ढाई बाई चार फुट
की चौकी
जिसके चारों तरफ
लगे हैं
हर कोनों पर उठे
लकड़ी के मुठ्ठों से जुड़ी
अलमुनियम के रॉड
की रेलिंग
एक बच्चे के
रात में सोते
समय
बिस्तर से गिरते
रहने की चिंता का परिणाम
सुरक्षित पलंग।
चौकी में रेलिंग
नहीं है
कट चुके हैं
लकड़ी के मुठ्ठे
बड़ा हो चुका है
बच्चा
अब नहीं सो सकता
चौकी पर
प्राचीन पलंग पर
बैठकर
अब वह
रोज सबेरे
पढ़ता है अखबार
रगड़ता है चंदन
(ताखे पर विरासत
में बैठे ठाकुर जी के लिए)
खाता है
दाल-भात
रात
देर से आने पर
वहीं ढकी मिल
जाती है उसे
रोटी-सब्जी भी।
जगते हैं भाग
घूरे के भी
सनमाइका जड़ा है
ढाई बाई चार फुट
की चौकी में !
जिसके इर्द
गिर्द
लोहे की चार
कुर्सियों पर बैठकर
दोस्तों के साथ
अब वह
शान से पी रहा
है
चाय
एक दिन
दफ्तर से लौटकर
देखता है
‘सदन
बढ़ई’ जोड़ रहा है
चार पैर
ढाई बाई चार फुट
की चौकी में
चौकी
अब नहीं रही
चौकी
बन चुकी है
डाइनिंग टेबुल !
उसके इर्द-गिर्द
रखी हैं
चार नई प्लॉस्टिक
की कुर्सियाँ
जिस पर बैठकर
वह और उसका परिवार
एक साथ कर सकते हैं भोजन
खुश हो
कहती है उसकी पत्नी...
“एक
कुर्सी और लाइये न !
ताकि साथ बैठ सके
छुटकी भी।“
डाइनिंग टेबुल
की जुड़ी टांगों पर
उभर आये रंग
खुद ही कहते हैं
अपनी
राम कहानी
अकेले में
जब कोई नहीं
होता कमरे में
बहुत ध्यान से
सुनता रहता है
वह
ढाई बाई चार फुट
की चौकी और
डाइनिंग टेबल के
बीच की
बातचीत
और....
ट्यूबलाइट की
रोशनी
नाक पर चढ़े
चश्मे को देखकर
समझती है
कि वह अभी
अखबार पढ़ रहा
है।
...................................................
एक अतिसम्वेदनशील
ReplyDeleteकवि ही कर सकता है
वार्तालाप
अपने मेज़ कुर्सी
और ढाई बाय चार
फ़ुट की चौकी से
बहुत बढ़िया |
ReplyDeleteढिआई फुट की चौकी के माध्यम से चिन्तन करने क अनुभव अच्छा लगा। बधाई।
ReplyDeleteआपको स्वस्थ देखकर हमें भी बहुत अच्छा लगा।
Deleteअत्यंत संवेदनशील रचना और सच का आइना भी.
ReplyDeleteअदभुद.............
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति...
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 23-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
उसका बढते जाना ,ज़रूरतों के साथ
ReplyDeleteपर,कुछ चीज़ें हैं जो नहीं बदलतीं!
...जो बचा सको तो बचा लो,अपना पीढा(पाटा)अपनी चौकी !
बचपन से बुढ़ापे तक का सफ़र एक ही जगह पूरा कर दिया देवेन्द्र जी ।
ReplyDeleteदेखा है जिंदगी को बहुत करीब से ।
..जितना देखो लगता है कुछ नहीं देखा। जैसे..
Deleteबांस पर चढ़ता
नन्हा कीड़ा
सहता निरंतर
गिरने की पीड़ा
चढ़ता जाता
जितना ऊपर
जानता जाता
धरती की विशालता
और अपनी
क्षुद्रता।
............
...आपके एक मिसरे ने छेड़ दिया डा0 साहब..! देखिए दूसरा ठीक है?
देखा है जिंदगी को बहुत करीब से
खाई है ठोकरें भी बहुत नसीब से।
बांस पर चढ़ता नन्हा कीड़ा
Deleteचढ़ता , फिर गिरता , फिर चढ़ता ।
इसी गिरने चढ़ने ने जिंदगी का फ़लसफ़ा सिखा दिया ।
:)
Deleteदराल साहब ,
Deleteइन दिनों पीठासीन अधिकारी देवेन्द्र पाण्डेय जी का कोई भरोसा नहीं कब क्या कह / लिख गुजरें , चौकी से लेकर टेबिल तक के सफर में लकड़ी उन्होंने अब तक सुरक्षित रखी है और अपने सभी मित्रों को बचपन से बुढापे तक पहुंचा कर ठहर भी गये हैं ! जिसने भी कविता पे आँख तरेरी उसके बुढ़ापे के बाद का हाल शुरू ... :)
और एक नमूना ये भी देखिये कि आपको पहला जबाब देते हुए उन्होंने किस बेदर्दी से मिसरा (मिश्रा) को मिसरे कहा है :)
Deleteलकड़ी और बुढ़ापा ---हा हा हा !
Deleteयह चिंता भी हमारे देश में ही होती है ।
बेदर्दी वाला मसला उनका आपसी मामला है । :)
कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना!:)
Deleteयह भी खूब कही,मगर लकड़ी बेचारी वहीँ रही !
