गंगा दशहरा पर विशेष........
जून, 2111 की शाम । वाराणसी के गंगा रोड के किनारे बीयर बार की दुकान पर बैठे पाँच युवा मित्र। एक-एक बोतल पी लेने के बाद आपस में चहकते हुए.........
तुमको पता है ? ये जो सामने 40 फुट चौड़ी गंगा रोड है न ! वहां आज से 100 साल पहले तक गंगा नदी बहती थी !
हाँ, हाँ पता है। आज भी बहती है। सड़क के नीचे नाले के रूप में।
सच्ची ! आज भी बहती है ? पहले नदी बहती थी तो उस समय पानी बीयर से सस्ता मिलता होगा !
बीयर से सस्ता ! अरे यार, बिलकुल मुफ्त मिलता था। चाहे जितना नहाओ, चाहे जितना निचोड़ो। और तो और मेरे बाबा कहते थे कि उस जमाने में यहाँ, जहाँ हम लोग बैठ कर बीयर पी रहे हैं, गंगा आरती हुआ करती थी।
ठीक कह रहे हो। मेरे बाबा कहते हैं कि यहां से वहाँ तक इस किनारे जो बड़े-बड़े होटल बने हैं न, लम्बे-चौड़े घाट हुआ करते थे और नदी में जाने के लिए घाट किनारे पक्की सीढ़ियाँ बनी थीं।
तब तो नावें भी चलती होगी नदी में ? गंगा रोड के उस किनारे जो लम्बा ब्रिज है वो दूसरा किनारा रहा होगा क्यों ?
और नहीं तो क्या दूर-दूर तक रेतीला मैदान हुआ करता था, जहाँ लोग नैया लेकर निपटने जाते थे और लौटते वक्त नाव में बैठ कर भांग बूटी छानते थे।
भांग-बूटी ? बीयर नहीं पीते थे !
चुप स्साले ! तब लोग गंगा नदी को माँ की तरह पूजते थे। नैया में बैठकर कोई बीयर पी सकता था भला ?
उहं ! बड़े आए माँ की तरह मानने वाले। क्या तुम यह कहना चाहते हो कि माँ मर गई और हमारे पूर्वज देखते रह गये ? कुछ नहीं किया ?
हमने इतिहास की किताब में पढ़ा है। राजा भगीरथ गंगा को धरती पर लाये थे।
यह नहीं पढ़ा कि हमारे दादाओं, परदादाओं ने पहले नदी में इतना मल-मूत्र बहाया कि वो गंदी नाली बन गई और बाद में गंदगी छुपाने के लिए लोक हित में उस पर चौड़ी सड़क बना दी !
बड़े शातिर अपराधी थे हमारे पुर्वज। माँ को मार कर अच्छे से दफन कर दिये।
अरे यार ! गंदी नाली को रखकर भी क्या करते ? अब तो ठीक है न। नाली नीचे, ऊपर सड़क। विज्ञान का चमत्कार है।
विज्ञान का चमत्कार ! इतना ही चमत्कारी है विज्ञान तो क्यों नहीं गंगा की तरह एक नदी निकाल देता ? बात करते हो ! पानी का बिल तुम्हीं देना मेरे पास पैसा नहीं है । बाबूजी से मुश्किल से दो हजार मांग कर लाया थो वो भी खतम हो गया। सौ रूपया गिलास पानी, वो भी खारा !
जानते हो ! मैने पढ़ा है कि सौ, दो सौ साल पहले गंगा नदी का पानी अमृत हुआ करता था। जो इसमें नहाता था उसको कोई रोग नहीं होता था। तब लोग नदी के पानी को गंगाजल कहते थे। पंडित जी, गंगा स्नान के बाद कमंडल या तांबे-पीतल के गगरे में भरकर ठाकुर जी को नहलाने के लिए या पूजा-आचमन के लिए ले जाते थे। सुना है दूर-दूर से तीर्थ यात्री आते और गंगाजल को बड़ी श्रद्धा से प्लास्टिक के बोतल में रख कर ले जाते।
हा...हा...हा...दूर के यात्री ! प्लास्टिक के बोतल में गंगाजल घर ले जाते थे ! घर ले जाकर सड़ा पानी पीते और मर जाते थे । क्या बकवास ढील रहे हो ! एक बोतल बीयर ही फुल चढ़ गई क्या ?
