अलसुबह
घने कोहरे में
सड़क की दूसरी पटरी से आती
सिर्फ सलवार-सूट में घूम रही कोमलांगना को देख
मेरे सर पर बंधा मफलर
गले में
साँप की तरह
लहराने लगा !
वह ठंड को
अंगूठा दिखा रही थी
और मैं
आँखें फाड़
उँगलियाँ चबा रहा था।
................................
चुहल ही चुहल में ये पंक्तियाँ बन गईं। कल कमेंट बॉक्स बंद होने से कुछ साथी नाराज थे कि हमें भी चुहल का अवसर क्यों नहीं दिया ? आज खोले दे रहा हूँ। कर लीजिए जो कर सकते हैं..!
भाई,जब आप अंतरजाल में हो,सरे-आम हो,तो चुहल करने का अधिकार सीमित क्यों हो ?
ReplyDeleteमेरी भी यही शिकायत थी कि हमें क्यों नहीं चुहल करने दिया जा रहा ?
अब चुहलबाजी बाद में...!
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteसाँप लहरा कर हृदय पर लोटने की बात क्यों छिपा ली?
ReplyDeleteयह चुहल कहाँ...???
ReplyDeleteजैसे स्विस आल्प्स की बर्फीली वादियों में हिंदी फिल्म की हिरोइन --आधे कपड़ों में और हीरो पूरा ढका हुआ .
ReplyDeleteक्या खाका खींचा है भाई .
अच्छा किया कमेंट्स ऑप्शन खोल दिया . वर्ना ऐसा लग रहा था जैसे जल बिन मछली .
क्या बात है....
ReplyDeleteबहुत बढिया
ReplyDeleteलगता है उम्र की ढलान पे हैं आप और वो ... चढान पे ... क्या बात है देवेन्द्र जी ...
ReplyDeleteइसे कहते हैं जुडी का बुखार !
ReplyDeleteजुड़ी का या कुड़ी का ।
ReplyDeleteगरम आँसू और ठंडी आहें मन में क्या-क्या मौसम हैं
ReplyDeleteइस बगिया के भेद न खोलो, सैर करो खामोश रहो
(इब्ने इंशा)
क्या बात है त्यागी सर..! मस्त शेर।
ReplyDeleteअनुरागी बतियाँ, त्यागी कैसे बूझ गये?
पांडे जी!
ReplyDeleteसलवार सूट में भी आपने भांप लिया कि उसके अंग कोमल थे (कोमलान्गना) कमाल की नज़र पाई है..
उम्र मेरी जो रही हो पर सुबह को ताड़ कर
ReplyDeleteदेखता हूं उस बला को अपने दीदे फाड़ कर :)
यूं घना कोहरा मुझे कुछ भी नज़र आता नहीं
तौबा उसकी बेहिजाबी हुस्न छुप पाता नहीं :)
जिस्म मेरा बे-हरारत गर्म कपड़ों पे यकीन
वो गज़ब की खूबसूरत और कपड़े हैं महीन :)
सैर को निकला तो हूं पर सैर उसके जिस्म की
फ़िक्र-ए-सेहत जान लीजे है अलग ही किस्म की:)
टिप्पणीकारों को क्या जलते हैं तो जलते रहें
हम तो तापेंगे देविंदर हाथ वो मलते रहें :)
सलिल भैया, पढ़ लीजिए अली सा का कमेंट...
ReplyDeleteताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।
badhiya chuhul hai sach me.
ReplyDeleteदेवेन्द्र भाई!
ReplyDeleteजब बिना देखे उन्होंने ताड़ ली युवती हसीन,
यह भी कह डाला कि उसने कपडे पहने थे महीन.
एक्स-रे सी नज़रें पाईं हैं अली साहब ने वाह,
ताड़ ली एम्.पी.से लड़की, और बनारस में थी आह.
आप तो 'सो स्वीट' कहते रह गए थे देखकर,
वे कहें नमकीन है, नमकीन है ओ बेखबर!!
पांडे जी, अपना पहला कमेन्ट खारिज माना जाए और इसे दाखिल करें!!
वाह! ये हुई न बात।
ReplyDeleteअली साब जहाँ पहुँचते ,वहीँ बहार आ जाती है,
ReplyDeleteनदी उफनने लगती है,झील सूख-सी जाती है !
कपडे उनके महीन हैं,जान इधर जाती है,
वह बल खाके चलती है,ठण्ड सिकुड़ती जाती है !!
