मेला...
हमने देखे गज़ब नज़ारे मेले में।
लाए थे वो चाँद-सितारे ठेले में।।
बिन्दी-टिकुली, चूड़ी-कंगना
झूला-चरखी, सजनी-सजना
जादू-सरकस, खेल-खिलौने
ढोल-तराने, मखणी-मखणा
मजदूरों ने शहर उतारे मेले में।
हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।
भूखे बेच रहे थे दाना
प्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी
बच्चों ने बेचे गुब्बारे मेले में।
हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।
बिकते खुशियों वाले लड्डू
एक रुपैया दो-दो दोना
हीरे वाली गजब अंगूठी
चार रुपैया चांदी-सोना
अंधियारे दिखते उजियारे मेले में।
हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।
जीबन का मेला भी अईसने है देवेंद्र जी... बस एगो सपना के जईसा... जब तक लगा रहता है सच बुझाता है और एक दिन सब खतम... अच्छा लिखे हैं, जीबन का कॉन्ट्रास्ट देखाई देता है!!
ReplyDeleteभूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी
Jeevan ke mele ka kya gazab warnana kiya hai aapne...aankhen nam ho gayin..
devendra jee.......wah jee wah.......kitne pyare dhang se jeevan ke mele ko aapne dikhaya hai...:)
ReplyDeleteभूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी
बच्चों ने बेचे गुब्बारे मेले में।
हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।
क्या बात है !
देवेन्द्र जी ,ऐसा कभी नहीं हुआ कि इस ब्लॉग से मैं कुछ सीख लिये बिना जाऊं ,बहुत ख़ूबसूरत मंज़रकशी
एक दर्शन छुपा होता है आप की रचनाओं में
बहुत उम्दा!
"भूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ"
देवेंदर दा जबाब नहीं !
भूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सत्य को उजागर करती बहुत संवेदनशील रचना
जहाँ रोज एक दिन जिजीविषा है .....
ReplyDeleteभूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
बहुत अच्छा..........
ख़ूबसूरत रचना !!!!
बहुत सुन्दर ,मेलों में सपने बिकते और खरीदे जाते हैं -यथार्थ चित्रण !
ReplyDeleteबड़ा प्यार गीत बन पड़ा है।
ReplyDeleteबहुत उम्दा लिखा.
ReplyDeleteआभार.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
सही ही कहा देवेन्द्र जी... वैसे मेले लग रहे हैं अब भी??
ReplyDeleteजिंदगी के विरोधाभास का सही चित्रण ।
ReplyDeleteमन ने स्वतः ही इस अद्वितीय गीत की हर पंक्ति की बलैयाँ ली हैं...
ReplyDeleteशब्दों में इस रसानुभूति को बाँध बताना संभव नहीं मेरे लिए... क्या कहूँ...
ऐसे मेले में भी अपन अकेले ही रहते हैं,तभी यह सब देख पाते हैं।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमेले की वास्तविकता बयान कर दी आपने... सर्कस के जोकर के कारनामे बहुत हँसाते हैं लेकिन इसके लिए वो कितना रोता होगा कौन देखता है... रस्सी पर चलने वाली लड़की, गुब्बारे बेचने वाला बच्चा, चूड़ियाँ बेचने वाली विधवा... बहुत कचोटता है... देवेंद्रजी अजब नज़ारा है इस मेले का भी!!
ReplyDeleteअति उतम.
ReplyDeleteरामराम.
अभी बच्चों को पढ़ाई है, सुन्दर बाल कविता।
ReplyDeleteपुनः पढ़ा तो लगा कि बहुत गहराई लिये है यह मेला।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आप की यह भाव पुर्ण कविता. धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत सुंदर!