पागल हो ! जब कुछ पता न हो तो दूसरे की बात को ध्यान से सुननी चाहिए। तुम्हे जानकर आश्चर्य होगा कि गंगाजल कभी सड़ता ही नहीं था। उसमें कभी कीड़े नहीं पड़ते थे।
क्या बात करते हो ! गंगाजल में कभी कीड़े नहीं पड़ते थे ? इसी पानी को घर ले जाओ तो फ्रेशर से फ्रेश किये बिना दूसरे दिन पीने लायक नहीं रहता और तुम कह रहे हो कि गंगाजल में कभी कीड़ा नहीं पड़ता था !
हाँ मैं ठीक कह रहा हूँ। गंगा में पहाड़ों से निकलने वाली जड़ी-बूटियाँ इतनी प्रचुर मात्रा में घुल जाती थीं कि उसका पानी कभी सड़ता ही नहीं था। माँ के जाने के बाद यह धरती अनाथ हो गई है।
इससे भी दुःख की बात तो यह है कि हम अपन संस्कृति को इतनी जल्दी भूल चुके हैं !
ठीक कह रहे हो। हमारी सरकारों ने भी संस्कृति को मिटाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। तुम्हें पता है एक समय था जब वाराणसी में तीन-तीन नदियाँ बहती थीं। वरूणा, अस्सी और गंगा।
हाँ मैने सुना है। बनारस का नाम वाराणसी इसीलिए पड़ा कि यह वरूणा और अस्सी नदी के बीच बसा था। दायें बायें अस्सी-वरूणा और सामने गंगा नदी।
कल्पना करो…. तब यह कितना रमणीक स्थल रहा होगा !
पहले अस्सी नदी के ऊपर लोगों ने अपने घर बनाये फिर वरूणा नदी को पाट कर लिंक रोड निकाल दिया। गंगा नदी तो तुम्हारे सामने है ही....गंगा रोड।
इस सड़क का नाम क्यों गंगा रोड रख दिया ?
हा हा हा...हमारी सरकार चाहती है कि जब लोग यहाँ बैठें तो बीयर पी कर थोड़ी देर इस नाम पर सोंचे और अपनी संस्कृति के विषय में आपस में चर्चा करें।
हाँ। सरकारें, संस्कृति की रक्षा ऐसे ही किया करती हैं।
............................
(चित्र गूगल से साभार)
जून, 2111 की शाम । वाराणसी के गंगा रोड के किनारे बीयर बार की दुकान पर बैठे पाँच युवा मित्र। एक-एक बोतल पी लेने के बाद आपस में चहकते हुए.........
तुमको पता है ? ये जो सामने 40 फुट चौड़ी गंगा रोड है न ! वहां आज से 100 साल पहले तक गंगा नदी बहती थी !
हाँ, हाँ पता है। आज भी बहती है। सड़क के नीचे नाले के रूप में।
सच्ची ! आज भी बहती है ? पहले नदी बहती थी तो उस समय पानी बीयर से सस्ता मिलता होगा !
बीयर से सस्ता ! अरे यार, बिलकुल मुफ्त मिलता था। चाहे जितना नहाओ, चाहे जितना निचोड़ो। और तो और मेरे बाबा कहते थे कि उस जमाने में यहाँ, जहाँ हम लोग बैठ कर बीयर पी रहे हैं, गंगा आरती हुआ करती थी।
ठीक कह रहे हो। मेरे बाबा कहते हैं कि यहां से वहाँ तक इस किनारे जो बड़े-बड़े होटल बने हैं न, लम्बे-चौड़े घाट हुआ करते थे और नदी में जाने के लिए घाट किनारे पक्की सीढ़ियाँ बनी थीं।
तब तो नावें भी चलती होगी नदी में ? गंगा रोड के उस किनारे जो लम्बा ब्रिज है वो दूसरा किनारा रहा होगा क्यों ?
