का रे पचइंचिया !
नहइले ?
ना..
खाना खइले ?
ना..
सुतले रहबे ?
ना…
खेलबे ?
हाँ…
के उतारी तोहें इहाँ से ?
देख ! तोहार बाहू तs ओह दे ऊपर बोझा ढोवता
तू कबले सुतले रहबे ई पाँच इंची के देवार पे !
कूद !
न कुदबे ?
ले उतार देतानी तोहका
शाबास!
ना चिन्हले हमका ?
हम ठिकेदार हई...
तोहार असली बाप रे सारे !
ले ई दोना
जा बालू लिआव कपारे पर जैसे तोहार माई लियावता !
हँ...अइसे....शाबास !
ले रोटी खो।
फेंक देहले..?
हरामी...!
रूक..!
बूझ लेहले का पंडित का भाषा ?
का रे लम्बुआ...!
का कहत रहलेन पंडित जी काल ?
हँ मालिक !
कहत रहेन...
नव इंची के ईंट कs सीढ़ी बनाई के
निकसी पचइंचिया
अंधियार कुईंयाँ से
एक दिन
बजाई गिटार
खिल उठी फूल
तितलियन कs आई बाढ़
नाची मनवाँ
हुई जाई
सगरो अजोर।
हा हा हा हा...
चुप रे लम्बू !
देख !
अंखिया भर आई हमार।
पगलऊ पंडित !
ना बूझेलन केतना गहीर बा
ई कुआँ...!
....................................................................................
हिंदी अनुवाद । उन पाठकों के लिए जो भोजपुरी बिलकुल ही नहीं समझ पा रहे। मुझे नहीं मालूम कि मेरा प्रयास कहाँ तक सफल है लेकिन मुझे लगा कि अनुवाद आवश्यक है उन पाठकों के लिए जिन्होने भाषा के कारण इसे बिलकुल ही समझने से इंकार कर दिया। मेरा मानना है कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है। दर्द जैसे भी हो महसूस किया जाना चाहिए।
नहइले ?
ना..
खाना खइले ?
ना..
सुतले रहबे ?
ना…
खेलबे ?
हाँ…
के उतारी तोहें इहाँ से ?
देख ! तोहार बाहू तs ओह दे ऊपर बोझा ढोवता
तू कबले सुतले रहबे ई पाँच इंची के देवार पे !
कूद !
न कुदबे ?
ले उतार देतानी तोहका
शाबास!
ना चिन्हले हमका ?
हम ठिकेदार हई...
तोहार असली बाप रे सारे !
ले ई दोना
जा बालू लिआव कपारे पर जैसे तोहार माई लियावता !
हँ...अइसे....शाबास !
ले रोटी खो।
फेंक देहले..?
हरामी...!
रूक..!
बूझ लेहले का पंडित का भाषा ?
का रे लम्बुआ...!
का कहत रहलेन पंडित जी काल ?
हँ मालिक !
कहत रहेन...
नव इंची के ईंट कs सीढ़ी बनाई के
निकसी पचइंचिया
अंधियार कुईंयाँ से
एक दिन
बजाई गिटार
खिल उठी फूल
तितलियन कs आई बाढ़
नाची मनवाँ
हुई जाई
सगरो अजोर।
हा हा हा हा...
चुप रे लम्बू !
देख !
अंखिया भर आई हमार।
पगलऊ पंडित !
ना बूझेलन केतना गहीर बा
ई कुआँ...!
....................................................................................
हिंदी अनुवाद । उन पाठकों के लिए जो भोजपुरी बिलकुल ही नहीं समझ पा रहे। मुझे नहीं मालूम कि मेरा प्रयास कहाँ तक सफल है लेकिन मुझे लगा कि अनुवाद आवश्यक है उन पाठकों के लिए जिन्होने भाषा के कारण इसे बिलकुल ही समझने से इंकार कर दिया। मेरा मानना है कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है। दर्द जैसे भी हो महसूस किया जाना चाहिए।
पचइंचिया
क्यों रे पचइंचिया !
नहाये ?
ना..
खाना खाये ?
ना..
सोते ही रहोगे ?
ना...
खेलोगे ?
हाँ…
कौन उतारेगा तुम्हें यहाँ से ?
देखो !
तुम्हारा पिता तो वो... ऊपर बोझा ढो रहा है !
तुम कब तक सोते रहोगे इस पाँच इंच के दिवार पर ?
कूदो !
नहीं कूदोगे ?
लो उतार देते हैं तुमको
शाबास !
हमको नहीं पहचानते ?
हम ठेकेदार हैं.....
तुम्हारे असली बाप रे साले !
लो, यह दोना लो
जाओ अपने सर पर रख कर बालू ले आओ
जैसे तुम्हारी माँ ले कर आ रही है !
हाँ...ऐसे ही....शाबास !
लो रोटी खा लो
फेंक दिये..?
हरामी !
रूको..!
पंडित की भाषा इतनी जल्दी समझ गये ?
