8.12.17

लोहे का घर-32

लघुशंका जाने से पहले पत्नी को जगा कर गये हैं वृद्ध। पत्नी की नींद टूटी। पहले बैग की तरफ निगाह थी, अब करवट बदल ऊपर के बर्थ की ओर मुंह कर सीधे लेटी हैं। नींद में दिखती हैं पर नींद में नहीं हैं। चौकन्नी हैं। सोच रही होंगी.. "सामने बैठा अधेड़ बड़ा स्मार्ट बन मोबाइल चला रहा है, दिखने में तो शरीफ दिखता है मगर क्या ठिकाना! ट्रेन में किसी पर विश्वास करना ठीक नहीं। जमाना खराब है।"

ऊपर साइड अपर बर्थ पर दो लड़कियां एक दूसरे की तरफ पैर कर लेट गई हैं। अभी कुछ देर पहले चिड़ियों की तरह चहक रही थीं। एक लड़की मुझे ही देख रही है। मैंने दो बार गरदन ऊपर करी, दोनों ही बार मुझे ही देख रही थी। दूसरी बार तो हल्की सी मुस्कान भी थी उसके चेहरे पर! पता नहीं मुझे लिखता देख यह क्या सोच रही है! लड़कियों के मन की बात समझना आसान है क्या?

बुजुर्ग आ गए। वृद्धा अब चैन से सो रही हैं। ट्रेन को रुका देख पूछ रही हैं...कोई स्टेशन है क्या? पता नहीं आम आदमी को यह विश्वास कब होगा कि ट्रेनें स्टेशन पर ही रुका करती हैं!

छोटे छोटे स्टेशन पर दौड़ते हुए चढ़ते हैं लोकल वेंडर। इस रूट में हरा मटर खूब बिकता है। खासियत यह है कि पूरे वर्ष हरा ही रहता है। बल्टा भर मटर लेकर जब कोई छोकरा बगल से 'हरा मटर' चीखते हुए गुजरता है तो नाक में मसालों की एक तीखी गंध घुस जाती है। साफ हवा आने और सांस लेने में कुछ देर लगता है। चाय बोलिए चाय, खाना बोलिए खाना..कोई दिन में चैन से सो नहीं सकता लोहे के घर में। शायद यही कारण है कि ट्रेन में चोरियां कम होती हैं।

एक हिजड़ा ताली पीटते, पैसे मांगते हुए निकला है बगल से। खूबसूरत साड़ी पहने है और बढ़िया मेकअप में सुन्दरी दिख रहा है। अपने ग्रुप से बिछुड़े हुए कबूतर की तरह फड़फड़ाते हुए निकल गया। ज्यादा देर किसी बर्थ के आगे नहीं रुका। थपड़ी बजाई, हाथ फैलाए और आगे बढ़ गया। जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला टाइप।

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भीड़ है लोहे के घर में। दून के अलावा आज कोई दूसरी ट्रेन नहीं आई। रोज के सभी यात्री कुम्भ मेले में बिछुड़़े भाइयों की तरह बड़े प्रेम से भंडारी टेसन में एक दूसरे से हाय हैलो कर रहे थे, चढ़ते ही टूट कर गिरे पारे की तरह ओने-कोने बिखर कर दुबक गए। कोई सामान की तरह ऊपर टंगा है, कोई कहीं अड़स कर बैठा है और कोई मायूसी से टुकुर-टुकुर ताकते हुए खड़ा है।

बगल में साइड लोअर बर्थ पर तीन लोग बैठे हैं। दो लोग मूंगफली खा रहे हैं और छिलके जमीन पर बिखेरते हुए देश की चिंता कर रहे हैं। दोनो के बीच बैठे एक बुजुर्ग घड़ी देख रहे हैं और रेलवे को कोस रहे हैं..'तीन बजे इसे बनारस पहुंच जाना था, अभी तक यहीं है। कोई काम ठीक से नहीं हो रहा है!' मूंगफली के छिलके जमीन पर बिखेरने वाले भी हां से हां मिला रहे हैं।

मैंने कहा..आप लोगों को भी छिलके यूं नहीं बिखेरने चाहिए थे। नहीं? वे मेरी बात से सहमत होते हुए पहले की तरह फर्श गंदा करते रहे और लेट होने के लिए व्यवस्था को कोसते रहे। यह अच्छा रहा कि उन्होंने मेरी बातों को सुना अनसुना कर दिया। पलटकर झगड़ा नहीं किया। कह सकता था..रेलवे क्या तुम्हारे बाप की है? मैं भी एक बार उपदेश दे कर चुप हो गया। 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे।' दूसरे ठीक से काम करें लेकिन हम नहीं सुधरेंगे। इनके उतरने के बाद दूसरे यात्री चढ़ेंगे और वे गंदगी के लिए रेलवे को कोसेंगे!

