पिछली बार की गंभीर कविता के पश्चात इस बार मेरा मन एक हल्की-फुल्की कविता पोस्ट करने का हो रहा है। जब मैने "मेरी श्रीमती" पोस्ट की तो बहुत से पाठकों ने इस प्रकार संवेदना प्रकट किया मानों मैं कोई पत्नी शोषित पुरूष हूँ। नीलम जी तो मानों तलवार लेकर भाजने लगीं। इसी नारी-विमर्श को ही आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है हास्य-व्यंग्य विधा पर आधारित कविता - नारी क्रंदन।
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तुम सैंया 'यू०पी०' की बिजली
मैं 'नरक पालिका' की टोंटी
तुम मनमर्जी चल देते हो
मैं टप-टप नीर बहाती हूँ
तुम सैंया सरकारी बाबू
मैं हूँ भारत की जनता सी
तुम रोज देर से आते हो
मैं भूखी ही सो जाती हूँ
तुम अच्छे खासे नेता हो
मैं भोली-भाली वोटर हूँ
तुम झूठ बोलते रहते हो
मैं कलियों सी खिल जाती हूँ
तुम छुट्टे सांड़ बनारस के
मैं खूँटे पर की गैया हूँ
तुम हो प्रतीक आजादी के
मैं प्रश्न-चिन्ह बन जाती हूँ
जब मैं आई थी धरती पर
माँ तड़प रही थीं तानों में
इक सर्पदंश था सीने में
मैं बीन बनी थी कानों में
जब तुम आए थे धरती पर
तब गूँज रही शहनाई थी
माँ झूम रही थी खुशियों में
तुम झूल रहे थे बाहों में
जब से धरती पर हुआ जनम
खुशियाँ तेरी मेरे हैं गम
तुम दमके हो मोती बनकर
मैं छलकी हूँ आंसू बनकर
मैं अब भी अबला नारी को
लुटते जलते ही पाती हूँ
दिल नफरत से भर जाता है
बस जल-भुन कर रह जाती हूँ
अब नहीं-नहीं हे पती देव
अब आगे लक्ष्मण रेखा है
तुमने अब तक शायद केवल
बिजली गिरते ही देखा है
जो बुझ न सके इंसानों से
मैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
अच्छा है भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
मैं 'नरक पालिका' की टोंटी
तुम मनमर्जी चल देते हो
मैं टप-टप नीर बहाती हूँ
तुम सैंया सरकारी बाबू
मैं हूँ भारत की जनता सी
तुम रोज देर से आते हो
मैं भूखी ही सो जाती हूँ
तुम अच्छे खासे नेता हो
मैं भोली-भाली वोटर हूँ
तुम झूठ बोलते रहते हो
मैं कलियों सी खिल जाती हूँ
तुम छुट्टे सांड़ बनारस के
मैं खूँटे पर की गैया हूँ
तुम हो प्रतीक आजादी के
मैं प्रश्न-चिन्ह बन जाती हूँ
जब मैं आई थी धरती पर
माँ तड़प रही थीं तानों में
इक सर्पदंश था सीने में
मैं बीन बनी थी कानों में
जब तुम आए थे धरती पर
तब गूँज रही शहनाई थी
माँ झूम रही थी खुशियों में
तुम झूल रहे थे बाहों में
जब से धरती पर हुआ जनम
खुशियाँ तेरी मेरे हैं गम
तुम दमके हो मोती बनकर
मैं छलकी हूँ आंसू बनकर
मैं अब भी अबला नारी को
लुटते जलते ही पाती हूँ
दिल नफरत से भर जाता है
बस जल-भुन कर रह जाती हूँ
अब नहीं-नहीं हे पती देव
अब आगे लक्ष्मण रेखा है
तुमने अब तक शायद केवल
बिजली गिरते ही देखा है
जो बुझ न सके इंसानों से
मैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
अच्छा है भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
अरे ऊपर इतनी जगह क्यॊ खाली छोड दी? उसे देख कर शायद सब चले जाते है, आप की कविता बहुत सुंदर लगी, धन्यवाद
ReplyDeleteBahut achee upama aur utanee hee sunder tulana aur ant me pardafash bhrum ka sabhee mazedar lagaa .Badhai .
