18.6.24

कोरोना काल (2)

एकाकी जीवन 

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एकाकी जीवन की शुरुआत जुलाई 2020 से हुई। जौनपुर में अलग कमरा लेकर रहने लगा। बिस्तर तो मेरे पास था ही, कमरे में चौकी, पंखा पहले से था। 2-4 दिन रिस्क लेकर होटल में खाना खाया फिर धीरे-धीरे किचन के लिए सब आवश्यक सामान खरीद लिया। गैस सिलेंडर एक सहयोगी कर्मचारी ने उपलब्ध करा दिया। खाना पकाने का थोड़ा बहुत अनुभव तो पहले से था, जब फंसता तो फेसबुक में पोस्ट डाल देता जैसे...भुजिया/सब्जी बनाते समय करेला छिलना चाहिए कि नहीं? कोरोना काल में मित्र मानो खाली ही बैठे होते, कमेंट से कई सलाह दे देते। 

एक दिन सुबह चाय बनाने के लिए एक दिन पहले शाम का रखा एक पाव दूध उबाला तो फट गया! बहुत देर तक फटे दूध को उबलते देखता रहा फिर उसमें थोड़ा गुड़ झोंक दिया। चम्मच से तब तक हिलाता रहा जब तक लाल पेड़ा नहीं बन गया। रात की दो बासी रोटियाँ के साथ गुड़ पनीर को लपेट कर खा गया। मान लेता, यह मोदी जी की सलाह पर आफत को अवसर में बदलना हुआ।

एक कमरा, एक किचन, एक बरामदा, लैट्रिन, बाथरूम और थोड़ी खाली जगह बस इतनी ही जगह थी। शाम को छत में घूम सकते थे। मेरे कमरे में बहुत शांति रहती थी। इतनी शांति साधारण मनुष्यों के लिए दुर्लभ थी। ध्वनिप्रदूषण फैलाने वाले जड़/चेतन दोनो प्रकार के यंत्र नहीं थे। मित्र सलाह देते हैं, "बीबी नहीं ला सकते लेकिन टी.वी. तो ला सकते हो? 5, 7 हजार में मिल जाएगी।"

हम सोचते, सीरियल देखना नहीं है, समाचार चैनलों के निर्धारित कार्यक्रमों को सुनने और प्रचार देखने के लिए काहे अपना पैसा खर्च करें? 

इन चैनलों के मालिक, व्यापारियों को या राजनैतिक दलों को चाहिए कि आम जनता को मुफ्त में घर-घर टीवी बांटें और अनुरोध करें कि हमने आपको टी.वी. सप्रेम भेंट किया है तो कृपया मेरा वाला समाचार चैनल जरूर देखिए! 

दूसरा कहे...अच्छा! आपके घर टी.वी. लगाने में फलाने चैनल ने बाजी मारी तो क्या, हम आपको टाटा स्काई या डिश टी.वी. का एक साल का नेटवर्क मुफ्त भेंट करते हैं। आधे समय हमारा वाला चैनल देखिएगा! 

कोई दूसरा चैनल वाला झण्डू बाम या विक्स वेपोरब इस अनुरोध के साथ दे जाय कि हमारे चैनल में शाम को "खास टाइम" या "दंगल" देखने से जो सर दर्द हो जाय तो इसका इस्तेमाल करें!

इन चैनलों को विज्ञापन देने वाले व्यापारियों को भी चाहिए कि विज्ञापन के साथ कुछ पैकेट आम जनता को भी वितरित करें।

मतलब हम पैसा खर्च कर के टी.वी. लाएं, हम नेटवर्क की फीस भरें और देखें क्या, आपका एजेंडा? क्यों भाई, कब तक मूरख बनाओगे? 

बहुत शांति रहती थी कमरे में। पड़ोस में भी शांति थी। लगता था पड़ोसी भी समाचार नहीं देखते। भले चैनल हर समय समाचार दिखाता रहता हो। सुबह काम पर जाने वाले या स्कूल जाने वाले बच्चों के माता पिता, कितनी रात तक समाचार देखेंगे?  बहुत शांति थी पास पड़ोस में भी। सीलिंग फैन की आवाज भी न आती तो पता ही नहीं चलता कि हम धरती के प्राणी हैं!

एक बार एक अधिकारी और दो कर्मचारी के कोरोना पॉजिटिव होने के कारण ऑफिस लॉक हो गया।  समय मिला तो मन मचला। बैगन, टमाटर, आलू भूनकर चोखा बनाने का मन किया। गैस चूल्हे पर रखकर भूनने वाली जाली खरीदने बाजार चले गए। जाली के साथ, एक लोहे की छोटी वाली कड़ाही भी खरीद लिए। सोचा, बारिश हुई और पकौड़ी खाने का मन किया तो फिर कड़ाही के लिए दुबारा आना होगा। 

