आयल !

कउने डांड़े बदरा-बदरी
खेलत हउवन पकरा-पकरी ?

सूरूज से अंखिया चुंधियायल
कइसे कही कि सावन आयल !

पुरूब नीला, पच्छुम पीयर
नीम, अशोक, पीपरो पीयर

केहू ना जरको हरियायल
कइसे कही कि सावन आयल !

का भोले बाबा का कइला
बुन्नी के जटवा मा धइला ?

खोला ! बरसे दा ! हहरायल
कइसे कही कि सावन आयल!

भीड़ देख अझुरायल हउवा?
भाँग छान बहुरायल हउवा?

बुधिया जरल बीज से घायल
कइसे कही कि सावन आयल !
..................................

20.7.13

सांप और बांसुरी

इस ब्लॉग की कविताओं को फेसबुक में खूब साझा किया। कभी-कभी फेसबुक में स्टेटस लिखने का शौक भी दे देती हैं कविताएँ..। दो दिन पहले फेसबुक पर लिखी इस कविता को बहुत से मित्रों ने खूब पसंद किया तो सोचा चलो इसे ब्लॉग को समर्पित कर दें। 

सांप और बांसुरी

माँ कहती थीं..
'बारिश का मौसम है
सांप बहुत निकलते हैं
शाम के समय
बांसुरी मत बजाओ!'

मैं कहता था..
"सांप के 
कान नहीं होते।'

माँ कहती थीं..
'तुम ज्यादा जानते हो!
सांप के कान नहीं होते तो
कैसे नाचता
सपेरे की बीन पर
क्या वह
देख-देख कर मुड़ी हिलाता है?'

मैं कहता था..
'साँप के
आँख भी नहीं होते।'

माँ कहती थीं..
'मैने कह दिया ना
बस्स...
बांसुरी मत बजाओ!'
और मैं
रख देता था
ताखे पर
बांसुरी।

अब माँ नहीं हैं
बारिश का मौसम है
लेकिन मन भी
नहीं रह गया
चंदन-सा।

अब तो पढ़ता हूँ
आज
किसने
कितना जहर उगला!
............

16.7.13

बनारस की कजरी

'बनारस की कजरी' अब तो लुप्त प्रायः हो गई है। सुनने का सौभाग्य तो अधिक नहीं मिला लेकिन कभी-कभी पढ़ने को मिल जाता है। कहा भी जाता है...

दसमी रामनगर की भारी
कजरी मिर्जापुर सरनाम।

वर्षा की पहली झड़ी की अर्जुन के बाणों से तुलना, कुशल गीतकार की ही कल्पना हो सकती है.....

पुरूब देस से चढ़े बदरवा, पच्छुम बरसइ जाई।
पहिल बदरवा कसि के बरसइ, जस अरजुन के बान।।

शब्द चित्रण की दृष्टि से कजरी गीतों में वर्षा का जैसा सजीव चित्रण मिलता है, श्रेष्ठ काव्य में भी वैसा मिलना कठिन है। यह किसने लिखा पता नहीं लेकिन जिसने भी लिखा वह श्रेष्ठ गीतकार रहा होगा....

छाई बदरिया नभ मंडल में, अउर रसै रस बहै बयार।
बुन्न बुन्न में अमरित टपके, भर गये ताल तलंगर नार।।
रेवां बोलत बा पोखरिन में, अउ बनवां मंह नाचइ मोर।
पिहिक पपिहरा मोर अटा पर, रतिया दिनवा करै अलोर।।

प्रकृति के साज सिंगार करने के साथ-साथ हर्षोल्लास में स्त्रियाँ भी सोलहों श्रृंगार की कल्पना में डूब जाती हैं। ग्राम्या नायिका का नख शिख वर्णन अत्यन्त सहज एवं सटीक है...

अंखिया में सोहइ जानीकर हो कजरबा
मथवा में एंगुर का दगवा अरे हो सांवरिया,
अंगिया के सोहइ पंचरंग चोलिया
ऊपरां कुसुम रंग चोली, अरे हो सांवरिया।

ऐसी नायिका मनचलों की दृष्टि से कैसे बच सकती है?  विशेषतः जब सावन का मौसम सुहाना हो। नायिका को मनचला छेड़ ही देता है और संकेत से अपने घर चलने के लिए कहता है। नायिका भी कोई छुईमुई नहीं है, तुरन्त उत्तर देती है....

तोहरे से सुंदर मोर पिया बाय,
कि नाहीं बाबू कइलेनि गवनवां
                        अरे हो सांवरिया....

