एक हाथी
देश में
शान से घूमता है!
ठहरता है जिस शहर
चिंघाड़ता है..
"मेरे विरोधी कुत्ते हैं
मुझ पर अनायास भौंकते हैं
मैं उनकी परवाह नहीं करता!"
विरोधी बौखलाते हैं
भक्त
मुस्कुराते हैं।
हाथी
भारत या इंडिया में
अपने से नहीं चलता
उसे कोई महावत चलाता है
महावत और कोई नहीं
हमारी सामंतवादी सोच है
जिसे हमने
सदियों से
हाथी की पीठ पर बिठा रखा है!
यह वही सोच है
जो महिलाओं को
कभी घर से बाहर निकलते
काम करते
अपने पैरों पर खड़े होकर
मन मर्जी से जीवन जीते
नहीं देखना चाहती।
यह सोच
कभी हाथी पर
कभी पोथी पर
कभी नोटों की बड़ी गठरी पर सवार हो
सीने पर मूंग दलने
चली आती है।
....................
क्या कहें -वक्त बदले न बदले ,सोच बदलनी चाहिए..........
ReplyDeleteये सामंतवादी सोच स्त्री को सदा पुरुष के सामने रोते गिडगिडाते ही देखना चाहता है , स्त्री का प्रतिकार विरोध उसे किसी भी हालात में बर्दास्त नहीं है , चाहे संत हो या अपराधी ।
ReplyDeleteइस सोच को चाहिए दोनों हाथों में लड्डू, एक प्रगतिशील देश भी और एक गुलाम औरत भी.
ReplyDeleteएकदम सही..यही बात है।
Deleteसाहब, बीवी और गुलाम की छोटी बहु आज भी सिसकती है उन खंडहरों में..
ReplyDeleteज़माना ब्लैक एंड व्हाईट से रंगीन हो गया, लेकिन हमारी प्रवृत्तियां आज भी
ब्लैक की ब्लैक हैं..
अखबार में रोज पढता हूँ कि इतनी सारी कंपनियों की सी ई ओ औरतें हैं, लेकिन
फिर भी लगता है कि यह सब बस उँगलियों पर गिन लेने जैसा है.. उसी अखबार
पर लुटाती आबरू, खाप की बलि चढती औरत की दास्तान भी रहती है..
क्या कहें, कैसे कहें और क्या उम्मीद करें!!
अंधी गली है!!
जनिसे आस
Deleteवे ही कर रहे हैं
अब निराश।
जंग किसी इंसान के खिआफ़ नहीं है , जंग इसी सोच के खिलाफ है |
ReplyDeleteसादर
हाथी के बहुत सारे भक्त हैं इसीलिये मस्त घूमता रहता है।
ReplyDeleteअभी तक मानसिक विकास नहीं हो पाया है .... दिखाने के लिए प्रगतिशील हैं । बहुत सार्थक रचना
ReplyDeleteशुभकामनायें |
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति ||
इस सोच का बदलाव अपने अंदर से हो आना होगा ...
ReplyDeleteआसा राम जी को सुनने अधिकतर महिलायें ही होती हैं ...
शुरुआत हमे और आप को करनी है ........सोच बदलने से ही सब बदलेगा ।
ReplyDeleteवक़्त मिले तो जज़्बात पर भी आयें ।
बेहद सटीक प्रस्तुति...
ReplyDeleteआभार
इन्हीं लोगों ने सारे कुंओं में भांग घोल रखी है, पहले उसे साफ़ करना होगा, उसके बाद हाथी की मस्ती कम हो सकती है. बहुत सशक्त रचना.
ReplyDeleteरामराम.
यहाँ भक्तों की भी तो कमी नहीं।
ReplyDeleteएक ढूंढो , हजारों मिलते हैं।
sarthak rachna
ReplyDeleteAAP KI IS RACHANA KA SWAGAT DUSHYANT KI IS PANKTI SE KARTI HU " HO GYEE HAI PIR PARVT SI PIGHALNI CHAHIYE,AB KOYEE GANGA HIMALAY SE NIKALNI CHAHIYE....
ReplyDeleteसुंदर और सटीक....
ReplyDeleteयही सोच तो बदलनी चाहिए अब...
ReplyDeleteसार्थक रचना!
~सादर!!!
बहुत सही लिखे हैं सर!
ReplyDeleteसादर
खूब सूरत तंज व्यवस्था पर .
ReplyDelete....सही है ।
ReplyDeleteयैसे सामंतियों को भी मिलता कुछ नहीं,बस वो महिला को गुलाम बनाने के प्रयाश में उन्ही के आगे-पीछे चक्कर लगाते रहते हैं,और अंततोगत्वा वो भी उन्ही के गुलाम बने रहते हैं.किसी महिला पर शाशन करके वो भी कौन सा तीर मार लेते हैं ! आशाराम जैसे लोग मुर्खों की जमात में पड़े रहेंगे और कोई भी बुद्धिमान आदमी उनको माननेवाला नहीं रहेगा.
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteसहज समाजचर्या को सब अपने अनुकूल बनाने के प्रयास में अहित ही कर बैठते हैं।
ReplyDeleteइक लाख पूत सवा लाख नाती
ReplyDeleteता रावण घर दिया न बाती (अपने कबीर बाबा)