30.8.16

शाम जब बारिश हुई....

शाम जब बारिश हुई
झम झमा झम - झम झमा झम -झम झमा झम - झम।
मैं न भीगा - मैं न भीगा - मैं न भीगा
ओढ़ कर छतरी चला था
मैं न भीगा।
भीगीं सड़कें, भीगीं गलियाँ, पेंड़-पौधे, सबके घर आंगन
और वह भी, था नहीं, जिसका जरा भी, भीगने का मन
मैं न भीगा - मैं न भीगा - मैं न भीगा
ओढ़ कर छतरी चला था
मैं न भीगा।
चाहता था भीग जाऊँ------
झर रही हर बूँद की स्वर लहरियों में डूब जाऊँ----
टरटराऊँ
फुदक उछलूँ
खेत की नव-क्यारियों में
कुहुक-कुहकूँ बन के कोयल
आम की नव-डालियों में
झूम कर नाचूँ कि जैसे नाचते हैं मोर वन में
दौड़ जाऊँ
तोड़ लाऊँ
एक बादल
औ. निचोड़ूँ सर पे अपने
भीग जाऊँ
डूब जाऊँ---
हाय लेकिन मैं न भीगा।
ओढ़कर छतरी चला था
मोह में मैं पड़ा था
मुझसे मेरा मैं बड़ा था
मैं न भीगा - मैं न भीगा - मैं न भीगा।
सोचता ही रह गया
देखता ही रह गया
फेंकनी थी छतरिया
ओढ़ता ही रह गया
शाम जब बारिश हुई
प्रेम की बारिश हुई
मैं न भीगा - मैं न भीगा - मैं न भीगा
एक समुंदर बह रहा था
एक कतरा पी न पाया
उम्र लम्बी चाहता था
एक लम्हा जी न पाया
चाहता था युगों से
प्रेम की बरसात हो
भीग जाऊँ-डूब जाऊँ
और प्रीतम साथ हों
हाय लेकिन मैं न भीगा।
ओढ़कर छतरी चला था
मोह में मैं पड़ा था
मुझसे मेरा मैं बड़ा था
मैं न भीगा - मैं न भीगा - मैं न भीगा।
सोचता ही रह गया
देखता ही रह गया
फेंकनी थी छतरिया
ओढ़ता ही रह गया
शाम जब बारिश हुई
प्रेम की बारिश हुई
झम झमा झम - झम झमा झम - झम झमा झम - झम।
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http://kavita.hindyugm.com/2008/07/blog-post_6702.html वो भी क्या जमाना था जब हिन्द युग्म में अपनी कवितायेँ भेजते थे.

