जब
हम सभी नंगे थे
सभी के पास
पेट था
मुँह था
और थी
कभी न खत्म होने वाली
भूख
भूख ने श्रम
श्रम ने भोजन
भोजन ने जीवन
जीवन ने भय
और भय ने
ईश्वर का ज्ञान दिया।
तब
जब हमने वस्त्र नहीं देखे थे
तो हमारे भगवान कहाँ से पहनते !
वे भी
हमारी तरह
नंगे थे।
मनुष्य ने समाज
समाज ने सभ्यता
सभ्यता ने संस्कृति को जन्म दिया
धीरे-धीरे
सभी वस्त्रधारी हो गये
हम भी
तुम भी
हमारे भगवान भी।
हम अपने करिश्मे पर इतराने लगे
मगर हमारे भगवान
हम सभ्य लोगों को देख-देख मुस्कराने लगे
यदा कदा
मस्ती में
वंशी बजाने लगे
हममे कुछ ऐसे भी हुए
जिन्हें वंशी की धुन सुनाई पड़ी
सत्य का ज्ञान हुआ
जो हाथों में दर्पण लिए
सभ्य लोगों को बताने लगे
तुम नंगे हो ! तुम नंगे हो !! तुम नंगे हो !!!
तुम भी ! तुम भी !! तुम भी !!!
हम इतने सभ्य थे
कि हमने
दर्पण दिखाने वालों को
सूली पर चढ़ा दिया
मगर अफसोस
सब कुछ जानते हुए
आज भी मैं
दर्पण के समक्ष खड़े होने की
हिम्मत नहीं जुटा पाता
लगता है
वह
दिखा देगा मुझे
मेरी नग्नता !
नोटः- मुझे लगा कि यह कविता बिना किसी संदर्भ और पूर्वाग्रह के पढ़ी जानी चाहिए। संदर्भ देना गलत था। इसीलिए पहले दिया गया संदर्भ हटा रहा हूँ। आपको होने वाली असुविधा के लिए खेद है। कमेंट बॉक्स अपनी नादानी से बंद कर दिया था। अब खोल रहा हूँ।..धन्यवाद।
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