भोर की कड़ाकी
ठंड में, घने कोहरे की मोटी चादर ओढ़े गहरी नींद सो रहे ‘पीपल’ की नींद, ‘नीम’ की सुगबुगाहट से अचकचा कर टूट गई। झुंझलाकर
बोला, “तुमसे लिपटे रहने का खामियाजा मुझे हमेशा भुगतना
पड़ता है ! इत्ती सुबह काहे छटपटा रहे हो ?” ‘नीम’ हंसा..”वो देखो..! वे दोपाये मेरी कुछ पतली टहनियाँ तोड़
ले गये। देर तक चबायेंगे। पता नहीं क्या मजा मिलता है इन्हें ! पीपल ने उन्हें ध्यान से देखा और बोला, “हम्म...ये
हमें भी बहुत तंग करते हैं। कल एक गंजा फिर आया था मेरी शाख में मिट्टी का घड़ा
बांधने । समझता है मैं घड़े से पानी पीता हूँ।” तब तक ‘आम’ ने जम्हाई ली...“लगता है
सुबह हो गई। तुम लोग इन दोपायों की छोटी मोटी हरकतों से ही झुंझला जाते हो
! ये तो रोज मेरी डालियों को काटकर ले जाते हैं। जलाकर आग पैदा करते
हैं फिर घेर कर गोल-गोल बैठ जाते हैं। इसमे उनको आनंद आता है।” उनकी बातें सुनकर, घने जंगली लताओं के आगोश में दुबके, पूरी तरह सूख चुके,
पत्र हीन कंकाल में बदल चुके एक बूढ़े वृक्ष की रूह भीतर तक कांप गई
! उसने लताओं से फुसफुसा कर कहा...“सुना तुमने..! तुम ही मेरे सहारे नहीं पल-बढ़ रहे हो। मैं भी
तुम्हारे सहारे जीवित हूँ। जब तक लिपटे हो तुम मुझसे, इन दोपायों की नज़रों से
दूर हूँ मैं। शाम को एक बुढ्ढा दोपाया, छोटे-छोटे बच्चों के साथ अक्सर यहां आता
है। मैने सहसूस किया है कि वह मुझे देख बहुत खुश होता है और बच्चों को अपने सीने
से लगा लेता है।”
नीचे, पेड़ों के
पत्तों से धरती पर टप टप टप टप अनवरत टपक रही ओस की बूंदों से निकलती स्वर लहरियों
में डूबी एक बेचैन आत्मा, इन वृक्षों की बातों से और भी बेचैन हो, धीरे से सरक
जाती है।
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वाह देवेन्द्र जी ! मूंह अँधेरे प्रकृति की गोद में जाकर पेड़ पौधों का वार्तालाप सुनना तो एक कवि हृदय मानुष का ही काम हो सकता है । बहुत खूबसूरती से पर्यावरण पर सार्थक सन्देश दिया है ।
ReplyDeleteयह रचना सबके बस की नहीं.....
ReplyDeleteशुभकामनायें देवेन्द्र भाई!
लोग कहते हैं कि पीपल के पेड़ से दोपायों को बड़ी मोहब्बत है .......मरने के बाद भी नहीं छोड़ते .....प्रेत बन कर फुनगी पर बैठे रहते हैं .....बेचारे पीपल की पत्तियाँ थर-थर कांपती रहती हैं दिन-रात. पाण्डेय जी ! कल सुबह पीपल से पूछ कर देखिएगा, यह बात सच्ची है क्या?
ReplyDeleteउस बेचैन आत्मा के लिए ज़रूर हमारी बेचैनी है जो दिन-रात अपने अस्तित्व के खो जाने से भयभीत है !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteआप के प्रकृति प्रेम को दर्शाती हुई रचना
सन्देश परक पोस्ट ..बहुत बढ़िया
ReplyDeleteप्रकृति का भी अपना राग है ..... कण कण में सुकूनदायी संगीत ,
ReplyDeleteहैरानी होती सुबह की सैर पर निकले लोगों के कानों में इअरप्लग्स लगे देखकर ..... :(
कौशलेन्द्र जी...
ReplyDeleteदोपायों को पीपल से बड़ी मोहब्बत है। घर के आस पास कहीं उगता दिख जाये तो घबड़ाकर मजदूर से कहते हैं..अरे, जरा इसको भी उखाड़ देना...! डरो नहींss कुछ नहीं होगा, बेकार की बातें हैं!!
मजे की बात यह कि पीपल भी जानता है दो पायों की मोहब्बत। जो वाकई मोहब्बत करते हैं उन्हें बुद्ध बनाया है उसने।
..वैसे यह बेचैनी पीपल से आगे की है। आप यहीं रूक गये!
