घने कोहरे और कंपा देने वाली ठंड से निकलकर
मूंगफली और छिमी के दाने सा
कीचन में पकते अम्मा के बगोने में पापा के प्यार सा
अमरूद के नीचे जलते अलाव की गर्मी सा
पापा की सुर्ती और अम्मा की फुर्ती सा
बाबा की दाढ़ी और गाढ़ी कमाई सा
मुन्नी की राखी सा
मंदिर की घंटी सा
लो फिर आ गया
घने कोहरे और कंपा देने वाली ठंड से निकलकर
सबके द्वार खटखटाता
प्यारा नववर्ष।
सभी को नववर्ष की एक बार फिर बहुत-बहुत बधाई। आज रविवार है... कविता पोस्ट करने का दिन । नए वर्ष का पहला रविवार। सफर से पहले, ठहर कर अपनी ताकत अंदाज लेने का अवसर देने वाले मील के पहले पत्थर सा... पहला रविवार। मेरे पिछले पोस्ट को आप सभी ने जो स्नेह दिया उसका तहे दिल से आभारी हूँ। मैने लिखा -प्रथम मास के.. प्रथम दिवस की.. उषा किरण बन.. मैं आउंगा बधाई देने नए वर्ष की.. तुम अपने कमरे की खिड़कियाँ खुली रखना...अब बहुत से लोग कह रहे हैं कि आज तीन दिन से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ....... रोज कमरे की खिड़कियाँ खुली रखता हूँ....... आखिर कब आओगे...!! अरे, तुम आओ या न आओ कम से कम धूप को तो भेज दो...! उसे भी क्यों पकड़े हुए हो..? बड़ी समस्या है.. हरकीरत 'हीर' लिखती हैं कि देवेन्द्र जी खिड़कियाँ खोल दी हैं ....अब मच्छर या सर्दी ने परेशान किया तो आप जाने ......!! मुझे उनके साथ-साथ अपनी बहुत चिंता सता रही है ...तीन दिन से रोज आसाम जा रहा हूँ उनकी खिड़कियाँ हैं कि बंद ही नहीं हो रहीं !! अब उन्हें कौन समझाए कि
मैं कवि के साथ बेचैन आत्मा भी हूँ ....कुछ भी बन सकता हूँ ..!!! बीमार हो गईं तो नाहक इल्जाम मेरे सर। वैसे भी
कहा गया है-जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि।
पिछले सप्ताह एक और मजेदार वाकया हुआ। मैने श्री रवि रतलामी जी के प्रसिद्घ ब्लॉग रचनाकार में http://rachanakar.blogspot.com/2009/12/blog-post_31.html?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed:+rachanakar+(Rachanakar)आयोजित व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता में अपना व्यंग्य लेख व्यंग्य -लेखन पुरस्कार आयोजन – देवेन्द्र कुमार पाण्डेय का व्यंग्य : स्कूल चलें हम -भेज दिया। जब यह प्रकाशित हो गया तो इंतजार करने लगा कि देखें पाठक क्या प्रतिक्रिया देते हैं ! हाय, सिर्फ एक प्रतिक्रिया !! मै बड़ा दुःखी हुआ।
सोंचा ....१५ दिन की मेहनत के बाद एक लेख लिखा......... इतनी मेहनत से टाइप किया और सिर्फ एक प्रतिक्रिया !! फिर सोंचा अपने दो अनुज हैं उन्हे ई-मेल से अवगत कराते हैं कि भाई जरा पढ़ लो.... बताओ कैसा लिखा है मैने ? एक ने पढ़ा कि नहीं पता नहीं... दूसरे ने मेरा छोड़ सभी का पढ़ा फिर ई-मेल कर दिया... कि भैया आपका नहीं मिला तो जो मिला उसी की तारीफ कीए दे रहे हैं !! मैने सर पीट लिया। किसी को न बताने की कसम खाई थी लेकिन ऐसा दर्द किसे कहा जाय ? आप लोगों के सिवा और कोई है जो सुनेगा !! कहेगा ......."सर मत खाओ बाप.... अपनी कविता जाकर किसी और कवि को सुनाओ।"
मेरी बकवास पढ़कर यदि आप बोर हुए हों तो अवश्य लिखें... भविष्य में शार्टकट से काम चला लुंगा। चलिए चर्चा नए वर्ष के प्रथम रविवार की पहली कविता की करें। आज जो कविता मैं पोस्ट करने जा रहा हूँ उसे मैने अपने जीवन साथी की आंखों में पढ़कर हूबहू उतारा है। यह कविता मैं अपनी श्रीमती जी को समर्पित करता हूँ जो मेरी कविताओं की पहली श्रोता व अंतिम संपादक हैं। प्रस्तुत है आज की कविता जिसका शीर्षक हैः-
प्रेम
तुम
एक दिन
उलझे मंझे की तरह
लिपट गए थे
मेरी जिन्दगी से
मैंने
घंटों.....