मेरा गौना नहीं हुआ है, परन्तु मेरे प्रियतम तुमसे कहीं ज्यादा सुंदर हैं। मनचले ने तुरन्त पूछा, जब तेरा गौना नहीं हुआ, तूने अपने प्रियतम को देखा ही नहीं, फिर तुझे कैसे पता चला कि तेरे प्रियतम मुझसे सुंदर हैं?”  वाक् पटु नायिका ने मनचले को अपनी दृढ़ता और वाकचातुर्य से से निरूत्तर कर दिया....

सेन्हुरा बहोरत कूं चिन्हली चुटिकिया,
मउरा छोरत लाली अंखियाँ,
                      अरे हो सांवरिया....

सिंदुर दान करते समय उनके हाथ दिखलाई पड़ गये और मौर उतारते समय रतनारे मदभरे नयन।

गीतों में ऐसे अनेक भावात्मक प्रसंग आते हैं जिन्हें सुनकर रसिक श्रोता आत्मविभोर हो जाते हैं।

रिमझिम संगीत के साथ सावन आया, तन मन शीतल हो गया। नायक के आगमन से नायिका का मन जुड़ा गया, पर विरहिणी की विरह ज्वाला और भी सुलग उठी।

जिस विरहिणी का तन-मन विरह में जल रहा हो, वह चाह कर भी पाती नहीं लिख पाती। उसके विरह की पीड़ा शब्दों की सामर्थ्य से परे है। विरह की पाती के लिए उपयुक्त स्याही भी नहीं है। विरहिणी अपनी ननद से आँचल के कागज पर नीर की स्याही से पाती लिख कर देवर से भिजवाने का मार्मिक प्रार्थना करती है-

काहे क बनवउं कगदवा हो ननदी, कहेंन कइ मसिहान।
केके भेजउं कपथवा हो ननदी, लिखि चिठिया भेजि दीह्या।।
आंचल फारि कगदवा हो भउजी, नयनन कइ मसिहान।
लछिमन देवरवा कपथवा हो ननदी, लिखि चिठिया भेजि देउ।।

एक विरहणी अपने बालम को आँसू से पाती भेजती है, तो दूसरी प्रियतम की पाती की आकुल प्रतीक्षा कर रही है-

आये रे सजनवां नाहीं आये मन भवनवाँ रामा,
जोहते दुखाली दूनो अखियां रे हरी।
केहू न मिलावे उलटे मोहे समझावे रामा
दुख नाहीं बूझे प्यारी सखिया रे हरी।
केहि बिधि जायों उड़ि पिया के पायों रामा
उड़लो न जाये बिन पंखिया रे हरी।

विरह की व्यथा से खीझी और बेकल नायिका का इससे अच्छा चित्रण और क्या हो सकता है?

लोकगीतकार भले महाकवि कालिदास की कोटि के विद्वान न रहे हों, परन्तु कजरी में मेघ द्वारा संदेश भेजने की हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति ने कुछ अंशों में कालिदास कृत मैघदूत को भी पीछे छोड़ दिया है-

नाहीं अइलें अदरा के बदरा,
चलि गइलैं कतहू विदेसवां,
सुनु बहिनी हमार पुरवइया,
बदरा से कह तू सनेसवा,
देसवा क कटते कलेसवा,
झूलैं के देबइ तोहे बांसे क कइनियां।
सोवइ बदे ताले कै लहरिया,
चलि गइले कतहुं विदेसवां।
खाये बदे देबे तोहइ मकई क बलिया,
अचवे के भुंअरी क दुधवा,
चलि गइले कतहू विदेसवा।

भूमि पर रहनेवाली नायिका का आकाश के मेघ से क्या संबंध ? पता नहीं मेघ कब किधर मुड़ जायें, अथवा हवा दूसरी दिशा में उड़ा ले जाये और संदेश पहुँच ही न सके। अतः उक्त द्वयर्थक गीत में एक ओर कृषक का पुरवइया से समृद्धि की वर्षा करनेवाले आर्दा नक्षत्र के मेघ को आगमन संदेश देने का आग्रह है, तो दूसरी ओर आनंद, शीतलता देने वाले बालम के प्रतीक मेघ से संदेश देने का आग्रह करती हुई नायिका पुरवइया हवा से कहती है,बहिन जाकर उनसे कहना, शीघ्र आकर मेरी व्यथा दूर करें। मैं तुम्हें झूलने के लिए बांस की पतली कैनी, सोने के लिए ताल की लहरें, खाने के लिए मक्के की बालें तथा पीने के लिए भूरी भैंस का दूध दूँगी।