पहली दो लाईनों से भरम हुआ कि यह अल्लसुबह रजाई में दुबके दोपायों की कुनमुनाहट है ..आगे पता चला कि अरे यह तो कोई बेचैन आत्मा है जो इत्ती ठन्ड में पता नहीं किस बेचैनी के चलते बहार निकल निसर्ग से नाता जोड़ रही है ... :)
ReplyDeleteदोपायों ने आतंक मचा रखा है, काश सारे हरे पत्ते बूढ़े वृक्ष को घेरे रहें, यूँ ही। और हम भी उनसे कुछ सीख लें...
ReplyDeleteपेड़ों और प्रकृति का दर्द जैसे आपको बेचैन करता है वैसे ही दूसरों को भी करे तो प्रकृति का संरक्षण स्वंम हो जायेगा.
ReplyDeletevrikshon kee bhasha , mann ka prawah- natmastak hun
ReplyDeleteखूबसूरत! :)
ReplyDeleteपांडे जी!
ReplyDeleteकभी कभी तो बहुत बकबक कर लेता हूँ मैं.. लेकिन कभी सिर्फ मौन..!!स्वीकारो, महानुभाव!!
बहुत सुन्दर,प्रकृति सरक्षणवादी रचना.
ReplyDeleteलगता है ये येक काल्पनिक रचना है,मगर यथार्थ भी हो सकता है.ओशो ने कहा है,कि जब कोई किसी पेड को काटने के विचार से कुल्हाड़ी उठाने लगता है,तो उस पेड को यह पता चल जाता है.मधुर संगीत का पौधों पर अछ्छा प्रभाव पडता है,उनकी वृद्धि अछ्छी होती है.
बेचैनी बेचैन कर गयी ..
ReplyDeleteक्षमा करें वृक्ष-बंधु... अपने दोपाया भाइयों की इन तमाम ओछी हरकतों के लिए!!
ReplyDeleteवाह बेजोड़ कल्पना है। बढिया चित्रण।
ReplyDeleteसुंदर व नन को छूती प्रस्तुति पांडेय जी
ReplyDeleteदेव बाबू आप वाकई कमाल हैं.......हैट्स ऑफ इस उत्कृष्ट पोस्ट के लिए|
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteपहला पैरा अंतिम लाइन की शुरुवात ...मैंने 'सहसूस' किया, को अब मैं ऐसा ही पढूंगा , वो क्या है कि यह शब्द भले ही आपने गलती से टायप किया हो पर इसके मायने बनते हैं ! महसूस करने से अलग सहअस्तित्व / सहवास / सहभागिता /समागम से जोड़कर देखा 'सहसूस' करना ! 'एक अनुभूति जो साहचर्य से उदभूत हो' ! देवेन्द्र जी अगर आपने इसे सायास लिखा है तो साधुवाद और अगर अनजाने में तो साधु साधु कि अचेतन में भी आप बेहतर उत्पाद दे गये !
ReplyDeleteबाकी कथा अत्यंत सन्देशपरक और बोधकारी है !एक्चुअली आपको अपना नाम 'बा-चैन आत्मा' रख लेना चाहिए जो बखुद शांत रहते हुए सोये हुओं को झंझोड देती है ,बेचैन कर देती है !
Bahut sundar aalekh!
ReplyDeleteअली सा...
ReplyDeleteआपने गलती बताई वह भी इस तरह
हमको अपनी गलतियाँ अच्छी लगीं।
मैं करूँ एहसास तो महसूस हो गया
सह करें एहसास तो सहसूस हो गया
क्या बतायें हम कि अनायास हो गया
आपने जो अर्थ दिया उसमें खो गया
महसूस के साथ जुड़ा शब्दकोष में
सहसूस की बातें मुझे अच्छी लगीं।
पेडों की गुफ्तगू के बहाने मनुष्य-जीवन की कड़वी सच्चाई उजागर हो गयी...
ReplyDeleteलघु मगर बहुत कुछ कहती रचना .
ReplyDeleteखूबसूरत
सामयिक और प्रासंगिक रचना.......बेहतरीन रचना का आभार.
ReplyDeleteसुन्दर सन्देश देती हुई उम्दा रचना लिखा है आपने! दिल को छू गई!
ReplyDeleteपहले भी कभी कहा था देवेन्द्र जी, ये बेचैनी एक संवेदनशील आत्मा की बेचैनी है जो सिर्फ़ अपने लिये या अपनों के लिये नहीं बल्कि दूसरों के लिये भी अनुभूति रखती है। बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट।
ReplyDeleteवाह! यह बोटानिकल बातचीत है या कविता?! लगता है बड़े मन से देखा है वृक्षों को!
ReplyDeleteबहुत पसंद आया ऐसा लिखना आपका!
ReplyDeleteबहुत!