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
ReplyDeleteपर्दे के पीछे की सच्चाई है ये, भूखे दाना बेच रहे हैं और प्यासे पानी।
सच है जो दिखता है और जो वास्तव में है, उसमें जमीन आसमान का अंतर है।
बहुत अच्छी रचना लगी।
भूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी
बच्चों ने बेचे गुब्बारे मेले में।
हमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।
बहुत सुन्दर आप की यह भाव पुर्ण कविता आभार
बहुत ही उम्दा रचना है आपकी
ReplyDeleteमेरी बधाई स्वीकार करें
वाह वाह
ReplyDeleteउम्दा रचना के लिए आभार
मैं परेशान हूँ--बोलो, बोलो, कौन है वो--
टर्निंग पॉइंट--ब्लाग4वार्ता पर आपकी पोस्ट
उपन्यास लेखन और केश कर्तन साथ-साथ-
मिलिए एक उपन्यासकार से
आपका भी जवाब नहीं.... बहुत सुंदर गहरी बात कह दी... आपने....
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना...
भूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ.......
बहुत अच्छी रचना |
मेले में चल रही उलटबांसी को देख लिया आपने , यह आपकी संवेदनशील नज़रों की बाबत हो पाया. मेले में बच्चे गुब्बारे बेचकर कॉपी-कीताब की जुगाड बैठाते होंगे या घर की दाल-रोटी की.
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह! बहुत बढ़िया लगा! जीवन के मेले को आपने बड़े ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! उम्दा रचना!
ReplyDeleteभूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी
Bahut hi sunder...bahut hi sach se bhari hui rachna.
भूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी
गहरे भाव और व्यथा सहेजे हुए ये प्रस्तुति भावुक कर गई
आज की सच्चाई को दर्शाती एक सुंदर रचना , बधाई
ReplyDeleteजीवन के मेले के विभिन्न रूप की झलक दिखा दी आपने.
ReplyDeleteबिन्दी-टिकुली, चूड़ी-कंगना
ReplyDeleteझूला-चरखी, सजनी-सजना
जादू-सरकस, खेल-खिलौने
ढोल-तराने, मखणी-मखणा
वाह...वाह....मेला याद आ गया .....!!
बचपन में खूब जाया करते थे
.....
एक बार किसी मेले में रामपुरिया चाकू खरीदा था १० रूपए में आज भी संभाले रखा है....!!
गज़ब का वर्णन है मेले का .....!!
भूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी..
ये तो जीवन की सच्चाई है ... अक्सर मजबूरी इंसान को ये सब कराती है ...
bahut achhi kavita.
ReplyDeleteरक्षाबंधन पर हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
ReplyDeleteभूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
सूनी आँखें हरी चूड़ियाँ
सपने बेच रहे ज्ञानी
kitni saralta se aapne kitna kuch kah diya.bahut khub.badhai.
भूखे बेच रहे थे दाना
ReplyDeleteप्यासे बेच रहे थे पानी
mele me kuchh aise hi najare hamne bhi dekh rakhe hain.
jeena isi kaa naam hai...
ReplyDelete@ बेचैन आत्मा जी,
ReplyDeleteअच्छा लिखते है आप
धन्यवाद आपका जो आप इस ब्लॉग पर पधारे
मैं आप के विचारो से सहमत हूँ लेकिन आप जानते होंगे की copyright जैसे किसी भी पचड़े में न फसने के लिए ऐसा करना पड़ रहा है, और फिर ओशो कहते है की नाम में क्या रखा है . हमें सिर्फ अपना कर्म करना है . ...............
nahi janta kya likhoon,
ReplyDeleteyun to bas blog ki duniya ki sair kar raha tha, lekin jis tarah se apne ek vyangatmak rachna paish ki hai, laga ki yahan ana sarthak ho gaya.
ek anoothi prastuti ke liye badhai.
मजदूरों ने शहर उतारे मेले में।
ReplyDeleteहमने देखे गजब नज़ारे मेले में।।
sunder chitr kheenchaa hai aapne....
सुंदर-सटीक -सजीव-
ReplyDeleteचित्रण-मेले का -
सकारात्मक व्यंग
शुभकामनाएं .
गहन रचना!
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