मैने जिस घर में आश्रय पाया उसे अपना समझ लिया
किराया कोई और देता, मजा मैं लेता
मैला मैं करता
रंग-रोगन कोई और कराता
चोट मैं पहुँचाता
मरहम कोई और लगाता
मुझे तो यह भी नहीं पता था कि मैं जिस मकान में रहता हूँ वह किराये का है !
अपने अहंकार में मस्त
मकड़जाल में व्यस्त
और अहंकारी और मूर्ख होता चला गया
धीरे-धीरे वे सभी इस दुनियाँ से चले गये जो अपने साथ मेरे भी मकान का किराया भरते थे
जो अपने साथ मेरे भी चोटों पर मरहम लगाते थे
अब मकान मालिक सीधे मुझसे किराया मांगने लगा
मैं ताकतवर हो चुका था
उसको किराया भी ऐसे देता जैसे मुझे अपने मकान पर रखना उसकी मजबूरी हो !
वह मेरी मूर्खता पर हंसता और मैं समझता कि मेरे कृत्य पर वह बड़ा प्रसन्न है !
उसका किराया तो बस
पेट भर भोजन
तन ढकने भर वस्त्र
इच्छा भर श्रम
और चैन की नींद थी
मैने अपनी मूढ़ता में उसके साथ खूब खिलवाड़ किया !
उसे खुश करने के लिए अच्छा से अच्छा भोजन कराया
अधिक से अधिक वस्त्र पहनाये
आवश्यकता से अधिक श्रम कराया
वह कहता- अब सोने दो
मैं कहता..
अरे यार !
अभी समय है, कुछ कमा लो !
मुझे पता ही नहीं चला
कब वह
धीर-धीरे
मुझसे ऊबता, खीझता चला जा रहा है।
पहला झटका तब लगा जब मुझे चश्मे की जरूरत महसूस हुई !
दूसरा झटका तब लगा जब मेरे बालों के लिए हेयर डाई की आवश्यकता महसूस हुई !
तीसरा झटका तब लगा जब अधिक पान चबाने से मेरे दो दांत उखड़ गये !
मैं चीखता...
ठीक से रहो !
क्या गड़बड़ से करते हो ?
किराया तो आवश्यकता से अधिक देता हूँ !
वह ठहाके लगाता...
मूर्ख !
मैने कब आवश्यकता से अधिक मांगा था ?
मैने कब कहा था कि दिन भर पान चबाओ ?
मैने कब कहा कि मुझे घुमाना छोड़, ईंट-गारे के एक कमरे में बंद कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे झील, पहाड़, नदी और झरनों से वंचित कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे ऊषा की लाली और संध्या की सुनहरी किरणों से दूर कर दो ?
मैने कब कहा था मूर्ख !
इतनी चिंता करो कि मुझे सुलाने के लिए तुम्हें नींद की गोली खानी पड़े ?
अब तो तुम किसी लायक नहीं रहे !
साइकिल में घुमाना तो दूर अधिक देर पैदल भी नहीं चल सकते !
तुमने मेरे घर को बर्बाद कर के रख दिया है !
मैं तुम्हें घर से नहीं निकालता मगर जानता हूँ कि अधिक दिन तक नहीं रह पाओगे यहाँ।
तुमने अपनी लालच में
मेरी आदतें
मेरी आवश्यकताएँ
सब बदल दी हैं
शुक्र है
तुमने मुझे
मकान मालिक तो समझा !
मगर अब बहुत देर हो चुकी है
मैं चाहकर भी
अधिक दिनों तक तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।
......................................
वाकई हम लोग बहुत लापरवाह हैं ...कल से सुबह वाक् पर जाना है पाण्डेय जी ! समय से उठ जाइएगा ! गुड नाईट !!
ReplyDeleteओह कैसी दुखती राग पर उंगली रख दी -मगर वो आपका सुबह का सैर सपाटा याद हो आया !
ReplyDeleteशुक्र है
ReplyDeleteतुमने मुझे
मकान मालिक तो समझा !
ek kadwa sach.....
jai baba banaras....