ReplyDeleteशुभकामनायें ! आपकी शैली अच्छी लगी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर... अपर संभावनाएं हैं आपमें... लिखते रहें... शैली और तेवर दोनों अच्छे हैं... प्रयोग भला है... और मनोरंजक भी... दिल की बात भी इसी बहाने कह दी... पर बहिन जी को शायद पसंद ना आये.... :)
ReplyDelete...
बहुत खुबसूरत प्रयोग है ..शुरू में हास्य व्यंग का पुट और बाद में नारी की गंभीर अन्तर वेदना ..काफी अच्छे बन पड़े हैं.....
ReplyDeleteशुरू के २ पेराग्राफ बहुत पसंद आये.
लाजवाब बहुत खुबसूरत रचना है .......हास्य व्यंग से शुरू हो कर ........ गंभीर फिर नारी मन की अन्तर वेदना को दर्शाती ......... अच्छी रचना है ........
ReplyDeletekavi chahe apne dil ki ho ya kisi ke dukh ka mahsus kar likhata ho uski samvednayen sabke liye hoti hai... bahut achha lagi aapki kavita.. kabhi purush krandan bhi likhiyegaa......
ReplyDeleteShubhkamnayen
जो बुझ न सके इंसानों से
ReplyDeleteमैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
अच्छा है भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
ये हलकी पुलकी है??? मुझे तो बहुत ही बेहतर लगी एक एक शब्द मन में उतर गया जो आपने दलीलें दी काबिले तारीफ़ है | एकदम सत्य निरासत्य ! सांड ऐसा चारा बड़े शौक से खाता है !!!
वाह क्या खूब कहा है शुभकामनायें
ReplyDeleteजो बुझ न सके इंसानों से
मैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
अच्छा है भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
बधाई
मुझे ये समझ में नहीं आया की आपने किसी और शायर की पंक्तियाँ मुझे लिख कर क्यूँ दिया! अगर आपको पसंद न आए तो कोई बात नहीं पर मेरी शायरी के साथ किसी और शायर का कोई वास्ता नहीं! अगर आपको मेरी बातों का बुरा लगा तो माफ़ कीजियेगा!
ReplyDeleteजब से धरती पर हुआ
जनमखुशियाँ तेरी मेरे हैं गम
तुम दमके हो मोती
बनकरमैं छलकी हूँ आंसू बनकर...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!
जो बुझ न सके इंसानों से
ReplyDeleteमैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
अच्छा है भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
बहुत ही सुन्दर पंक्तियों से सजी बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
जो बुझ न सके इंसानों से
ReplyDeleteमैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
अच्छा है, भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
मुझे याद नहीं कि कविता में इस से अधिक चुभता हुआ व्यंग्य पहले कभी पढ़ा हो ! बधाई हो हाथरसी-अवतार !!
कई अंतर्विरोधों को अंतर्मन की गहराई से महसूस कर शब्दों को उनके सही ठिकाने पर रख कर जोड़ा गया है बधाई लेकिन उपरी १६ पंक्तियाँ कविता स अलग की जा सकती है इस तरह दो कवितायें अपने अलग अंदाज और तेवर में थोड़े से बदलाव के साथ बन सकती है ..बस ये सुझाव है अन्यथा ना लें फिर भी अपने अर्थ को सार्थक करती इस रचना के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteवाह सर जी
ReplyDeleteयह तो तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सुनी जाने लायक कविता है...अहोकाव्य..
यू पी की बिजली ’परदेसी सैंया’ है..खुद कभी नही आती..भूले-बिसरे खत आ जाते हैं बस..