बरतन बेचने वाली एक महिला थीं। मैने पूछा बैगन, टमाटर तो जाली में रखकर भून लेंगे लेकिन आलू कैसे भूनेंगे? उसने बढ़िया आइडिया दिया, "आलू तो बिना पानी डाले कूकर में पका सकते हैं! आलू को बिना छिले धो कर दो फाँक कर लीजिए और एक चम्मच तेल कूकर में डालकर, उस पर आलू रखकर चढ़ा दीजिए। एक सीटी में आलू पक जाएगा।"

कमरे में आकर दिन में बनारसी अंदाज में बैगन, टमाटर भूनकर, हरी मिर्च, प्याज और कच्चे सरसों के तेल के साथ खूब स्वादिष्ट चोखा बनाया। अरहर की गाढ़ी दाल को देशी घी, जीरा से छौंक दिए। दाल, चावल और चोखा। वाह! उस दिन का लंच लाजवाब था ।

एक दिन शाम को बारिश तो नहीं हुई लेकिन एक मित्र तिवारी जी आ गए।  किचन में रखी, नवकी छोटकी कड़ाही बुलाने लगी। तिवारी जी आधा प्याज और एक बैगन काटकर, दो साबूत हरी मिर्च थाल में सजा दिए। इधर बेसन घुला, उधर कड़ाही चढ़ी आँच पर। वाह! मजा आ गया। खूब स्वादिष्ट पकौड़ी और चाय। हम भी मस्त, तिवारी जी भी खुश।

बेसन ज्यादा घुल गया था तो अंत मे उसे भी कड़ाही में उड़ेल कर पका दिए। रात में बेसन की सब्जी बन कर तैयार हो गई। लेकिन अब न भूख लग रही थी न रोटी बनाने का मन ही हो रहा था। किचन को शुभरात्रि बोला और सो गया। भूख लगेगी तब देखा जाएगा। 

जिस वक्त शाम को हम मोबाइल चार्जिंग में लगाकर खाना पका रहे होते, हमारे शुभचिंतक मित्र खाना पकने की प्रतीक्षा में खुद पक रहे होते। कोई काम तो रहता नहीं, फोन मिलाकर मेरा हाल चाल पूछने लगते थे! उनसे बतियाते हुए, खाना पकाने के चक्कर में सब्जी में कभी नमक ज्यादा हो जाता था, कभी मसाला जल जाता था। मोबाइल भी ठीक से चार्ज न हो पाए। फिर यह निश्चय किया कि खाना पकाते समय मोबाइल स्विच ऑफ रखना है। अब मोबाइल भी चार्ज हो जाती, खाना भी पक जाता। बुद्धि अनुभव से ही आती है। 

एक दिन सोच रहा था, दूध पी लूँ। दूध गाय का है या भैंस का मुझे नहीं पता था। इतना जानता था कि दूध प्लास्टिक के पैकेट में था और मैने दुकानदार से सिर्फ यह पूछा था.. दूध है? पैकेट किस कम्पनी का है, पैकेट के ऊपर क्या लिखा है, कुछ नहीं पढ़ा। फाड़ा, उबाला, उबल गया तो एक कप चाय बनाया और शेष ढक कर रख दिया था। रात के बारह बजा चाहते थे , सोच रहा था, दूध पी लूँ। फ्रिज नहीं था, सुबह तक फट जाएगा, पैसा बर्बाद हो जाएगा। सोच रहा था पलकें बन्द होने, नींद के आगोश में जाने से पहले दूध पी ही लूँ।  इतना आसान भी नहीं था दूध पीना। 5 घण्टे हो चुके थे, ठंडा हो चुका था, फिर उबालना नहीं पड़ेगा क्या? उबलने का इन्तजार करना फिर ठंडे होने का इन्तजार करना, बार-बार उबालने से जो बरतन जल जाता, उसे मांज कर रखना, सब आसान था क्या? जितनी आसानी से सोच लिया..दूध पी लो, उतना सरल था क्या? सरल तब लगता है जब श्रीमती जी रख देती हैं लाकर, टेबुल पर। अकेले घर में, दूध पीना आसान था क्या?

यू ट्यूब में पनीर और शिमला मिर्च की रेसिपी देखूँ या लाइव कविता सुनूँ? बड़ी समस्या थी। वहाँ कोई टोकने/रोकने वाला नहीं था। जितनी मर्जी फेसबुक चलाऊँ या फिर मिर्जापुर पार्ट 2 देखूँ या कोई पसंद की कोई किताब पढूं लेकिन जो आलू गोभी खरीद कर लाता उसे कच्चा तो खाया नहीं जा सकता था!

दिसम्बर का महीना था, कोरोना का आतंक कम हुआ था लेकिन अकेले रहने की आदत पड़ चुकी थी। एक दिन बाहर घना कोहरा था और सुबह से लोकल फाल्ट के कारण बिजली कटी हुई थी। पड़ोसी परेशान होकर सामने बरामदे में टहल रहा था। उसका परिवार बड़ा था और कई किराएदार थे। सुबह से बड़बड़ा रहा था ... भोर में पानी नहीं चलाए, पता नहीं बिजली कब आएगी! लेकिन हम मस्त थे। हमको सिर्फ एक बाल्टी पानी चाहिए थी । स्व0 नीरज याद आ रहे थे ....जितनी भारी गठरी होगी, उतना तू हैरान रहेगा!