बहुत अछ्छि,प्रेरणादायी रचना.
ReplyDeleteवाह, सुन्दर वर्णन।
ReplyDeleteध्यान देना पड़ेगा अब!!!
ReplyDeleteभई हम तो अपने मकान मै ही रहते है. पर बच्चे दिवालो पर अपनी हुनर का प्रदर्शन करते है कहा भी न जाय और रहा भी न जाय वाली बात है.
ReplyDeleteआप ने साबधान कर दिया, कल से हम भी पुरा किराया देगे , धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत खूब..धीरे धीरे अंत तक व्यंग्य अपने शीर्ष पर पहुँचता हुआ..बढ़िया कविता..क्षमा चाहता हूँ बहुत दिन बाद आया पर अब आता रहूँगा प्रणाम
ReplyDeleteप्रस्तुति अच्छी लगी।मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteडर है न जाने कब बिना नोटिस निकाला जाये ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, पाण्डेय जी मजेदार रचना आभार
ReplyDeleteबहुत ही गम्भीर रचना।
ReplyDeleteबहुत जबरदस्त व्यंग. सच है देर होने से पहले ही सचेत हो जाएँ. बहुत सुंदर.
ReplyDeleteआपके इस लेख से उपरोक्त सभी टिप्पणीधारक सचेत हो गये से लग रहे हैं ।
ReplyDeleteटोपी पहनाने की कला...
सुशील बाकलीवाल...
ReplyDeleteहा..हा..हा... आप तो पढ़ते ही ज़वान हो गये!
बहुत खूब सुरती से की है आपने मानव -मन की एक -एक कमजोरियो को उजागर --पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ...
ReplyDeleteसामाजिक सरोकारों का अच्छा विश्लेण किया है आपने...
ReplyDeleteकिसी का कहना है कि --अपने शरीर के साथ २० साल तक बदतमीज़ी करोगे तो हर्ज़ाना देना पड़ेगा ।
ReplyDeleteइतना समय तो काफी है संभलने के लिए ।
अंदाज़ अच्छा है ।
shareer aatma aur ishwar ke sambandho se juda hua achha aatma vivechan hai. is tathya ko samajh to jaate hain... par ispe chalna sambhav nahi ho pata... chala kaise jae, yahi to vastavik samasya hai.
ReplyDeleteमूर्ख !
ReplyDeleteमैने कब आवश्यकता से अधिक मांगा था ?
मैने कब कहा था कि दिन भर पान चबाओ ?
मैने कब कहा कि मुझे घुमाना छोड़, ईंट-गारे के एक कमरे में बंद कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे झील, पहाड़, नदी और झरनों से वंचित कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे ऊषा की लाली और संध्या की सुनहरी किरणों से दूर कर दो ?
मैने कब कहा था मूर्ख !
इतनी चिंता करो कि मुझे सुलाने के लिए तुम्हें नींद की गोली खानी पड़े ?
क्या बात है !बिल्कुल सच्ची बात कही आप ने,, आज थोड़ी जागरूकता तो आई है लेकिन फिर भी हम लापरवाही करते हैं अपने शरीर और मन के प्रति
बहुत बढ़िया !
शुक्र है
ReplyDeleteतुमने मुझे
मकान मालिक तो समझा !
मगर अब बहुत देर हो चुकी है
मैं चाहकर भी
अधिक दिनों तक तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।
बहुत सार्थक और प्रेरक आलेख..सचाई को बहुत ही सुन्दरता से व्यक्त किया है..बहुत सुन्दर
अभी भी देर कहा हुई है पाण्डेय जी , जब जागो तब सबेरा . बी. एच यू का प्रांगण या डी एल डब्लू का मैदान .दुनो जगह बिना किराये का उपलब्ध है सुबह सुबह मकान को टहलाने के लिए .
ReplyDeleteबहुत सार्थक और प्रेरक आलेख|धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत अच्छी और प्रेरणादायक प्रस्तुति...