धूप में खड़े होकर
तुम्हें सुलझाया है ।
आज
जब तुम्हारे सहारे
मन-पतंग
हवा से बातें करता है
तो झट
तुम्हें
अपनी उंगलियों में
लपेटने लगती हूँ ।
डरती हूँ
कि कहीं
किसी की
नज़र न लग जाए........
डरती हूँ
कि कहीं
तू
फिर
उलझ न जाए......!
Ye sanshay kyo ? :) kabhee socha hai ?
ReplyDeletevyang waleerachana is blog par post kariyega na ?
nav varsh kee mangal kamnao ke sath .
मेरी बकवास पढ़कर यदि आप बोर हुए हों तो अवश्य लिखें
ReplyDeleteबिलकुल बोर नहीं हुए, भाई।
नव वर्ष की सुबह में अच्छी कविता।
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें।
बचपन और आस-पास के ख्याल दिल पे दस्तक दे गए
ReplyDeleteमेरी बकवास पढ़कर यदि आप बोर हुए हों तो अवश्य लिखें
ReplyDeleteअजी बिलकुल नही हुये
कविता में एक ही शब्द या पद के दो बार प्रयोग से बचना चाहिए जैसे इस रचना में डरती हूँ का दो बार प्रयोग हुआ है
ReplyDeleteनववर्ष शुभ हो मंगल हो और आपको हर दिन नये नये पाठक और टिप्पणी कार मिलें । कवितायें दोनो ही सुंदर हैं ।
ReplyDeleteनववर्ष में आप सेंकडों टिप्पणियां पायें इस दुआ के साथ आपके नव वर्ष का व्रणन भी बहुत भाया । प्रेम थोडा उलझा सा लगा ।
ReplyDeleteपहले तो आप इस बकवास और बोर होने की बात को दिल से निकाल दें..न तो यह बकवास है न हम बोर होते हैं ऐसे..
ReplyDeleteऔर यह बताएं कि इनमे से किस कविता पर आपको पहले बधाई दूँ नव वर्ष को जितने दिलकश रूपों मे आपने यहां चित्रित किया है कि दिल करता है कि इसे बीतने ही न दूँ...
फिर आपकी इस कविता का यह भाव
तुम
एक दिन
उलझे मंझे की तरह
लिपट गए थे
मेरी जिन्दगी से
मैंने
घंटों.....
धूप में खड़े होकर
तुम्हें सुलझाया है ।
’घंटों’ तक ’कड़ी धूप’ मे ’खड़े’ हो कर माझे को ’सुलझाने’ का यह धैर्य, समर्पण और श्रम उस माझे की भी अमूल्य निधि है..और यह डर भी उसका साझा ही है..
और आपका वह व्यंग्य मैंने भी पढ़ा था तभी..मगर उस व्यंग्य और उसमे निहित कटाक्ष मे तुरंत मे भेद कर पाना मुश्किल हो रहा था सो उस समय कुछ कह नही पाया..उसके लिये क्षमा करें..
dono rachnaye acchhi hai...nav varsh wali ant tak suspense banaye rakhi.