लोहे का घर-18

फिर बेतलवा डाल पर, फिर बेचैन #ट्रेन पर। किससे क्या प्रश्न करूँ! किसको क्या उत्तर दूँ? कोई नहीं है आज जो मुझे सुने या सुनाये। सभी अजनबी हैं। सबसे पहले जिस डाल पर बैठा, बोल बम की भीड़ थी। उनके हाव-भाव, बातचीत में सब दुनियादारी थी। नहीं थी तो बस एक भक्ति नहीं थी। मन किया पूछूँ-क्यों समय व्यर्थ करते हो? क्या मिलेगा तुम्हें? फिर सोचा, छोड़ो! इनके मौज में खलल होगा। जल्दी ही मन उचट गया और दूसरी डाल, मेरा मतलब बोगी ढूँढने लगा।
यहाँ सुकून है। पूरी बर्थ खाली है। लोग लेटे हुए हैं अपनी-अपनी बर्थ पर। बस एक आदमी लेटा-लेटा, फोन पर जोर-जोर से बतिया रहा है। उसे लग रहा है कि जोर से बोलेंगे तभी अगला सुनेगा। बात करता-करता पूरा हाल बताये जा रहा है। बात खतम होने के बाद अजनबी की तरह लेट गया। अपनी पूरी कलई खोलने के बाद 'अजनबी से सावधान" वाला मंत्र किस काम का?
सावन में झूला झुला रही है ट्रेन, पटरियों पर झूम कर चल रही है ट्रेन। मन करता है, इसी से पूछूँ - तू चलते-चलते बोर क्यों नहीं होती ? क्या दूसरों की सेवा करने से इतनी ताकत मिलती है!
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बिछी-बिछाई पटरी पर चलती है और इतना रंग जमाती है! कभी पटरी छोड़ कर चलने का मन नहीं करता ? प्रश्न का सही-सही उत्तर दे, वरना मैं तो चला।
तू जायेगा तब जब मैं पटरी छोड़ दूँगी। चुपचाप बैठा रह। एक दूसरे के सहारे ही चलती है जीवन की गाड़ी। बेपटरी चलने की मत सोच। अपनी राह खुद बनाने वाले सदा बेचैन रहते हैं। नई राह मिल भी गई तो क्या फायदा? तुम्हें भी जाना तो वहीँ है न! जहाँ सब जाते हैं?
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आफिस से छूटने के बाद लोहे के घर में लेट कर ठंडी हवा का स्पर्श सुख ही कुछ और है। यह बात वे क्या जाने जो खूँटा छुडा़कर नाद में मुँह घुसेड़ने सीधे घर पहुँच जाते हैं। मनसुख लाल को न यहाँ सुख न वहाँ सुख, खाली मन में सुख। अपन तो फुल इंज्वाय करते हैं लोहे के घर में।
जलाल गंज का पुल पुराना है लेकिन मजबूत है। रोज थरथराता तो है मगर कभी धोखा नहीं देता। #ट्रेन भले इतराती हो- कांप गया मेरे आने से! इसे जरा भी फर्क नहीं पड़ता। आज भी यही हुआ। ट्रेन ने कांपना समझा, पुल ने हाथ उठा कर दुआ किया-जा! तेरी यात्रा मंगलमय हो, सुखी रह।
संजय जी और अशोक जी तार का एक-एक सिरा अपने कान में घुसेड़कर दो सहेलियों की तरह मोबाइल में भोजपुरी फिल्म देख रहे हैं-राजा बाबू। कभी ये ठहाका लगाते हैं, कभी वे। विनय भाई अपने मोबाइल में कुछ देख रहे हैं। एक आदमी और था। उसे मैने अपनी कविता सुनाई तो वह खतरा भांप कर चला गया। मुझे पूरी बर्थ मिल गई लेटने के लिए। कौन कहता है कविता कुछ नहीं देती! ट्रेन में पूरी बर्थ दे सकती है। लोहे के घर का आनंद वे क्या जाने जो.....
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सुखी रहे संसार, दुखी रहे न कोय...सिया वर रामचंद्र जी की जै। भोले के भक्त जौनपुर-भंडारी स्टेशन के मंदिर में इधर यह भजन समाप्त करते हैं उधर बलिया से चलकर हारन बजाती आती है गोदिया। सोचता हूँ कभी 10 मिनट पहले आती तो सुन लेती भजन यह भी। फिर सोचता हूँ ...उसको भजन गा कर दुआ मांगने की क्या जरूरत, जिसका कर्म ही दूसरों की सेवा करना है! 
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लोहे के घर में सुफेद चादर बिछाये-ओढ़े, श्वान निद्रा में सोये लोगों को देखने का सौभाग्य कम ही मिलता है। मोबाइल में कुछ देखते, पढ़ते या सुनते-सुनते अचानक से उठकर फोन मे बातें करने लगते हैं। दूर से खर्राटे भरनेे की आवाजें भी आ रही हैं। लोहे का घर खटर-पटर करता पटरियाँ बदलता भागा चला जा रहा है। कुल मिलाकर बड़ा तिलस्मी माहौल है।
एक ही ट्रेन में कितने घर, कितने रंग जिंदगी के! जनरल मे खड़े-खड़े, आपस में सटे-सटे, लड़ते-झगड़ते चल रहे होंगे। स्लीपर में न कोई चादर, न कोई तकिया पंखे न चलने की शिकायत करते आपस बतिया रहे होंगे। यहाँ ए.सी. में सब कुछ है मगर आपस में कितने कटे-कटे रह रहे हैं लोग! अपने साथ पूरा भारत लिए चलती है #ट्रेन !