और नहीं तो क्या दूर-दूर तक रेतीला मैदान हुआ करता था, जहाँ लोग नैया लेकर निपटने जाते थे और लौटते वक्त नाव में बैठ कर भांग बूटी छानते थे।
भांग-बूटी ? बीयर नहीं पीते थे !
चुप स्साले ! तब लोग गंगा नदी को माँ की तरह पूजते थे। नैया में बैठकर कोई बीयर पी सकता था भला ?
उहं ! बड़े आए माँ की तरह मानने वाले। क्या तुम यह कहना चाहते हो कि माँ मर गई और हमारे पूर्वज देखते रह गये ? कुछ नहीं किया ?
हमने इतिहास की किताब में पढ़ा है। राजा भगीरथ गंगा को धरती पर लाये थे।
यह नहीं पढ़ा कि हमारे दादाओं, परदादाओं ने पहले नदी में इतना मल-मूत्र बहाया कि वो गंदी नाली बन गई और बाद में गंदगी छुपाने के लिए लोक हित में उस पर चौड़ी सड़क बना दी !
बड़े शातिर अपराधी थे हमारे पुर्वज। माँ को मार कर अच्छे से दफन कर दिये।
अरे यार ! गंदी नाली को रखकर भी क्या करते ? अब तो ठीक है न। नाली नीचे, ऊपर सड़क। विज्ञान का चमत्कार है।
विज्ञान का चमत्कार ! इतना ही चमत्कारी है विज्ञान तो क्यों नहीं गंगा की तरह एक नदी निकाल देता ? बात करते हो ! पानी का बिल तुम्हीं देना मेरे पास पैसा नहीं है । बाबूजी से मुश्किल से दो हजार मांग कर लाया थो वो भी खतम हो गया। सौ रूपया गिलास पानी, वो भी खारा !
जानते हो ! मैने पढ़ा है कि सौ, दो सौ साल पहले गंगा नदी का पानी अमृत हुआ करता था। जो इसमें नहाता था उसको कोई रोग नहीं होता था। तब लोग नदी के पानी को गंगाजल कहते थे। पंडित जी, गंगा स्नान के बाद कमंडल या तांबे-पीतल के गगरे में भरकर ठाकुर जी को नहलाने के लिए या पूजा-आचमन के लिए ले जाते थे। सुना है दूर-दूर से तीर्थ यात्री आते और गंगाजल को बड़ी श्रद्धा से प्लास्टिक के बोतल में रख कर ले जाते।
हा...हा...हा...दूर के यात्री ! प्लास्टिक के बोतल में गंगाजल घर ले जाते थे ! घर ले जाकर सड़ा पानी पीते और मर जाते थे । क्या बकवास ढील रहे हो ! एक बोतल बीयर ही फुल चढ़ गई क्या ?
पागल हो ! जब कुछ पता न हो तो दूसरे की बात को ध्यान से सुननी चाहिए। तुम्हे जानकर आश्चर्य होगा कि गंगाजल कभी सड़ता ही नहीं था। उसमें कभी कीड़े नहीं पड़ते थे।
क्या बात करते हो ! गंगाजल में कभी कीड़े नहीं पड़ते थे ? इसी पानी को घर ले जाओ तो फ्रेशर से फ्रेश किये बिना दूसरे दिन पीने लायक नहीं रहता और तुम कह रहे हो कि गंगाजल में कभी कीड़ा नहीं पड़ता था !