ReplyDeleteअब कभी आलस्य ने घेरा भी तो आपकी रचना याद आ जाएगी... :)
seriously funny:)
ReplyDeleteकविता का यह अंश भावों से भरा हुआ है..... बहुत अच्छी रचना. शुक्र है
ReplyDeleteतुमने मुझे
मकान मालिक तो समझा !
मगर अब बहुत देर हो चुकी है
मैं चाहकर भी
अधिक दिनों तक तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।
bahut gambheer bat halke fulke dhang se kah di....shukra hai tumne mujhe makan malik to samjha....sunder...
ReplyDelete.
ReplyDeleteAwesome !..You made me speechless !
.
शुक्र है
ReplyDeleteतुमने मुझे
मकान मालिक तो समझा !
बहुत ही सार्थक प्रस्तुति ।
शुक्र है
ReplyDeleteतुमने मुझे
मकान मालिक तो समझा !
बिल्कुल सच कहा....
रोचक रूप में प्रस्तुत रचना...अच्छी लगी..बधाई.
ReplyDeleteनि:शब्द करते गहन विचार .......
ReplyDeleteहम भी सावधान हो गये। शुभकामनायें।
ReplyDeleteवाह देवेन्द्र जी...
ReplyDeleteअब बहुत देर हो चुकी है
मैं चाहकर भी
अधिक दिनों तक तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।
यही होता है अक्सर... सुन्दर भाव
देवेन्द्र जी आपने मेरी कविता में एक टिप्पड़ी की है
मई उसका क्या मतलब समझूँ?
देव बाबू,
ReplyDeleteहैट्स ऑफ.......इस पोस्ट के लिए.......हर बात बिलकुल सही है और फिर आपके अपने अलग अंदाज़ में.....शानदार |
वाह क्या बात है देवेन्द्र जी .... इंद्रियों की माया है ये ... बहुत देर से समझ आता है इंसान को ...
ReplyDelete@अविनाश मिश्र..
ReplyDeleteमई नहीं भई, मैने तो कमेंट किया ही नहीं है। जब कमेंट का मूड नहीं बनता तो ... लिख कर चला जाता हूँ। इसका मतलब मैने पोस्ट पढ़ी लेकिन कमेंट करना नहीं आया।
इधर काफी दिनों से अपनी भी मकान मालिक से पटरी नहीं बैठ रही है :)
ReplyDeletevaah bahut badhiya sach me ...........
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeleteshuru me to baat kuchh alag si lagi lekin ant tak tak pahunchte -pahunchte saara majra samajh paai .
bahut bahut behad hi shandaar tareeke se aapne ek prerak kavita prastut ki hai.idhar main bhi apne makan malik se gat char -paanch maheene se pare shan hun isi liye aapke blog tak nahi pahunch paai thi ab thoda sulah naama ho raha hai .par abhi bhi waqt lagega .
kripya tippni dene me vilamb ho jaaye to mamla samajh jaaiyega
aapki xhma prarthini hun
ek baar punah itni badhiya post ke liye
badhai
poonam
वह ठहाके लगाता...
ReplyDeleteमूर्ख !
मैने कब आवश्यकता से अधिक मांगा था ?
मैने कब कहा था कि दिन भर पान चबाओ ?
मैने कब कहा कि मुझे घुमाना छोड़, ईंट-गारे के एक कमरे में बंद कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे झील, पहाड़, नदी और झरनों से वंचित कर दो ?
मैने कब कहा था कि मुझे ऊषा की लाली और संध्या की सुनहरी किरणों से दूर कर दो ?
मैने कब कहा था मूर्ख !
इतनी चिंता करो कि मुझे सुलाने के लिए तुम्हें नींद की गोली खानी पड़े ?
kuch kahne se iski sashaktata khatm ho jayegi
बहुत बढिया.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर।
ReplyDeleteबधाई हो।
मार्कण्ड दवे।
मूरख मैली कीनी चदरिया ...
ReplyDeleteअरे वाह! ये तो अटेंशन कविता हो गयी।
ReplyDeleteअब जवान मेहनत करेगा। :)