हम कंकरीट के तपे जंगल में रहने वाले शहरी जैसे पहली बारिश देख उछल पड़ते हैं वैसी खुशी नहीं दिख रही गांवों में। खेत कटे हैं, अभी जुताई हुई नहीं है, ग्रामीण शायद तौल रहे हैं बादलों का वज़न। जानते हैं कल फिर निकलेगी चिलचिलाती धूप। ये वो बादल नहीं हैं जिनसे तपी धरती की प्यास बुझ सके। कहीं कहीं खेतों में चिड़ियों के चोंच भर जो पानी लगा है इससे तो काम बनने वाला नहीं।
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आज मौसम गर्म है। शाम के ६ बजा चाहते हैं और धूप अपने शबाब पर है। तपा हुआ है लोहे का घर। मेरे पास दो नन्हीं बच्चियों वाला एक जोड़ा बैठा है। इंदौर से पटना जा रहे हैं। पटना में घर है। घर में शादी पड़ी है। युवक इंदौर में किसी दवा कम्पनी में काम करता है। युवती बच्चे संभालती है। गरीब मध्यम वर्गीय परिवार है। इंदौर के काम से तो लड़का खुश है लेकिन आने जाने से हलकान। एक बड़ा सा नया पैकेट कीन कर ले जा रहा है। शायद शादी का गिफ्ट है। दोनों बच्चियां घुटनों के बल बैठ, एक एक खिड़की की रॉड पकड़ कर बाहर हर पल बदलने वाले दृश्यों को देखने में मगन हैं। छोटकी कभी ठुनकते हुए मां की गोदी में समा जाती है, कभी फिर खिड़की के बाहर झांकने लगती है।
बाहर का संसार बच्चियों के लिए नया है। ये देख रही हैं हरे वृक्ष, सूखे खेत, चौपाए, क्रिकेट खेलते बच्चे, नदी, नाले, पुल और अनवरत साथ साथ चलने वाली पटरियां। जितना ज्ञान इन्हें पूरे साल स्कूल की किताबों में पढ़कर नहीं मिला होगा उतना ये एक रेल यात्रा से सीख पा रही होंगी। पूछती हैं पापा से.. ऊ का है? पापा गोदी में ले समझाते हैं.. ताड़ का पेड़ है।
साइड लोअर में दो लड़के, आधे बैठे, आधे लेटे, मोबाइल में डूबे हैं। ऊपर के बर्थ पर भी लोग हैं। ट्रेन को जौनपुर से बनारस के बीच कहीं नहीं रुकना चाहिए मगर यह हर स्टेशन और स्टेशन से पहले आउटर पर भी पैसिंजर की तरह रुक रुक कर चल रही है। हर स्टेशन पर मालगाड़ियां दिखती हैं। रुके स्टशन पर, बाहर निकल कर यात्री भर रहे हैं बोतल में पानी। प्लेटफॉर्म से पानी पाना हर आम आदमी के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। पैसे वाले पन्द्रह रुपए का मिनरल वाटर बीस में खरीद कर भी प्रसन्न हैं। इतनी गर्मी में मिल रहा है, यही क्या कम है!
