कुछ घालमेल हो रहा है। चित्रों का आनंद लेते-लेते कविता बन जा रही है। अपने ब्लॉग "चित्रों का आनंद" में गंगा जी की कुछ तस्वीरें लगाने लगा तो एक कविता अनायास बन गई। अब उसे यथा स्थान यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
घोंघा
कभी
तुममे था
घोंघा
कभी
तुममे था
जीवन !
रेत कुरेदने पर
निकल आये हो
बाहर।
अब खाली हो
असहाय
खालीपन के
एहसास से परे
बन चुके हो
खिलौना
खेलते हैं तुम्हें
रेत से बीन-बीन
बच्चे
ढूँढता हूँ तुममें
जीवन
काँपता हूँ
भरापूरा
अपने खालीपने के
एहसास से!
मैं
घोंघा बसंत।
...............
बहुत ही अच्छे प्रतीक का प्रयोग किया सार्थक रचना....
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteऔर कभी मुझे ईर्ष्या थी
ReplyDeleteउस घोंघे से
जो फिरता है
अपना घर साथ लिए
कभी न होता बेघर.....
सुन्दर चित्र...सुन्दर कविता...
अनु
सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति कलम आज भी उन्हीं की जय बोलेगी ...... आप भी जाने @ट्वीटर कमाल खान :अफज़ल गुरु के अपराध का दंड जानें .
ReplyDeleteकोई और नहीं मिला ,अपने पर ही ले लिए ? :-)
ReplyDeleteघोंघे को अपने में रहना तो आता है, पार्टी के लिये उसका मन कहाँ मचलता है?
ReplyDelete...मैं हूँ घोंघा बसं...गंभीर भाव देता लघु जीव ।
ReplyDeleteआपके बिम्ब अलबेले-
ReplyDeleteसाधुवाद-
सीमांकन क्यूँ ना किया, समय बिताता प्रौढ़ |
यत्र-तत्र घुसपैठ कर, कवच-सुरक्षा ओढ़ |
कवच-सुरक्षा ओढ़, चढ़ा है रंग बसंती |
वय हो जाती गौण, रचूँ मैं एक तुरंती |
यह है सुख का मूल, चला चल धीमा धीमा |
घोंघा बने उसूल, चैन की फिर क्या सीमा ??
घोंघे के दिल को लिख दिया है आपने ... मस्त रचना है ...
ReplyDeleteकांपता हूं अपने खालीपन के अहसास से मैं........।
ReplyDeleteखाली घोंगा लकी है असमें अहसास जो नही है ।
बहुत बहुत सुन्दर..........एक पंथ दो काज होते हैं तो क्या हर्ज है :-)
ReplyDeletehttp://lalitdotcom.blogspot.in/2013/01/blog-post_2.html
ReplyDeleteनिरा घोंघू नहीं होता घोंघा :)
ReplyDeleteलाजवाब,पढकर वाह ! कर उठा मन.घोंघे को एहसास नहीं खालीपन का मगर कवि को हो रहा है,और शायद यही जीवन का संकेत है.
ReplyDeleteशानदार!!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteअच्छी लगी कविता...इंसान जब किसी चीज के साथ गहराई से जुड़ता है तो भावनाएं खुद ब खुद उभर आती हैं...
ReplyDeleteसुन्दर रचना।।।।
ReplyDelete:-)
bahut achchi likhi.....
ReplyDeleteअच्छी रचना
ReplyDeleteसादर