हाँ मैं ठीक कह रहा हूँ। गंगा में पहाड़ों से निकलने वाली जड़ी-बूटियाँ इतनी प्रचुर मात्रा में घुल जाती थीं कि उसका पानी कभी सड़ता ही नहीं था। माँ के जाने के बाद यह धरती अनाथ हो गई है।
इससे भी दुःख की बात तो यह है कि हम अपन संस्कृति को इतनी जल्दी भूल चुके हैं !
ठीक कह रहे हो। हमारी सरकारों ने भी संस्कृति को मिटाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। तुम्हें पता है एक समय था जब वाराणसी में तीन-तीन नदियाँ बहती थीं। वरूणा, अस्सी और गंगा।
हाँ मैने सुना है। बनारस का नाम वाराणसी इसीलिए पड़ा कि यह वरूणा और अस्सी नदी के बीच बसा था। दायें बायें अस्सी-वरूणा और सामने गंगा नदी।
कल्पना करो…. तब यह कितना रमणीक स्थल रहा होगा !
पहले अस्सी नदी के ऊपर लोगों ने अपने घर बनाये फिर वरूणा नदी को पाट कर लिंक रोड निकाल दिया। गंगा नदी तो तुम्हारे सामने है ही....गंगा रोड।
इस सड़क का नाम क्यों गंगा रोड रख दिया ?
हा हा हा...हमारी सरकार चाहती है कि जब लोग यहाँ बैठें तो बीयर पी कर थोड़ी देर इस नाम पर सोंचे और अपनी संस्कृति के विषय में आपस में चर्चा करें।
हाँ। सरकारें, संस्कृति की रक्षा ऐसे ही किया करती हैं।
............................
(चित्र गूगल से साभार)
आत्मा तक को झकझोरता हुआ सटीक व्यंग्य है।
ReplyDeleteपानी होता था, और होती थीं सोंइस ...
ReplyDeleteसोंइस होने की गवाही
क्या सचमुच वाराणसी नाम वरुणा और अस्सी नदियों पर पड़ा था? पर यह सच है कि लालच में मानव नदियों, पशु, पक्षी, प्रकृति, कुछ नहीं छोड़ रहा. वाराणसी में गँगा तो अब भी बहती है लेकिन कितने शहर हैं जहाँ नदियाँ, झील और सागर आज भवनों की नींव में छुपे हैं. बीस पच्चीस साल पहले की बँगलौर की झीलें, वे वापस नहीं आ सकतीं.
ReplyDeleteगंगा विमर्श स्वाभाविक है।
ReplyDeleteलोगों के पास टाइम नहीं है पर्यावरण की चिंता करें....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
सटीक लेख ..व्यंग शैली में कटु सत्य कह दिया है
ReplyDeleteबीयर के नशे में ही सही ........एक सार्थक चर्चा ......सटीक व्यंग
ReplyDeleteइस महत्वपूर्ण पोस्ट कोहमारे साथ साझा करने का शुक्रिया।
ReplyDelete---------
बाबूजी, न लो इतने मज़े...
चलते-चलते बात कहे वह खरी-खरी।
..हमारी सरकार चाहती है कि है जब लोग यहाँ बैठें तो बीयर पी कर थोड़ी देर इस नाम पर सोंचे और अपनी संस्कृति के विषय में आपस में चर्चा करें।
ReplyDeleteहाँ। सरकारें, संस्कृति की रक्षा ऐसे ही किया करती हैं।
... vyangya zaruri hai
jai ganga maiya !
ReplyDeletevery serious and intense post... though sarcastic but a good one.
ReplyDeleteआज के लिए यह व्यंग्य/सत्य मुझे सटीक सार्थक लगता है...पर 2111 ??????
ReplyDeleteबहुत भयावह स्थिति देखती हूँ मैं...मुझे नहीं लगता कि लोग इस तरह से इस विषय पर सोचेंगे या बात करेंगे तब...
हिन्दी भाषी क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों के क्षत्रों से इतर तनिक किसी बड़े ब्रांडेड अंगरेजी स्कूल के बच्चे से संस्कृत विषय पर बात कर के या उस विषय पर सोचने कहकर देखिये...