और यह पंक्तियाँ तो हकीकत को भी शर्मसार कर दें
ReplyDeleteतुम छुट्टे सांड़ बनारस के
मैं खूँटे पर की गैया हूँ
तुम हो प्रतीक आजादी के
मैं प्रश्न-चिन्ह बन जाती हूँ
bhai kya mast rachna hai.......yah prayog vilakshan hai
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पढ़ा अच्छा लिखते हैं आप .नया अंदाज़ है लिखने का .बहुत पसंद आया शुक्रिया
ReplyDeleteदेवेंद्र जी ,
ReplyDeleteअच्छा व्यंग किया है .देश के सामने आज कई समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं .लोगों की प्राथमिक ज़रूरतें तक पूरी नहीं हो पा रही हैं .औरत की दशा आज भी सोचनीय है .आप मेरे ब्लॉग पर आए , खुशी हुई .
devendra ji, khubsurat andaaj hasya aur vyang ka..saral shabdon me bahut gambhir baat kah gaye app..
ReplyDeleteजब से धरती पर हुआ जनम
ReplyDeleteखुशियाँ तेरी मेरे हैं गम
तुम दमके हो मोती बनकर
मैं छलकी हूँ आंसू बनकर
मैं अब भी अबला नारी को
लुटते जलते ही पाती हूँ
दिल नफरत से भर जाता है
बस जल-भुन कर रह जाती हूँ
देवेन्द्र जी नतमस्तक हूँ आपकी इस कविता पर .....दो,चार पंक्तियों में ही आपने नारी जाति की सारी व्यथा कह डाली ....बहुत ही सशक्त रचना ...हर बंद अपने आप में पूर्ण है ...अपूर्व जी ने सही कहा .....तालियाँ .....!!
''ये उम्दा पंक्तियों'' वाले गर्म-गर्म सी कटार लिए क्यों फिरते हैं....?
ReplyDeleteताकि पाठक फूलों का नर्म-नर्म हार वार दें...
ReplyDelete-तारीफ के लिए शुक्रिया
wah devendra ji bahut umda vyangya hai. badhaai.
ReplyDeleteनारी की व्यथा को बहुत ही सहजता से प्रस्तुत किया है
ReplyDeleteअब नहीं-नहीं हे पती देव
अब आगे लक्ष्मण रेखा है
तुमने अब तक शायद केवल
बिजली गिरते ही देखा है
जो बुझ न सके इंसानों से
मैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
अच्छा है भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
किंतु इन पंक्तियों ने नारी को अपनी ख़ुद की पहचान दे दी \
बहुत सशक्त रचना |
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Ha,ha,ha! Bade dinon baad aisee hansee niklee..UP kee kya Maharashtr me bhi yahee haal hai...poore desh kee bijlee..saare deshke nalke..waah! Aisee tulna kahin nahee padhee..!
ReplyDeleteजब से धरती पर हुआ जनम
ReplyDeleteखुशियाँ तेरी मेरे हैं गम
तुम दमके हो मोती बनकर
मैं छलकी हूँ आंसू बनकर
bahut khoob ,
der se comment preshit karne ke liye maafi chaahungi .
अगर तूफ़ान में जिद है ... वह रुकेगा नही तो मुझे भी रोकने का नशा चढा है ।
ReplyDeleteबहुत रोचक, कविता का इन्द्रधनुष है यह - कई रंग!
ReplyDeleteमैं प्रलयकारिणी दंगा हूँ
ReplyDeleteअच्छा है, भ्रम बना रहे
तुम परमेश्वर मैं गंगा हूँ
बहुत सुंदर । नारी के आक्रोश की गहरी अभिव्यक्ती ।
देवेन्द्र जी मेरे ब्लॉग पर आपने अपनी प्रतिक्रिया डाली थी वहीं से ढूंढते- ढूंढते पहुँच गयी हूँ और आकर ऐसा लगा की कहाँ आ गयी ?अभी तक क्या कर रही थी ?यकीन मानिये जो कुछ पढ़ा इतना अछ्हा लगा की शब्द ही नहीं मिल रहे है
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