ट्रेन रुकी नहीं रहती। रुक रही है, रुक कर चल भी रही है। गाड़ी का पटरी पर चलना सुकून देता है। पटरी पर खड़ी हो तो बेचैनी बढ़ जाती है। पटरी से उतर जाए तो आदमी पागल हो जाता है। अभी पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी। बिक रहे हैं मैंगो शेक, बिक रहा है ठंडा पानी और बिक रहा है गरम चाय भी।
सूरज ढल चुका है, ताप बरकरार है। जैसे सख्त अधिकारी के दफ्तर से उठ जाने के बाद भी पूरे दफ्तर पर बनी हो उसकी हनक। होते-होते कम होगा ताप। चुगते-उड़ते घुस जाएंगे पंछी अपने-अपने घोसलों में। निकलते-निकलते निकलेगा चांद। यूं ही चलते-चलते पहुंच ही जाएंगे लोहे के घर के सभी यात्री अपने-अपने घर।
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आज मौसम ठंडा है। सुबह नींद खुली तो कालोनी में जमे पानी को देख एहसास हुआ कि कल रात बारिश हुई थी। लोहे के घर में रोज के यात्री पंछियों की तरह चहक रहे हैं। कुछ अखबार पढ़ रहे हैं, कुछ बातों में मस्त हैं। वाराणसी से सुबह सात बजे चलकर सुल्तानपुर तक जाने वाली
#sjv पैसिंजर बनारस से लगभग ठीक समय पर छूटी है।
आकाश में अभी भी टंगे हैं पानी वाले बादल। निकल चुके हैं मिलिट्री छावनी के बबूल के जंगल, शिवपुर स्टेशन और कंकरीट के जंगल वाले कीचड़ भरे रास्ते।
#ट्रेन अब ग्रामीण इलाके से गुजर रही ह
ै। इधर भी हुई है बारिश। गीली है खेतों की मिट्टी। फावड़े और खुरपियां लेकर निकल चुके हैं किसान खेतों में। धूप भींगी बिल्ली बन बादलों के पीछे कहीं दुबकी पड़ी है।
बाबतपुर में देर से रुकी थी ट्रेन। एक हवाई जहाज लैंड किया फिर चल दी। यात्रियों में से किसी ने हवा में ट्वीट किया..आज हवाई जहाज से क्रासिंग थी!
एक पानी से बदल चुकी है खेतों की रंगत। सूखी/बंजर धरती हरी भरी लग रही है। सुंदर सुंदर मेढ़ बना रहे हैं किसान। उखड़ चुके है सूरजमुखी के पौधे। छोटे से वर्गाकार टुकड़े में रोपे जा चुके हैं धान के बीज। कहीं कहीं हो चुकी है खेतों की जुताई। मिट्टी के बड़े बड़े ढेले बिखरे पड़े हैं आयताकार टुकड़ों में। इनके बच्चे भले वर्ग और आयत के सवालों पर कक्षा में डांट सुने, ये अनपढ़ किसान वर्गाकार, आयताकार, सम और समानांतर टुकड़ों वाले खेत कितने कलाकारी से तैयार कर लेते हैं!
कहीं महिलाएं धान के बीज वाले टुकड़े के किनारे अगल बगल सट कर बैठी, काम कम बातें अधिक करती दिख रहीं हैं, कहीं चल रहे हैं खेतों में फावड़े। पहली बारिश ने जैसे जान फूंक दिया हो भगवान भरोसे जीवन यापन करने वाले प्राणियों के जीवन में! किशोरों/युवाओं की टीम भी खेतों के इर्द गिर्द मंडरा रही है। पंछी चहकने लगे हैं, नए जोश से पंख फैलाए उड़ रहे हैं बकुले और टर्राने लगे हैं दादुर भी।
सामने वाली पटरी से एक मालगाड़ी अप से डाउन की ओर पटरी खड़खड़ाते हुए गुजरी है। आतंकित हो हवा में उड़ने लगे खेतों में चैन से चुग रहे सभी पंछी। एक लंबी सीटी मार कर फिर पटरी पर चलने लगी है अपनी पैसिंजर।
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मौसम परिवर्तन का समय है। गर्मी जा रही है, बरखा रानी आ रही है। प्राकृतिक सत्ता के इस स्थानांतरण में खूब जोर आजमाइश होती है। कभी बादल धूप को रूई का फाहा बनाकर अपने काख में दबाए उड़ने लगता है, कभी धूप बादलों को चीर, चिन्नी-चिन्नी फाड़ कर अपनी सत्ता फिर स्थापित कर लेती है। यह ताकत का खेल है। भारतीय लोकतंत्र में भी कभी कभी सत्ता हस्तानांतरण में यह खेल देखने को मिल जाता है।
गर्मी जाते-जाते बड़े बवाल काटती है। वर्षा सत्ता में काबिज होने के लिए खूब बल प्रयोग करती है। कभी आंधी, कभी ओलावृष्टि और कभी जोरदार बिजली कड़कती है। इस युद्ध में निर्दोष प्राणी नाहक मारे जाते हैं। प्रकृति का हो या मनुष्यों का, सत्ता हस्तांतरण का यह खेल आम जन के लिए बड़ी त्रासदी लेकर आता है।