जवाब मिलेगा "बुल शीट "... यह भी कोई भाषा है,इसकी भी कोई उपयोगिता है ????
जैसे संस्कृत विलुप्ति की कागार पर है,हिन्दी मुझे नहीं लगता कि सौ साल बाद भारत के बोलचाल की भाषा रहेगी...इसलि तरह गंगा या इसकी उपयोगिता का प्रश्न एकदम गौण हो जायेगा..
गंगा का जल अमृत था...इस बात पर लोग हँसेंगे कि उनके पूर्वज कैसी दाकियानूसी विचारधारा रखते थे...
२१११ का भावी चित्र मुझे घोर हृदयविदारक लगता है...
आपके इस चिंतन परक अतिसुन्दर पोस्ट के लिए आपका साधुवाद...
ईश्वर से प्रार्थना है कि वे भारतवासियों को सद्बुद्धि दें...अपने संस्कृति भाषा और प्राकृतिक संसाधनों की कीमत समझने का सामर्थ्य दें ,इन सबके संरक्षण को प्रेरित करें..
आपकी ये पोस्ट लोगों के हृदयों को माथे और जागरूक करे,यही कामना है...
वैसे वरुणा और अस्सी नदी के बारे में मुझे स्वयं पहली बार ज्ञात हुआ...
ReplyDeleteआभारी हूँ आपकी...
आनंद भी आया पढकर और गंभीर भी बना दिया आपकी इस कल्पना ने.कहीं ये भविष्यवाणी न हो .मगर ये अछ्छा है कि तबतक ज़िंदा न रहेंगे और वो दुर्दिन देखना नहीं पडेगा.
ReplyDelete२१११ क्यों , २०११ में क्या कम है ? हमने तो १५ साल पहले भी हृषिकेश में गंगा किनारे कूड़े के ढेर देखे थे । तब से वहां जाने का कभी मन नहीं किया ।
ReplyDeleteगंगा बचाओ , सिर्फ नारा बनकर ही रह गया है ।
वीरभद्र जी से मिलने का मौका मिला था . उमीद है गंगा को बचाने का उनका भागीरथ प्रयास सफल होगा.
ReplyDeletenahi nahui..yah haal hone me itni der nahi lagegi.....
ReplyDeleteएकदम सटीक व्यंग। शुभ. का.
ReplyDeletevery true and touching...
ReplyDeleteसपाट व्यंग है, बस हम चर्चा ही कर सकते हैं।
ReplyDeleteवाह..क्या खूब ...कटाक्ष किया है...
ReplyDelete"हाँ। सरकारें, संस्कृति की रक्षा ऐसे ही किया करती हैं।"
ReplyDeleteछील कर रख दिया है देवेन्द्र जी।
बहुत सटीक व्यंग....
ReplyDelete2111!!
ReplyDeleteकहते बनता तो नहीं है, लेकिन क्या इतने दिन टिकेगी गँगा?
मानस को झकझोरने में सफ़ल रहा आपका आलेख ....
ReplyDeleteदेवेन्द्र भाई!
ReplyDeleteमेरा प्रोफाइल एक बार पढकर देखें (पढ़ रखा हो तो दोबारा) और तब आप समझ सकते हैं इस रचना ने कहाँ पर चोट की है..
आप २१११ की बात करते हैं, पटना में तो २०११ में ही यह दृश्य देखने को मिल रहा है..
कहाँ से खोज लाये यह अनमोल चित्र ..
ReplyDeleteकब है गंगा दशहरा -बीत गया क्या ?
संवादों में अच्छी गंगा महात्म्य गाथा !
कटाक्ष के साथ साथ जानकारियों का ये संगम अद्भुत है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !!!!
गंगा तो अब चर्चाओं से भी परे होती जा रही है
ReplyDeleteबेहतरीन चित्र ...
शैली लाजवाब
@Sunil Deepak....
