छत की मुंडेर पर धोती फैलाकर
किसी कोने में
खुद को निचोड़ती
बच्चों की चिंता में
दिनभर
सूखती रहती है
माँ।
हवा के झोंके से गिरकर
घर की बाहरी दीवार पर गड़े
खूँटे से अटकी
धोती सी लहराती
बच्चों के प्यार में
दिनभर
झूलती रहती है माँ।
शाम ढले
आसमान से उतरकर
धोती में लिपटते
अंधेरों को झाड़ती
तारों की पोटली बनाकर
सीढ़ियाँ उतरती
देर तक
हाँफती रहती है माँ।
चुनती है जितना
उतना ही रोती
गमों के सागर में
यादों के मोती
जाने क्या बोलती
न जागी न सोती
रातभर
भींगती रहती है माँ।
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