पिया को आना कहाँ है! वह तो परदेश में कहीं फँस गया है। वर्षा से धरती तो जुड़ा गयी, पर विरहिणी अपने आँसू की बाढ़ में ही डूबने लगती है-

अदरा से बदरवा, बदरवा से पानी,
पायी के पिआर भुंई भइली गुमानी
फुटि फुटि निकलई, सनेहिया क अंखुआ
रोइ-रोइ रोवैला बदरवा अंकसुआ।

रोइ-रोइ रोवैला का काव्य सौन्दर्य एवं ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति अनेक पंक्तियों में भी संभव नहीं है।

काव्यात्मक चमत्कार एवं गुणों की दृष्टि से कजरी गीत अद्वितीय हैं। बिहारी ने जा तन की झाई परै, स्याम हरित दुति होय। कहकर राधाकृष्ण युगल का हृदयग्राही वर्णन किया था। कजरी में मेघ और दामिनी को राधाकृष्ण के संदर्भ में लोक गीतकार ने नये अंदाज में पेश किया है।

गोरि-गोरि बिजुली, बदरवा बा करिया,
करिया मरदवा क, गोरकी मेहरिया।
गोरकी मेहरिया बदरा के रंग
मांगि जनमे कन्हइया,
देहलें बा रधया के रंगवा बिजुरिया।

काले मेघ और गोरी बिजली को देखकर प्रतीत होता है कि साँवले पुरूष को गोरी स्त्री मिल गयी है...इन्हीं काले बादलों से रंग माँग कर कृष्ण ने जन्म लिया और राधा को दामिनी ने अपना गौर वर्ण दिया।
.......................................
...यह पोस्ट सुरेशव्रत राय( धर्मयुग, 29 जुलाई, 1973 ई.) के आलेख बनारस की कजरी का कुछ अंश जिसे सोच विचार पत्रिका, काशी अंक-चार में प्रकाशित किया गया है, से साभार।

आदरणीय गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी ने इस पोस्ट को पढ़कर बहुत अच्छा लिंक दिया...

सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान। इस श्रृंखला में इनकी तीनो पोस्ट आनंद दायक हैं। यदि आप लोकगीतों में रूची रखते हों तो ये तीनो पोस्ट जरूर पढ़ें, आनंद आयेगा। लिंक यह रहा...

सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान..1

सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान..2 

सावन के लोकगीतों में जीवन के रंग.3

11.7.13

वर्षा का पानी

बढ़ता ही जा रहा है
अंधेरा
कसता ही जा रहा है
खामोश बादलों का
घेरा
सुनाई दे रही है
बीच-बीच में
संघर्ष की गुर्राहट  
सूरज
चौकीदारी छोड़
कहीं दूर
धुंधियाया,
लापता है।

हवाओं ने
अचानक से बदला है
रंग
झरने लगी हैं
वृक्षों की शाख से
सूखी पत्तियाँ
लगता है
बारिश होने वाली है
शाम
झमाझम होगी।

मगर हमेशा की तरह
सशंकित हैं
मेढक-झिंगुर
मिलेगा भरपूर
वर्षा का पानी!

चारों तरफ हैं
सांपो के बिल
अभी से
लपलपा रहे हैं
जीभ
बरगदी वृक्ष।
………


1.7.13

बारिश-2

बारिश के सिवा
सोचने को
कुछ नहीं रहा।
अब होश में
बारिश का मज़ा
कुछ नहीं रहा।

होने को हो रही है बहुत
धूमधाम से
कभी सुबह से
तो कभी
देर शाम से

अभी जरा-सी तेज हुई,
बहक-सा गया
अभी रूकी,
कीचड़ के सिवा
कुछ नहीं रहा।

सोचता हूँ
अंड-बंड
हो रहा हूँ
खंड-खंड
बादलों
से बहुत
झंड हो गया।
अभी प्यासा,
अभी
उत्तराखंड
हो गया।

पढ़ रहा
लाशों के सिवा
कुछ नहीं बचा
अब वहाँ
गाँव-घर
कुछ नहीं बचा।

सुनते हैं बहुत
फिक्र थी
सरकार को मगर
इस फिक्र पर
हमको यकीं
कुछ नहीं रहा।

अब होश में
बारिश का मज़ा
कुछ नहीं रहा।
..........

अंड-बंड बनारसी शब्द है। मतलब...उल्टा सीथा, गलत-सलत, अनाप-शनाप।