ReplyDeleteआपको यहां देखकर खुशी हुई। यह प्राचीन काल से चली आ रही जन श्रुति है कि वाराणसी का नाम वारणा(वरूणा) और असी(अस्सी)के संयोग(संन्धि) से पड़ा है। वरूणा ओर असी नदी के बीच( बाद में असी नदी का नाम अस्सी हो गया)का क्षेत्र ही काशी के अंतर्गत आता है। सारनाथ या लंका नहीं)
यह भी सुना है कि....
का कबिरा काशी बसे जब घर औरंगाबाद...
मूल काशी क्षेत्र वरूण और असी के बीच घाट किनारे का ही है, ऐसा माना जाता था।
अंग्रेजों के शासन काल में बेनारस (benares) पुनः बाद में बनारस प्रसिद्ध हुआ। बनारस से क्षेत्र नहीं अपितु यहां की मस्ती-मौज-रस का बोध होता है। मूल शब्द वाराणसी के अर्थ से बिलकुल अलग-थलग। रस शब्द के अनेक अर्थ हैं...मौज-मस्ती-खुशी के साथ यहां के पान, भांग-ठंडई, लंगड़ा आम से बनारस नाम चरितार्थ होता है।
बौद्ध ग्रथों की जातक कथाओं में वाराणसी का उल्लेख मिलता है।
@रंजना जी....
ReplyDeleteआपके नियमित प्रोत्साहन से अभिभूत हूँ। आपके या अधिकांश ब्लॉगरों के ब्लॉग में मैं नहीं जा पाता लेकिन यहां उनको देखकर संकोच भी होता है कि मैं उन्हें नियमित नहीं पढ़ पाता लेकिन वे लगातार मुझे उचकाते रहते हैं।
भाषा के संबन्ध में आपकी चिंता वाजिब है लेकिन निश्चिंत रहें....आप सबके रहते हिंदी को कोई मिटा नहीं सकता। अंतर्जाल में हिंदी सुरक्षित है। हां, तालाबों , झीलों का अस्तित्व मिट चुका है...नदियाँ संकट में हैं।
कुछ लेख ऐसे होते हैं जिनमें मन होता है कि काश सभी पढ़ लेते तो कितना अच्छा होता!
ReplyDeleteइस दृष्टि से आप सभी का ह्रदय से आभारी हूँ कि आपने यहां और मेल से भी मुझे प्रोत्साहित किया।
@ashish ji.
ReplyDeleteपं वीरभद्र मिश्र जी से मिले और हमसे नहीं...यह दुखद है।
Avinash ji...
गंगा नहीं टिकेंगी तो यह धरती भी नष्ट हो जायेगी। यह आलेख उसी चिंता की उपज है।
@सलिल जी...
मैने पढ़ा है आपका प्रोफाइल। हम भी उसी माँ के नालायक पुत्र हैं ।
@अरविंद जी...
अनमोल चित्र गूगल की देन है। जिस कलाकार ने इसे बनाया उसको शत-शत नमन। 11 जून को है गंगा दशहरा...
ha...ha..ha.....mazaa aa gaya....saarthak+sateek chhichhaledar....jai ho...sadhuwaad sambhalen...
ReplyDeleteदेव बाबू......इतना सटीक व्यंग्य, इतनी गहन अभिव्यक्ति.....२१११ की पीढ़ी की बातें........बहुत ही सुन्दर सार्थक और झकझोर देने वाले सच को उजागर करती पोस्ट है आपकी.......हाँ वरुण और अस्सी नदी के अस्तित्व के बारे में मुझे पता नहीं था....आभार है आपका इस जानकारी के लिए |
ReplyDeleteझकझोरता सटीक व्यंग्य. मज़ा आ गया पढकर. बधाई.