एक दिन सोच रहा था, सभी खिड़कियाँ/दरवाजे बन्द होने पर भी कमरे में धूल कहाँ से आ जाते हैं? मेरे कमरे में जाले बुनने के लिए मकड़ियाँ कहाँ से आती है? सफाई न करूँ तो मेरे स्वास्थ्य पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा? मटर के दाने चावल में और टमाटर दाल में डालकर पका दिया जाय तो सब्जी बनाने की क्या जरूरत है? सोच रहा था, आज इतना सोच लिया, शेष कल सोचेंगे। वास्तव में क्या होना चाहिए!

एकाकी जीवन के अनुभव ने एक ज्ञान दिया, "मन ठीक न हो तो खाना बेकार बनता है। दाल में नमक अधिक हो सकता है, सब्जी कच्ची रह सकती है, भात जल सकता है। इसलिए जब खाना खराब हो तो पत्नी पर नाराज होने के बजाय यह पता लगाने का प्रयास करो कि उसका मन दुखी क्यों हैं?"

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17.6.24

काव्यगोष्ठी (Udgar)

दिनांक 16 जून 2024 को udgar साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्था की 100 वीं काव्य गोष्ठी, स्याही प्रकाशन के कार्यालय में मनाई गई। 























https://gaongiraw.in/joyous-conclusion-of-the-100th-poetry-seminar-of-udgaar/ 

12.6.24

कोरोना काल (1)

कोरोना काल में हम रोज के यात्रियों का बनारस से जौनपुर जाना-आना असम्भव हो गया था। ट्रेने बंद हो चुकी थीं और बस भी कम ही चलती थी। कोरोना का इतना आतंक था कि मास्क और सेनिटाइजर के प्रयोग के बाद भी किसी कोरोना वाले के सम्पर्क में आ जाने का खतरा बना हुआ था। रोज के यात्रियों की संख्या 100 से अधिक ही थी। हर आदमी का जौनपुर में अलग-अलग फ्लैट लेकर रहना कठिन था लेकिन नौकरी तो करनी थी। न जौनपुर में इतने फ्लैट थे न सभी के लिए पूरे संसाधन जुटा कर अकेले रहना ही संभव था। परिणाम यह हुआ कि 5/7 की संख्या में अपने-अपने ग्रुप बनाकर लोगों ने जौनपुर में कमरा लेकर रहना शुरू किया।

हम पाँच मित्र(जिसमें सभी अधिकारी थे) को जल्दी ही एक महलनुमा घर की तीसरी मंजिल में एक बड़ा हॉल, एक बड़ा किचन, उचित दाम में किराए पर मिल गया। घर बहुत बड़ा था और जिस मंजिल में हम रहते थे, उसमें और दूसरा कोई परिवार न था। बरामदे में नहाओ, गलियारे में नाचो, छत में घूमो, कोई पूछने वाला न था। बिस्तर-चादर सब अपने-अपने घर से ले आए थे और किचन का सामान, बर्तन भी थोड़ा-थोड़ा सभी घर से ले आए थे। विकेंड में या किसी छुट्टी के एक दिन पहले हम मोटर साइकिल चला कर, कभी कार से जौनपुर-बनारस जाते-आते थे। कोरोना काल में उस समय हमे यह सबसे सुरक्षित लगा। मास्क, हेलमेट पहनने के बाद, सुनसान सड़क पर बाइक चलाना, संभावित कोरोना से बचने का सरल उपाय था। 

भोर में उठकर घूमने जाते, चाय पीने के बाद लौटकर बरामदे में मोटे पानी की धार से नहाते, मिलकर भोजन बनाते और ऑफिस जाते। ऑफिस से आने के बाद नहाना, चाय, तास और रोज एक पार्टी। शुक्र है कि कोरोना काल में बियर/शराब की दुकाने खुल गई थीं। सभी के घर वाले चिंतित रहते कि पता नहीं कैसे रहते होंगे, कैसे बनाते, खाते होंगे और हम रोज मौज उड़ा रहे थे जिसका ज्ञान घर वालों को न था। हमने एक बड़ी आपदा को अवसर में बदल दिया था। 

यह सब अधिक दिन नहीं चला। अति हर चीज की बुरी होती है। पार्टी सप्ताह/पंद्रह दिन में एक दिन ठीक होती है लेकिन यह रोज-रोज की पार्टी से मैं घबड़ाने लगा। मेरे पढ़ने, लिखने के शौक में यह बड़ी बाधा थी। रोज शाम को अकेले में मन कचोटता, यह क्या कर रहे हो? ऑफिस के पास एक कमरे का फ्लैट ढूंढने लगा। 2/3 महीने के भीतर ही मन मुताबिक एक फ्लैट मिल गया और मैं सबसे क्षमा मांगते हुए ग्रुप से अलग हो गया। धीरे-धीरे 'एकाकी जीवन' मुझे रास आने लगा।


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