अली साब और चला बिहारी ब्लॉगर बनने को न्योछावर !
क्या कन्ट्रास्ट है!!
ReplyDeleteये शेर देवेन्द्र जी के लिए खास तौर पे :)
ReplyDeleteदेखता हूं जो उसे ,'बेचैन' नज़रे गाड़ के
दोस्तों ने छुपके मारा टिप्पणी की आड़ से :)
अली सा...कल को लोग ये न कहें..
ReplyDeleteमिर्जा को फाका मस्ती ने 'गालिब' बना दिया
अली को शौक-ए-ब्लॉगरी ने शायर' बना दिया।
देवेन्द्र भाई!
ReplyDeleteआज तो सचमुच ब्लॉग नाम सार्थक कर डाला आपने.. झेलिये भाई:
अब नहीं ताड़ेंगे लडकी,कनखियों की आड़ से,
ताड़ भी ली, तो कभी कविता नहीं लिखेंगे हम
लिख भी ली कविता,तो यारो ब्लॉग में देंगे नहीं
ब्लॉग में छापी भी तो टिप्पणी खुली होगी नहीं
हों अली सैयद,सलिल,संतोष, इनको झेलना
मेरे बस का है नहीं खतरों से ऐसे खेलना!
सलिल भैया...
ReplyDeleteकर रहा था चुहल छुप के, गिर रही थीं बिजलियाँ
खुल गई खिड़की अचानक, जल गईं सब बिजलियाँ
आप हैं इक नेक इंसां ताका कह के फंस गये
ReplyDeleteवर्ना खांटी लोग कितने बनके मफलर डंस गये :)
आपने रस्ते में ताका , कोई गुंजायश ना थी
नंगे उनके घर घुसे और फिर वहीं पर बस गये :)
आप घर की खिड़कियां खोले ,यही दरकार है
शर्म उनको आये जिनकी टिप्पणियां व्यापार हैं :)
चुहलबजी बंद कर ,अब काम पर लग जाइए ,
ReplyDeleteब्लॉगरी को छोड़कर ,ठण्ड को गर्माइये !
@ अली साब
ReplyDeleteआप भी खूब महफ़िल जमाये हैं,
लगता है एक ज़माने से खार खाए हैं !!
वाह! वाह! वाह! तुसी ग्रेट! अली सा।
ReplyDeleteजब चुहलबाजी में बनते शेर इतने मस्त हैं
लोग नाहक क्यों भला चिंतन में व्यस्त हैं।
मानसिक द्वन्द का अद्भुत चित्र खींचा है आपने......
ReplyDeleteठण्ड में यूँ मुस्कुराना मफलर के साथ .... वाह क्या विम्ब है
बहुत ही विचारोत्तेजक कविता....
जियो रजा बनारस........मजा आ गया कवियों की इस नोक झोक पर ... :)
ReplyDeletesundar shabd-chitra
ReplyDeleteये तो अच्छा था कि आप मफलर लपेटे थे
ReplyDeleteवरना आपको बुखार चढ जाता,..बढ़िया चुहल सुंदर पोस्ट,...
मेरे नए पोस्ट में पढ़े ..............
आज चली कुछ ऐसी बातें, बातों पर हो जाएँ बातें
ममता मयी हैं माँ की बातें, शिक्षा देती गुरु की बातें
अच्छी और बुरी कुछ बातें, है गंभीर बहुत सी बातें
कभी कभी भरमाती बातें, है इतिहास बनाती बातें
युगों युगों तक चलती बातें, कुछ होतीं हैं ऎसी बातें
कुहरा हो या बर्फबारी
ReplyDeleteचाँद को क्या फर्क पड़ता है
उन्हें तो बिजलियाँ गिराने से है मतलब
कपड़े कम हों या पूरे क्या फर्क पड़ता है.
यह तो गनीमत है
कि पांडे जी पूरे पहन के निकले
वरना किसी के ख़ाक होने से
किसी को क्या फर्क पड़ता है.
चाचू मुझे पसीना क्यों आ रहा है...
ReplyDeleteमजेदार..
ReplyDeleteप्रवीन पांडेजी की चुहल बहुत सटीक लगी.
ReplyDeleteयहाँ पहाड़ों की ठंड में भी कुछ स्कूली लडकियां जब केवल फ्रॉक पहन,स्लैक्स बिना स्कूल जाती हैं तो वो गरीबी के कारण होता है.
चुहल पर सुपर चुहल ....क्या बात है :)
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