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नीम बहुत उदास था
फिज़ाओं में धूल है, धुआँ है
न बावड़ी है न कुआँ है
पीपल ने कहा...
आजा मेरी गोदी में बैठ जा !
नीम हंसा...
फुनगियाँ लज़ाने लगीं
कौए ने कलाबाजी करी
वक्त ने पंख फड़फड़ाये
पीपल की गोद में
नन्हां नीम किलकारी भरने लगा
आज
नीम बड़ा हो चुका है
उसकी शाखें पीपल से भी ऊँची हैं
जड़ें एक दूजे से गुत्थमगुत्था
अब चाहकर भी दोनो को अलग नहीं किया जा सकता
उसे देख
प्रभावित होते हैं
हिंदू भी, मुसलमान भी, सिक्ख भी, इसाई भी
वे भी जो ईश्वर को मानते हैं
वे भी जो ईश्वर को नहीं मानते
मैं जब भी
उस वृक्ष के पास से गुजरता हूँ
तो लगता है इसकी शाखें बुदबुदाती रहती हैं
करोरम किसी से करो।
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नीम बहुत उदास था
फिज़ाओं में धूल है, धुआँ है
न बावड़ी है न कुआँ है
पीपल ने कहा...
आजा मेरी गोदी में बैठ जा !
नीम हंसा...
फुनगियाँ लज़ाने लगीं
कौए ने कलाबाजी करी
वक्त ने पंख फड़फड़ाये
पीपल की गोद में
नन्हां नीम किलकारी भरने लगा
आज
नीम बड़ा हो चुका है
उसकी शाखें पीपल से भी ऊँची हैं
जड़ें एक दूजे से गुत्थमगुत्था
अब चाहकर भी दोनो को अलग नहीं किया जा सकता
उसे देख
प्रभावित होते हैं
हिंदू भी, मुसलमान भी, सिक्ख भी, इसाई भी
वे भी जो ईश्वर को मानते हैं
वे भी जो ईश्वर को नहीं मानते
मैं जब भी
उस वृक्ष के पास से गुजरता हूँ
तो लगता है इसकी शाखें बुदबुदाती रहती हैं
करोरम किसी से करो।
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बहु सुन्दर अभिव्यक्ति....पेड़ों के माध्यम से...
ReplyDeleteनीम हंसा...
ReplyDeleteफुनगियाँ लज़ाने लगीं
कौए ने कलाबाजी करी
वक्त ने पंख फड़फड़ाये
पीपल की गोद में
नन्हां नीम किलकारी भरने लगा
देवेन्द्र जी क्या चित्र खींचा है आपने कविता में. बहुत ही उम्दा. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर.
गहन चिंतन से परिपूर्ण सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteसदाशयता प्रभावित कर जाती है आज के समय।
ReplyDeleteकरोरम किसी से करो .....का मतलब लगता है समझ मे आ गया है.
ReplyDeleteमैं जब भी
ReplyDeleteउस वृक्ष के पास से गुजरता हूँ
तो लगता है इसकी शाखें बुदबुदाती रहती हैं
करोरम किसी से करो।
आपकी कविता एक बिम्ब के साथ बहुत गहरी शिक्षा देती है ...आपका आभार
@जड़ें एक दूजे से गुत्थमगुत्था
ReplyDeleteअब चाहकर भी दोनो को अलग नहीं किया जा सकता..
सार्थक है,आभार.
उसे देख
ReplyDeleteप्रभावित होते हैं
हिंदू भी, मुसलमान भी, सिक्ख भी, इसाई भी
वे भी जो ईश्वर को मानते हैं
वे भी जो ईश्वर को नहीं मानते
बहुत सुंदर रचना
करोरम किसी से करो।
ReplyDeleteबस यही समझ नहीं आया ।
कविता का भाव बहुत सुन्दर है ।
प्रेरक प्रसंग !
ReplyDeletesunder prastuti hetu abhaar.
ReplyDelete> करोरम?