क्यों लम्बू..!
क्या कह रहे थे पंडित जी कल ?
हाँ मालिक !
कह रहे थे.....
नौ इंच के ईटों की सीढ़ी बनाकर
निकलेगा पचइंचिया
अंधेरे कुएँ से
एक दिन
बजायेगा गिटार
खिल उठेंगे फूल
आएंगी ढेर सारी तितलियाँ
नाचेगा मन
हो जायेगा
चारों तरफ उजाला।
हा हा हा हा....
चुप रहो लम्बू !
देखो !
मेरी आँखें भर आईं।
पगला पंडित!
नहीं समझता
कितना गहरा है
यह कुआँ…!
...............................................
जबरदस्त!!!
ReplyDeleteपगलऊ पंडित !
ना बूझेलन
कितना गहीर बा
ई कुआँ...!
मार्मिक!!
एक छोटा सा कौतुहल है:
"तू कबले सुतले रहबे ई पाँच इंची के दिवार पे !"
दिवार ही होगा? बनारस में अधिक अपना देवाल/देवार/दिवाल लगता है (वैसे मेरा अनुभव बहुत कम है आपसे)|
केतनौ गहिर होय ,भूईं फोर होए तब पचइंचिया ?
ReplyDeleteकुआं जितना भी गहिर होय,गिटार एक-दिन जरूर बजी,उ पंडित काहे का पंडित,जो न जाने कितनी गहिर हौ कुआं.
ReplyDeleteदादा, भाषा की समस्या के चलते तोहार ई रचना हमार पल्ले ना पडी हो ।
ReplyDelete@अविनाश ..
ReplyDeleteआपने सही लिखा। धन्यवाद।
@अरविंद जी...
लाज़वाब कमेंट। भूईंफोर होय पचइंचिया।
@सुशील जी...
आपने इतना अच्छा लिखा..तोहार ई रचना हमार पल्ले ना पड़ी..फिर भाषा की समस्या नहीं लगती। अनुवाद देने का प्रयास करूंगा। जब आपके लिए समस्या है तो औरों के लिए और भी होगी । सबसे अच्छी बात तो यह है कि आपने मन की बात लिख दी।
@प्रेम बल्लभ पाण्डेय जी...
कुआं जितना भी गहिर होय,गिटार एक-दिन जरूर बजी..! यह हमारी आशा है...वह ठिकेदार कि निराशा है। काश कि वैसा ही हो जैसा आप सोचते हैं।
सगरो अजोर का आशावाद पसंद आया !
ReplyDeleteगाँव की मिटटी की महक लिए सुन्दर कविता
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद भोजपुरी में कुछ पढ़ा है
देवेन्द्र जी कविता पूरी तो नहीं समझ नहीं आई, पर जितनी भी आई अच्छी लगी.
ReplyDeleteजबरदस्त-रचना.
ReplyDeleteबहुते जोरदार लिखे हैं. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
दादा रे दादा ! आधी त उपरे से निकल गइल !
ReplyDeleteकुईआन के गहराई टी पनिया सुखला के बाड़े नs बुझा ला??
ReplyDeleteकविता पूरी तो नहीं समझ नहीं आई, पर हाँ जितनी भी आई अच्छी लगी.
ReplyDeletehttp://shiva12877.blogspot.com
दोनों ही भाषाएँ समझ आ गयी ... रचना का मर्म भी ... बहुत कमाल की रचना है ..
ReplyDeleteभाव और भाषा का सुंदर प्रभावी तालमेल.
ReplyDeleteपाँड़े जी! आज त करेजा छेद देनीं हS महराज! एकदम देखला के बाद फिलिम तिर्सूल के लम्बुआ के फोटो तिरा गईल आँखिन के सामने!
ReplyDeleteअपनी ही कविता का इतना सुन्दर अनुवाद करने का शुक्रिया। पहले आकर चला गया था। अभी फिर आया, इस आशा से कि किसी न किसी टिप्पणी ने अर्थ ज़रूर बताया होगा, पूरी कविता ही पढने को मिल जायेगी, इसकी आशा नहीं थी।
ReplyDeleteहिम्मत हारती मानवता को गहरे कुएँ भरने की शक्ति देने में ऐसे पागल पंडितों का भी बडा हाथ है, ईश्वर उनके सपने और कथन पूर्ण करे - तथास्तु!
देवेन्द्र जी , दोनों भाषा में इतना सटीक लिखना ..वाकई तारीफ़ के काबिल हैं आप ..सुन्दर रचना
ReplyDeleteबढ़िया रचना लगी,बधाई
ReplyDeleteनारी स्वतंत्रता के मायने
बहुत संवेदनशील ! वाह!
ReplyDeleteपंच इन्चिया कहाँ छोड़ी कुवां की गहराई , ऊका त ओही भावेलss |
ReplyDeleteअनुबाद में ऊ बात नैखे आयल !
रउरा, सुग्घर कविता ! आभार !