Deleteचकाचक है जी! बहुत चकाचक है! :)
ReplyDeleteढाई फुट की चोकी और उसका वार्तालाप ... जीबन के बदलाव को मापने का प्रयास ...
ReplyDeleteमापना तो संभव नहीं, झांकने का छोटा सा प्रयास।..आभार।
Deletebehad santulit bhaw...
ReplyDeleteबदलाव से विरासत तक का सफ़र .. प्रभावी व सुन्दर लिखा है
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी ,
ReplyDeleteआपके सकारात्मक चिंतन का धन्यवाद जो ग़ुरबत के चक्रव्यूह में फंसा परिवार उस टेबिल में चाय ही पी रहा है वर्ना...
वंचितों / मजलूमों के गम देशी दारू से दूर हों तभी रचना उत्कृष्ट कहलाती है !
पाण्डेय जी सात्विक आदमी बानी ...दारू न नू पिहें....
Deleteछोटा सा कमरा और जीवन के बारे में सारी बातचीत...वाह..सशक्त..
ReplyDeleteपहली बार जाना कि आप ऐसी कविताएं भी लिखते हैं। बहुत प्रभावी। पर इसे पढ़ते हुए एक पुराना गीत या कविता देख तमाशा लकड़ी की याद हो आई।
ReplyDeleteआपने पसंद किया..आनंद आ गया।
Deleteआपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट "धर्मवीर भारती" पर आपका सादर आमंत्रण है । धन्यवाद ।
ReplyDeletesashakt rachna.
ReplyDeleteबदलते मूल्यों का संभाषण ....
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील और सशक्त रचना...
ReplyDeleteइस रचना में प्रतीकों का सहज एवं सफल प्रयोग किया गया है।
ReplyDeleteमानवेतर या अमूर्त पात्रों का समावेश किया गया है। मानवेतर पात्रों का सफल प्रयोग किया है।
एक और जो अच्छी बात मुझे लगी वह यह कि इसमें वर्णन और विवरण का आकाश नहीं वरन् विश्लेषण, संकेत और व्यंजना से काम चलाया गया है
..आभार।
Deleteबढिया प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर व भावपूर्ण चिंतन पांडेय जी।
ReplyDeletebahut khoob pandey ji...........main to fan ho gaya apka
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,आपकी कवितायेँ प्रभावित करती हैं....!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबदलते जीवन मूल्यों का सफल चित्रण।
ReplyDeleteसुंदर रचना।
devendr ji apki rachana bahut achhi hai ....aj charchamach pr padhane ka avsar mil gaya ....badhai ke sath abhar bhi .
ReplyDeleteचौकी को बिम्ब बना कर जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव को परिभाषित कर दिया है ..सुन्दर और सशक्त रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!
लोगों ने जो भी कहा वो दीगर.. मेरे लिए इसपर कुछ भी कहना कविता की उस चौकी पर (जिसपर मैंने अपनी दादाजी को सारा जीवन बिताते देखा और उनकी दुनिया देखी) सनमाइका लगाने जैसा होगा!! देवेन्द्र जी, प्रणाम स्वीकारें आज!!
ReplyDeleteमुझे तो आपका आशीर्वाद चाहिए ।..सादर।
Deleteआज ही हम नत्तू पांड़े को लाये पलंग की बात कर रहे थे - उसमें वह खिलौने सा रहता था, अब जब मन होता है कूद कर बाहर आ जाता है और धंस जाता है अपनी मां के बगल में!
ReplyDeleteसमय बदलता है, तेजी से।
वह क्या बात है ज़िंदगी का गहन फलसफा बहुत ही खुबसूरती से रचा है आपने आपके ब्लॉग पर आना सार्थक सिद्ध हुआ॥:)समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeleteमेरा लिखना भी सार्थक हुआ..धन्यवाद।
Deleteबदलते मूल्यों की कसक को बहुत गहरी वेदना के साथ जीने की मजबूरी दर्शाती रचना,
ReplyDeleteसाक्षी भाव से सब कुछ को देखती एक रचना .
ReplyDeleteमेरे मन की बात लिख दी आपने..आभार।
Deleteपीठासीन हो चुके आदमी को हर और काठ काठी ही सूझती है.... :)
ReplyDeleteहा हा हा..सुनते ही काठ मार जाता है:)
Deleteवाह देव बाबु.......एक गाना याद हो आया आपकी इस पोस्ट पर........देख तमाशा लकड़ी का........बहुत सुन्दर पोस्ट है ...........हैट्स ऑफ इसके लिए|
ReplyDeleteबचपम से बुढापे तक का सफर बहुत अच्छा रहा..
ReplyDeleteआजकल बड़े दार्शनिक अंदाज़ में दिख रहे हैं देवेन्द्र भाई! हर कविता दो कदम और गहरे ले जाती है!!
ReplyDeleteबहुत ही गंभीर और सार्थक कविता |गणतन्त्र दिवस की बधाई |
ReplyDeleteबहोत अच्छी रचना कि है देवेन्द्र जी आपने ।
ReplyDeleteनया हिन्दी ब्लॉग
हिंदी दुनिया
Badlaw ki bahut sundar prastuti
ReplyDeleteवाह सभी कुछ बात करते हैं
ReplyDeleteबेहद गहन अभिव्यक्ति…………॥
ReplyDeletebehtarin, sundar abhivykti..
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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