मेरे सामने चार यात्री बैठे हैं। दो पुरुष, दो महिलाएं। महिलाएं एक दोना हरा मटर खरीद कर एक ही चम्मच से बारी-बारी खा रहे हैं। पुरुषों में परस्पर इतना प्रेम दुर्लभ है। दांत काटी यारी हो तो अलग बात है। बगल में एक बंगाली प्रौढ़ जोड़ा है। दोनों गुमसुम बैठे हैं और अजीब नजरों से इधर उधर देख रहे हैं।

भांति भांति के वेंडर चढ़ते हैं लोहे के घर में। हरी ताजी मटर, गरम चाय से लेकर खाना पानी तक। अभी एक पुस्तक बेचने वाला दस रुपए में जनरल नॉलेज बेच रहा था। अभी एक नकली मोतियों, रुद्राक्ष की माला बेचने वाला काशी के नाम पर माला बेच रहा है।

जलालपुर में एक ग्रामीण जोड़ा चढ़ा। मूंगफली के छिलके बिखेरने वाले बैठे रहे, बुजुर्ग को उठना पड़ा। सामने वाले बर्थ पर उनको एडजस्ट किया गया। अब नए पुराने सहयात्री एक ही घर के निवासी हो गए। सभी अब अच्छी अच्छी बातें करते हुए देश की चिंता में लीन हो गए। ट्रेन के सफर में देश की चिंता करना बड़ा सुरक्षित है। पल्ले का कुछ नहीं जाना, समय भी नहीं।

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आजाद वीजा 

कल शाम लोहे के घर में एक गिरमिटिया मिला। गांधी जी के समय दक्षिण अफ्रीका जाने वाला नहीं, इक्कीसवीं सदी में सउदी अरब जाने वाला। उसकी बातों से पता चला कि वह चार साल वहां रहकर आया है। मुझे उससे बात करने का मन किया।

तब तो खूब नोट कमाए होगे?
हां हां, क्यों नहीं! वहीं के पैसे से घर बनाए, बिटिया की शादी करी और भी एक दो काम किया जो यहां रहते तो जिंदगी भर नहीं कर पाते।
कहां के रहने वाले हो?
वर्धमान, पश्चिम बंगाल।
जब इत्ती कमाई थी तो लौट क्यों आए?
अब कितना मेहनत करते? उमर भी हो गई।
तुम तो अभी ४०से अधिक के नहीं लगते?
हां.. वहां का काम बहुत मेहनत वाला है।
क्या करते थे?
कुछ भी। कोई काम करने में संकोच नहीं किया। झाड़ू भी लगाया, मजदूरी भी करी। वो टेंट टाइप घर नहीं होता? हां, वहां रेत ही रेत है। एक घर बनाने का 200 रियाल मिलता था।
#रियाल! एक रियाल कित्ते का होता है?
18 रुपए का।
मतलब एक घर बनाते थे तो ३६०० पा जाते थे!
हां।
और कित्ता समय लगता था एक घर बनाने में?
२-३ घंटे।
अरे वाह! तब तो बहुत कमाई होती थीं!!
हां।
अब ई बताओ, गए कैसे? वीजा बनाए थे?
आजाद वीजा!
यह क्या होता है?
इसमें कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। जो मर्जी काम करो। एक ने कम पैसा दिया तो दूसरे के पास चले जाओ।
कैसे बनवाए आजाद वीजा?
एक दलाल से!
कित्ता लिया?
एक लाख तीस हजार। बहुत अच्छा दलाल है। आपके पास पैसे कुछ कम हो न! वो कहता है..कमा कर लौटा देना।
तब तो बहुत अच्छा है! आप भाग्यशाली लगते हैं मगर किसी को धोखा भी देता होगा।
नहीं, किसी को नहीं। मैंने अपने भाई और बेटे को भी भेजा है वहां।

उसकी बातें सुनकर मैं गहरे सोच में डूब गया। गिरिराज किशोर और  पहला गिरमिटिया  याद आए। आजादी से पहले कैसे धन कमाने के चक्कर में अनुबन्ध के तहत भारतीय दक्षिण अफ्रीका जाते थे और वहां जा कर गुलामों से बदतर जिंदगी जीते थे। वह तो भला हो मोहन दास का जिन्होंने वहां जा कर उनके लिए लंबी लड़ाई लड़ी और उन्हें एहसास दिलाया कि उन्हें भी सम्मान के साथ जीने का हक है। वे सिर्फ गोरों के काले गुलाम नहीं हैं। इसका मतलब इक्कीसवीं सदी के गिरमिटिया विदेशों में आजाद वीजा लेकर मौज करते हैं।

मैंने उससे फिर पूछा..
किसी अनुबन्ध के तहत जाते होंगे? मन मर्जी कैसे काम कर सकते हैं?
वैसे भी जाते हैं। किसी कम्पनी के कर्मचारी बन कर। उसमे फिर उसी के यहां काम करना होता है। काम छोड़ा तो पुलिस पकड़ लेती है।
अरे!
हां। अपना तो आजाद वीजा था !

अब मुझे नहीं पता बन्दा कित्ता सच बोल रहा था, कित्ता हांक रहा था लेकिन उसके चहरे से ग़ज़ब का आत्मविश्वास झलक रहा था।

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