ReplyDeleteprem prem se ot-prot.
baki aapki baate.......naaaaaaaaaaa ji bilkul bore nahi kar rahi...lage rahiye...
देवेन्द्र जी, आदाब
ReplyDeleteयहां तो
पहली 'श्रोता' और अंतिम 'संपादक'
वाली बात पूरी कविता पर भारी पड़ गयी है..
'उन्ही' से मुखातिब होते है..
हम्म!!!!!!!
तो ये राज़ है, देवेन्द्र जी की काव्यात्मक गहराईयों का..
हा हा हा......
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
’प्रेम’ कविता ने तो प्रभावित किया । बाकी उसके पहले का गद्य और फिर उसके पहले की कविता - उन सबका भी क्या कहना !
ReplyDeleteआपको ईमेल करने की जरूरत ही क्या है किसी को - हम सब पढ़ते ही हैं नियमित ! आभार ।
इस खुबसूरत रचना के लिए
ReplyDeleteबहुत -२ आभार
ह्रदयस्पर्शी रचना बेजोड़.
ReplyDeleteaapka ye andaj bahut achha lga aur ham bilkul bhi bor nahi huye aise hi likhte rhe .ham to tippni krege hi ?
ReplyDeletebhabhiji ka smpadkeey bahut sadha hua hai .
नये साल की आप को हर्दिक शुभकामनाये ऐसे ही
ReplyDeleteपूरे साल लिखते रहे
Wah bahut khub...
ReplyDeletedil se pasand aaya..!
Padosi hain jaan kar achchha laga...! naw varsh ki hardik badhai..!
जी तो करता है की छीमी के मीठे दानो को आपके रसोई के सूप से उठाकर मुंह में रख लूँ.
ReplyDeleteये क्या हो गया... यहाँ अकेला हूँ और मम्मी बहुत याद आ रही है. सब याद आ रहा है. माँ का मंदिर से लौटना और उनसे प्रसाद के दाने झपटना.
ये प्रेम है या डूबते निकलते अहसासों का उलझन. प्रेम कविता तो उलझा रही है.
सुन्दर कोमल
बधाई.
- सुलभ
क्या बात है देवेन्द्र जी...ये आपका संडे-के-संडे आना पुलकित करता है। कविता तो खूबसूरत है ही लेकिन उससे पहले भूमिका में अपनी अर्धांगिनी के लिये कहा गया वक्तव्य "पहली पाठिका आखिरी संपादक" भी किसी कविता से कम नहीं।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखते हैं आप!
साहब आपको पहले नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामना। और दुआ करते हैं कि आपका हर साल उत्कृष्ट रचनाओं से भरा रहे।
ReplyDeleteजहां तक बात है आपके लेख की तो बातों ही बातों में आपने मस्त व्यंग कर दिया। पढ़ के आत्मा से लेकर चेहरे तक हंसी दौड़ गई।
आभार---
( आपका मेरे ब्लॉग पर आने के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद)
बोर होने का तो सवाल ही नही है ....... रविवार की प्रतीक्षा करते हैं ....... आ नही पाते तो जब फ़ुर्सत होती है तो आते हैं ......... आप ऐसे ही लिखते रहें ......... जैसे आज की बेमिसाल रचना है ........ जीवन के अमर प्रेम को समर्पित रचना ...... सकूँ देती है दिल को ............
ReplyDeleteसची बात यह देवेन्द्र.. बहुत प्यारे बोर हो भाई .. यूं ही बोर करते रहो और हम होते रहे ..सस्नेह आपका श्याम
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना लिखा है आपने!
धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति..प्रेम को आपने एक सुंदर रूप दिया, भाव दिया.....धन्यवाद देवेन्द्र जी..और हाँ पहले भी कह चुका हूँ एक बार फिर से कहता हूँ कि आपको भी इस नये साल २०१० की बहुत बहुत हार्दिक बधाई..
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