टेढ़ी कर देते हैं
टाटा-स्काई की छतरी
तोड़ देते हैं
फोन के तार
घुस आते हैं
कीचन में
उठा ले जाते है
फल या ताजी बनी रोटियाँ
नहाते हैं
पानी की टंकी में घुस कर
डालते है
हम
लाठी लेकर
बमुश्किल
खुद को
बचा ही पाते हैं।
अकेले हों तो
भले भाग जांय
मगर जब होते हैं झुण्ड में
नतमस्तक हो
खुद ही भागना पड़ता है
इनसे
हमारी तरह चलती है
इनकी सरकार
इनकी संसद
इनके कानून
आपकी श्रद्धा और विश्वास का
ये भी उठाते हैं
भरपूर लाभ
देखा है
संकट मोचन के बंदर
खाते हैं
चने के साथ
शुद्ध देशी घी के
लड्ढू भी !
.........................
नोटः आपका ब्लॉग न पढ़ पाने के पीछे इन बंदरों का भी बहुत बड़ा हाथ है।:)
bahut sateek likha hai ....!!
ReplyDeleteshubhkamnayen.
हमारा ब्लाग तो और भी लोग नहीं पढ़ पाते पर उनसे ये शिकायत नहीं रहती कि उन्होंने कमेन्ट नहीं किया :)
ReplyDeleteकविता की तारीफ करके बंदरों का हौसला नहीं बढ़ाऊंगा , मुझे पता है कि वे किस कदर खुराफात कर रहे हैं ! कभी हम भी उनके शिकार थे बस इसी लिए :)
बेचारे बन्दर, इंसानों की दखलन्दाज़ी के शिकार! बनारस में लड्डू तो खा रहे हैं, शेष भारत में तो रगेदे जा रहे हैं।
ReplyDeleteबनारसी लोगों का मिजाज भी गज़ब का विरोधाभासी है। घर में ये बंदरों से आतंकित रहते हैं। हनुमान मंदिर में जाकर इन्ही बंदरों को बजरंगबली के रूप मानकर चना-लड्ढू खिलाते हैं। बंदर और आदमी दोनो एक दूसरे को नुकसान पहुँचाते हैं। दोनो एक दूसरे से भय खाते हैं। दोनो एक दूसरे को डराते हैं। दोनो एक दूसरे को बिना वजह मारते, काटते भी नहीं। बंदर को चाहिए रहने का आश्रय, खाने के लिए भोजन बस इसी की तलाश में भटकते रहते हैं।
Deleteसंकट मोचन तो नहीं मगर दुर्गा मंदिर में मेरे छोटे भाई ने एक बंदरिया के प्यारे से बच्चे को प्यार से दुलार भर लिया था.. बंदरिया ने जो पैर में जो घाव दिया वो उसके पहचान पत्र में उसका शिनाख्ती निशान बन गया!! आपकी टाटा स्काई और इंटरनेट वियोग पर लिखी ये कविता मानूँ या वानर-स्तुति कविता... दोनों स्थितियों में सुन्दर!!!
ReplyDeleteइनके उत्पात से बचने का फत्तुआ फार्मूला उपलब्ध है -
ReplyDeletehttp://mosamkaun.blogspot.in/2010/06/good-night-till-morning.html
p.s. जनहित में जारी
एक तो मनुष्य शेष सारे पशु-पक्षियों का हिस्सा दबाये बैठा है ,उनपर मनमाने प्रयोग करता है ,.और कहीं वे ज़ोर पकड़,जायँ तो शिकायत भी उन्हीं की !आदमी जैसे चालाक वे लोग नहीं हैं .
ReplyDeleteबंदर से चालाक हुए तभी तो आदमी हुए। एक बंदराश्रम का विचार बन रहा है।
Deleteआप भी हद हैं -
ReplyDeleteप्रात नाम जो लेई हमारा ता दिन ताहि न मिलै अहारा ....
आज सुबह सुबह यी पोस्ट पढ़ें दिखिए दाना पानी नसीब होता भी है या नहीं! :(
वेरी गुड ☺
ReplyDeleteसच कहा, अब इन बंदरों से देश को कौन बचाये।
ReplyDelete..अन्ना और बाबा लगे हुए हैं...!
Deleteधार्मिक स्थलों पर तो इनकी दादागिरी खूब चलती है !
ReplyDeleteएक सर्वथा अन्छुए विषय को आपने काव्य का रूप दिया है। बेहतरीन।
ReplyDeleteजब हम मेदक (आं.प्र.) में थे तो ये अवासीय परिसर में नहीं निर्माणी में घुसकर कई लोगों के कान खा (काट) गए।
ये इतना उत्पात इस लिए मचाते हैं क्योंकि इनको लगता है की हमारे भाइयों ने ही हमारे साथ दगा किया . खुद तो विकसित बन गए और हमें पीछे छोड़ गए .
ReplyDeleteबचपन में एक बार एक बन्दर ने मुझे तबियत से नोचा था !
ReplyDelete...आपको शुभकामनाएँ !
बचपन में थप्पड़ मार कर मेरे हाथ से रोटी छीन चुका है। बड़े काम की हैं आपकी शुभकामनाएँ..
Deleteबाहर,अंदर
ReplyDeleteदर-दर
मस्त कलंदर
बंदर ही बंदर!
(ये दुनिया बंदर मय है!)
ये बिचारे बन्दर भी क्या करें .. तेज़ी से कटते जंगल ... शहर का फैलाव .. आखिर ये कहां जाएँ ... वैसे हम भी तो बन्दर हैं ... हम भही तो शहर की तरफ ही ज्यादा भागते हैं ...
ReplyDeleteकाश ये बन्दर इस रचना को पढ़ लेते तो शायद फिर दुस्साहस नहीं करते
ReplyDeleteये बेचारे करें भी तो क्या करें इन्हें यहाँ आने पर मजबूर करने वाले हम मनुष्य ही हैं, थोडा सा इन्होने परेशान कर दिया तो क्या बुराई है, ये तो बेचारे सिर्फ अपने पेट का सवाल लेकर आते हैं, हमारी तरह रोटी, कपडा, मकान और शिक्षा नहीं मांगते ना...सुन्दर सटीक भाव
ReplyDeleteअब भैया बनारस ही क्या इनका उत्पात तो हर जगह है...तो अब पता लगा क्यूँ इतने बाद दिखाई देते हो आप ब्लॉग पर :-)
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