दून में आज ग़ज़ब की भीड़ है। इसके चार घंटे पहले और दो घंटे बाद तक दूसरी बनारस जाने वाली कोई ट्रेन नहीं है। दिन में आने वाली दून, शाम छः बजे के बाद जफराबाद स्टेशन पर आई है। अपने को बैठने के लिए दरवाजे के पास वाली खिड़की मिल गई है। रोज का चलन भले खराब हो, अभी इसकी चाल मस्त है।
जफराबाद एक महत्वपूर्ण लेकिन उपेक्षित प्लेटफॉर्म है। यहां से पांचों दिशाओं में ट्रेने आती/जाती हैं। यहां से अयोध्या, छपरा, सुल्तानपुर, इलाहाबाद और बनारस जाया जा सकता है। यहां से जौनपुर कचहरी मात्र ४-५ किमी की दूरी पर है। इतना महत्वपूर्ण स्टेशन होने के बाद भी कस्बाई स्टेशन होने के कारण उपेक्षित है। जौनपुर से यहां आने वाली सड़क की हालत बड़ी जर्जर है। गिने न जा सकने वाले गढ्ढे हैं। गढ्ढे इतने गहरे और बड़े नहीं हैं कि ऑटो इसमें चल ही न सकें मगर इतने जरूर हैं कि अगर ऑटो वाला संभाल कर न चलाए तो गाड़ी उलट सकती है।
चार प्लेटफॉर्म वाले इस स्टेशन पर दोनों तरफ छोटी छोटी गुमटियों वाली कई दुकाने हैं। जिसमें चाय, पान, पकौड़े, बाटी और चाट बिकते हैं। एकाध पक्की दुकान भी है जिसमें खोए की बर्फी, बेसन के लडडू और दूसरी रोजमर्रा के जरूरतों की चीजें मिलती हैं। सभी दुकानें स्थानीय गांव वालों की हैं। इन दुकानों का चलना रोज आने जाने वाले यात्रियों पर अधिक निर्भर करता है। ट्रेन लेट हो गई तो रोज के भूखे यात्री ताजा छन रही पकौड़ियों, आलू बड़े और ब्रेड पकौड़ों पर टूट पड़ते हैं। कभी कभी तो दुकानदार का सामान चुक जाता है और उसे कहना पड़ता है.. ख़तम हो गयल साहेब!
आज भी जाफराबाद स्टेशन पर वैसी ही भीड़ थी। आने जाने वाली गाड़ियों का तांता लगा था और बनारस जाने वाली दून टेढ़ घंटे से अगले स्टेशन भंडारी पर अपनी बारी की प्रतीक्षा में रुकी पड़ी थी। पकौड़ी और बड़े उड़ाने के बाद हम प्लेटफॉर्म पर खड़े ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी आदिवासी जैसे दिखाई पड़ने वाले बिहारियों की भीड़ दिखाई पड़ी। सभी के पास दो दो, चार चार सीमेंट वाले बोरे भरे पड़े थे। हमने पूछा..
इसमें क्या है? आप लोग कहां से आ रहे हो और कहां जा रहे हो?
वे बोले.. इसमें ककरी है साहेब! भुट्टे के खेतों में पाया जाता है। इसको यहां आप लोग नहीं खाते। हम लोगों को मुफ्त में मिल जाती है। खाली बीनने में मेहनत लगता है। इसका बीज नहीं खाते। बीज निकाल कर फेंक देते हैं। इधर इसे पेहटा भी बोलते हैं।
क्या करते हो इनका?
खाते हैं। अपने घर ले जा कर काटेंगे और धूप में सुखा देंगे। फिर यह पूरे साल खाने के काम आता है। इसको तेल में तलकर पापड़ की तरह खा सकते हैं और सब्जी भी बना सकते हैं।
कैसे जाओगे?
पैसेंजर मिलेगी साहेब। अभी बनारस जाएंगे फिर भोर में पैसेंजर मिल जाएगी.. आसनसोल!
सिर्फ यही बीनने यहां आए थे या कोई और काम था?
इसीलिए साल में एक बार आते साहेब! और कोई दूसरा काम नहीं।
मैंने देखा इनके पास इन बोरों के सिवा कोई दूसरा सामान न था। इनमें पुरुष भी थे और महिलाएं भी। हां, बच्चे नहीं दिखे। ये सिर्फ इधर मुफ्त मिलने वाली ककरी के लिए इतनी दूर से चलकर आए थे। भारतीय रेल न होती, सस्ते भाड़े वाली पैसेंजर ट्रेनें न होतीं तो शायद उनका यहां आना और इस तरह बोरों में भरकर खाद्य पदार्थ जुटाना संभव न था। वाकई पैसेंजर ट्रेनें इन मेहनतकश गरीबों के लिए जीवन रेखा का काम करती हैं।
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