मैं जब भी
ReplyDeleteउस वृक्ष के पास से गुजरता हूँ
तो लगता है इसकी शाखें बुदबुदाती रहती हैं
करोरम किसी से करो।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ........
peepal aur neem ko mila diya..:)
ReplyDeleteek khubsurat prernadayak rachna..
करोरम????????????????????????
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
ReplyDeleteशानदार बिम्बों का इस्तेमाल......एक सम्पूर्ण रचना......पर माफ़ कीजिये मुझ अज्ञानी को करोरम का मतलब समझ नहीं आया......अगर आप बता सके तो...
अति सुंदर भाव अभिव्यक्त हुए हैं.
ReplyDeleteरामराम.
kewal शब्द "karoram " नहीं samajh पायी...baakee kavita के चिंतन bimb और ras की क्या kahun...
ReplyDeleteअद्वितीय...bejod ...मुग्धकारी...ह्रदय स्पर्शी !!!!
karoram !
ReplyDeletedarasal karoram ek dhvani hai jise maine shabd dene kii himmat kii hai. karoram ke arth ko samjhna hii kavita kii sarthakta hai. karoram ka prayog karke maine pathak ko arth lagane kii svatantrata dii hai. Aj ghar se bahut door hoon siber main likh raha hoon. roman ka prayog karna badhyakarii hai.
kasht ke liye khed.
करोरम ?????
ReplyDelete....karoram ka prayog karke maine pathak ko arth lagane kii svatantrata dii hai......arthaat jahan kavi ko pahunchna tha wahan aap pahunch gaye, ha.....ha.....ha.....
ReplyDeleteबसंत पंचमी की शुभकामनाएँ...
वाह, देर से आने का लाभ यह हुआ कि करोरम भी मिल गया!
ReplyDeleteजरूरी नहीं कि सभी शब्द, शब्दकोष में मिल ही जाये कुछ शब्द हवाओं में गूंजते हैं,अर्थ दृश्य देख कर हमें लगाना होता है.यह भी जरूरी नहीं की आप मेरी बातों से सहमत हों..कष्ट के लिए खेद है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...एक-एक बिम्ब प्रभावित करते हैं .अच्छा लगा....
ReplyDeletearthpurna shaandar rachna.
ReplyDelete-Mayank
देवेन्द्र जी ,आपकी रचनाओं में एक अलग सी ध्वनि,लय,ताल होती है .खींचे बिम्बों में मन हिचकोला खाने लगता है ..एक अलग आनंद की अनुभूति होती है ..बहुत सुन्दर .अच्छा लगा....
ReplyDeleteआगे भी करोरम व्यवहार में रखें ताकि विस्मृत न हो जाय मगर मुझे तो यह कुछ रार मार सा ध्वनित हो रहा है -
ReplyDeleteजबकि अर्थ अलग सा इंगित है -चलिए व्यंजनायें अक्सर प्रत्यक्षतः ऐसी ही विरोधाबोधी लगती हैं मगर किसी ख़ास अर्थ में गूढ़ हो जाती हैं ....करोरम के साथ भी ऐसा ही हो ,,तथास्तु !
अंतर्मंथन और गूढ़ चिंतन को वाध्य करती रचना....
ReplyDeleteapki bechain aatma ki kalpana...........behad behad sunder...........
ReplyDeletewaakai ab na rahe wo paid na rahe vo peepal.............
अपना समय ऐसा ही है। यह वक्त फुनगियों पर इतराने का नहीं,जड़ों की ओर लौट चलने का है।
ReplyDelete.
ReplyDeleteसंस्कारों की तिलांजलि देता,
एक अजीबो गरीब दिवस है ये ।
लेकिन आजकल का कोरम है ये ,
स्कूल और पार्कों का डेकोरम है ये ,
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करोरम करो भैया , लेकिन डेकोरम बनाए रखो ।
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Decorum - शिष्टाचार , तमीज , सभ्यता , आदाब , मर्यादा , सदाचार , सुन्दरता ।
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यह भी बहुत अच्छी लगी कविता। सुन्दर!
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