ReplyDeleteअच्छा शिल्प बुना है बीयर गोष्ठी की मार्फ़त .वाराणसी नामकरण वरुणा और अस्सी के सन्दर्भ अच्छे लगे .तुलसी दास के शरीर छोड़ने के प्रसंग में भी कुछ पंक्तियाँ हैं जो अस्सी घाट का हवाला देतीं हैं -
ReplyDeleteश्रावण शुक्ला सप्तमी ,अस्सी गंग के तीर
तुलसी तज्यो शरीर .इसी के आस पास रहींहोंगी ये पंक्तियाँ जब इंटर मिदीयेट साइंस में पढ़ते थे तब कवि परिचय (जीवनी में )ऐसा ही कुछ पढ़ा बांचा था .रही बात सफाई अभियानों की सरकारी संलग्नता की सरकारें तो होती ही हैं मूलतया बे -ईमान .सवाल हमारी जीवन शैली का भी है .हम अपनी नदी को कितना प्यार करतें हैं ।
गंगा जल नहीं सड़ता था तो इसलिए ,गंगोत्री की वेगवती धारा घुलित ऑक्सीजन लिए आती थी गौ -मुख से .अब तो वहीँ से प्रदूषण शुरू हो जाता है ।हरिद्वार तक आते आते ई -कोली का डेरा होता है .
सवाल असल वही है हम अपनी नदी को कितना प्यार करतें हैं .क्या है हमारी जीवन शैली कर्म -कांडी व्यवहार नदी के साथ शहर की सारी उबटन ,त्योहारों का मूर्ती विसर्जन ,शव और अश्थी विसर्जन ,जाते जाते तेरह मन लकड़ी फुंकवा जाना फिर राख नदी के हवाले कर आना .यही जीवन शैली और व्यवहार है हमारा नदी के प्रति ।
ये मिशगन राज्य जहाँ हम अकसर चले आतें हैं .झीलों का राज्य है लेक मिशगन ही आगे चलके नियाग्रा फाल में तबदील होती है उसकी भव्यता को अमरीकी जीवन शैली ने बचाए रखा है .मजाल है कोई नदी में कुछ विसर्जित कर दे .झील को गंदा कर दे .क़ानून का डंडा है जिसने लोगों को नदी सापेक्ष बनाया हुआ है .नदी से प्यार करना भी सिखलाया है .झील को गोद बनाया है माँ जैसी सुरक्षित ,निरापद ।
अच्छे सवाल बुनने के लिए आपको बधाई .
आदरणीय Veerubhai...
ReplyDeleteसंवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ।।
....सही लिखा आपने। असल सवाल यही है कि हम नदी से कितना प्यार करते हैं। हर कीमत पर नदी नदी को बचाने का उपक्रम करना चाहिए। अपनी जीवन शैली को बदलना भी स्वीकार है। कानून का डंडा भी जरूरी है।
रोचक व्यंग..
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया व्यंग है,
ReplyDeleteसाभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
एकदम सटीक व्यंग शुभकामनायें....
ReplyDeleteसरकारें, संस्कृति की रक्षा ऐसे ही किया करती हैं।
ReplyDeletejai baba banaras....
माध्यम व्यंग का ही सही .... बहुत गंभीर विषय उठाया है .... आशा है देश वासी जागेंगे और अपनी पहचान बनाए रखेंगे ...
ReplyDeleteAapka blog dekha aaj hi ,sunder vyang ke liye danyavad aur ti[[ani ke liye bhi hardik aabhar/Meri trutiyon se yoon hi avgat karate rahenge to aapse bahut kuch seekh sakoonga.Asal me transliteration tool se dabdabana likh nahi saka koshish ke baad bhi/direct hindi typing aati nahi so kshama keejiyega.
ReplyDeletebahut sunder blog laga aapka aur ghadi to churaoonga jaroor ,bura n maniyega /sader
dr.bhoopendra
rewa
mp
बढ़िया व्यंग..आभार इस जानकारी के लिए...
ReplyDeleteShayad ye din bhee door nahee...Nigamanand to bechare pran taj gaye...
ReplyDelete