लोहे के ए.सी. खिड़की से देख रहा हूँ पानी भरे धान और भुट्टे के खेत। चर रही बकरियों के साथ मेढ़ पर बैठा एक लड़का। धान और रेलवे ट्रैक के किनारे उगे गाजर घास के हिलते पौधों को देख अनुमान लगा रहा हूँ कि बाहर तेज हवा चल रही है। ऊपर आकाश में दक्षिण दिशा से आ रहे हैं काले बादल। देखना है कि उनके बरसने से पहले आगे निकल जाती है ट्रेन या नहायेगी इंजन के साथ झूमकर!
बक्सर आने वाला है। सामने से एक ट्रेन तेजी से निकल गई। कोई शोर नहीं। शायद ए.सी कमरों का यही मजा है। न बाहर की चीख सुनाई पड़ती है, न भीतर का आनंद ही बाहर जा पाता है। #ट्रेन चल दी। जमीन गीली है मतलब बारिश हो रही है। खिड़की के बंद शीशे पर दौड़ने लगीं बूँदें। मैं इन्हें भीतर बुलाकर अपने गालों पर नहीं बिठा सकता। कुछ कमरे ऐसे होते हैं जिनकी खिड़कियाँ नहीं खुलतीं।
गुजरी है करमनासा नदी। कहते हैं यहाँ नहाने से सभी करम नास हो जाते हैं। अपने कर्मो के सत होने का कितना गुमान है लोगों में! पता नहीं सत्य क्या है! यहाँ से उत्तर प्रदेश की सीमा शुरू होती है। ट्रेन, इंजन के साथ बारिश मे भीग रही है। शायद इसे भीगने में अधिक मजा आने लगा। भीगते-भीगते रूक कर भीगने लगी। कोई स्टेशन नहीं दिखता। निछद्दम में रूक कर बारिश का मजा ले रही है। मुझे कोई जल्दी नहीं, मन मर्जी रूक। प्रभु की कृपा है..आनंद ले।
चाय वाला आया है। बोल रहा है-पी लो, राम प्यारी चाय! मैंने पूछा-इसे पीने के कितने दिनों बाद मैं 'राम प्यारा' हो जाऊँगा? मेरा प्रश्न सुन हँसने लगा...हे,हे,हे,हे..राम प्यारे थोड़ी न होंगे, सौ साल जीयेंगे साहेब! मैं बोला-तब लाओ, जल्दी पिलाओ। मैने अपनी बुढ़िया को सदा सुहागन रहने का आशीर्वाद दिया है।
इधर मैने चाय खतम किया, उधर ट्रेन चल दी। बारिश भी थम चुकी है। शीशे पर चिपकी हुई हैं वर्षा की बूँदें। इन बूँदों के उस पार, झिलमिला रहे हैं, पानी में डूबे, धान के खेत।
फिर शीशे पर दौड़ने लगीं बूँदें। फिर होने लगी बरसात। अच्छी फसल होगी धान की इस बार। खेतों के ऊपर उड़ रहे हैं पंछी। इन्हें दाने कहाँ मिलते होंगे इस समय! फलों और कीड़े-मकोड़ों पर करते होंगे गुजारा।
गहमर निकल गया, अब आयेगा अपना पड़ाव-मुगल सराय। पूरी होने को है 18 घंटे की लम्बी यात्रा। जाते समय बिटिया साथ थी, आते समय ये नजारे साथ हैं। बिटिया रूक गई अपने घर। चली भी अपने घर से थी, पहुँची भी अपने घर। समझा रहा है लोहे का घर- मत हो बेचैन! बेटों के केवल एक, बेटियों के होते दो-दो घर।




29.8.16

जन्माष्टमी

हे कृष्ण!

इस बार भी
जिन्हे जन्माष्टमी का मजा लेना था
खूब लिया
झांकी सजाई तुम्हारी
गाई रासलीला भी
जिन्हे बाढ़-बारिश में परेशान होना था
खूब हुए
बच्चा भी जन्मा
नदी पार करते
नाव में
करते रहे क्रंदन
बचा लो अब हमे ईश्वर!

कंस
दिखाई नहीं दिया
मगर
सुनाई देता रहा
अट्टाहास

एक होता तो
दिखाई देता शायद
सभी के
अपने-अपने कृष्ण
सभी के
अपने-अपने कंस।

7.8.16

सुदामा के कृष्ण

हे कृष्ण!
आज भी हैं कालिया नाग
आज भी दरिद्र हैं
सुदामा पाण्डे
महुअर का मंत्र फूँक
कुछ नई लीला कर।
मैं भुने चने लेकर चढ़ जाऊँ डाल पर?
तू आयेगा भूखा-प्यासा?
पूछेगा?
क्या खा रहे हो यार!
आ!
मैं झूठ नहीं बोलुँगा
खा लेना
जितना जी चाहे।
न जाने कब से
डूबी हुई है
बच्चों की गेंद
एक नहीं,
अनेक हैं कालिया नाग
हवा में तैरती
उफनाई नदी में
आ कृष्ण आ!
चावल के दाने के दिन गये
मित्रता संकट में है
बहने भी
घबड़ाई हुई हैं।
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