चश्मा ले लो, चश्मा!
हिंदू चश्मा
मुस्लिम चश्मा
अगड़ा चश्मा
पिछड़ा चश्मा
अनुसूचित जाति का चश्मा
जन जाति का चश्मा
भांति-भांति का चश्मा
चश्मा ले लो, चश्मा!
इस चश्मे को पहन के नेता
पहुँचे संसद हाल में
इस चश्मे को पहन के 'नंदी'
साहित्य के आकाश में
इस चश्मे के बिना अब तो
पढ़ना-लिखना मुश्किल है
इस चश्मे के बिना अब तो
रोजी-रोटी मुश्किल है
चश्म ले लो, चश्मा!
आदमी वाला मुखौटा
चेहरे पर तो जंचता है
बिन इस चश्मे को पहने वह
अंधे जैसा दिखता हैबच्चे के पैदा होते ही
दौड़ौ, उसको पहनाओ
कहीं देख ना ले वह दुनियाँ
बाद में उसको नहलाओ
सभी दुखों की एक दवा है
पहनो और पहनाओ तुम
होड़ लगी है सबमे देखो
कहीं पिछड़ ना जाओ तुम
चश्मा ले लो, चश्मा!
प्रथम परिचय में तुमसे
चश्मा पूछा जायेगा
सिर्फ आदमी बतलाना
किसी काम न आयेगा
चश्मा एक हुआ तो समझो
यारी तेरी पक्की है
चश्मा अलग हुआ तो समझो
यारी बिलकुल कच्ची है।
चश्मा ले लो, चश्मा!
जैसी देखो भीड़ खड़ी है
तुम झट वैसे हो जाओ
कई किस्म के चश्मे रख लो
वक्त पे सबको अज़माओ
सब ताले की कुंजी भी मैं
चाहो तो दे सकता हूँ
पैसा थोड़ा अधिक लगाओ
बड़े काम आ सकता हूँ
धर्मनिरपेक्षता नाम है उसका
सबके संग खप जाता है
इसको पहन के जो चलता है
बुद्धिमान कहलाता है।
चश्मा ले लो, चश्मा!
.....................................
चस्मे के माध्यम से सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDelete...अपुन को भी एक चश्मा मँगता है :-)
ReplyDeleteक्या बात बहुत खूब कहा सच बात सर जी।।।बहुत सुन्दर व्यंग ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भावों का प्रगटीकरण-
ReplyDeleteशुभकामनायें आदरणीय -
चश्में पर सबकी नजर, ज़र-जमीन असबाब |
चकाचौंध से त्रस्त है, रसम-चशम के ख़्वाब ||
खोज रहे है एक चश्मा हम भी....
ReplyDelete:-)
बहुत बढ़िया...
अनु
ऐसे चश्मुद्दीनों से तो अपने तोताचश्म भले
ReplyDeleteहवा जिधर की बही उधर ही भोलाराम चले
वाह!
Deleteबाँट बाँट कर छाँट दिया है,
ReplyDeleteचौराहों पर टाँग दिया है,
चाहे अपने भाग सजा लो,
चाहे इसमें आग लगा दो,
चिथड़े क्यों अब जोड़े ईश्वर,
किस्सा उटपटाँग किया है।
बहुत खूब..
Deleteसही बात ....सटीक कटाक्ष ...
ReplyDeleteये दूकान चल जायेगी :-)
ReplyDeleteभवानी प्रसाद मिश्र ने इसी अंदाज में गीत बेचा था...
ReplyDeleteआपका चश्मा भी बिकेगा!
अद्भुत.....ला-जवाब.......दृष्टिदोष निवारक उपकरण ही आज दृष्टिकोण बन गया है. आप क्या चश्मा बेचेंगे, सभी ने अपना अपना हैड मैड चश्मा बना रखा है.
ReplyDeleteहमारे पास तो पहले से ही है। :)
ReplyDeleteचश्में को माध्यम बनाकर अच्छा कटाक्ष किया है !!
ReplyDeleteभांति-भांति का चश्मा...हमें भी चाहिए एक चश्मा..खूब लिखा है
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteआपकी यह प्रविष्टि को आज दिनांक 28-01-2013 को चर्चामंच-1138 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
जी हाँ हुज़ूर ,मैं चश्मे बेचता हूँ -ख़ूब चल रही है दूकान !
ReplyDeleteवास्ते दूसरा पैरा :- ऊंहूं...भला किससे जले भुने जा रहे हैं आप ?
ReplyDeleteशेष पूरी कविता अच्छी है...यदि कवि की भावनायें वास्तव में हार्दिक/निश्छल/निष्कलुष/निष्पाप/अ-जलनीय/भेद रहित हों तो अपनी पूर्ण और नि:शर्त सहमति :)
वास्ते आपके संशोधित दूसरा पैरा...
Deleteइस चश्मे को पहन के नेता
पहुँचे संसद हाल में
इस चश्मे को पहन के 'नंदी'
साहित्य के आकाश में....
तारक मेहता का उल्टा चश्मा , :)
ReplyDeleteबखूबी हर पहलू को आईना दिखाया है |
सादर
आपने तो होलेसले में चश्में देकर सभी को निपटा दिया | बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति | आभार |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
इन चश्मों की दुकान कहाँ है ? कैसे मिलेगा यह चश्मा ? तीखा कटाक्ष ।
ReplyDeleteअंधों के लिए भी कोई हो तो बताइयेगा :)
ReplyDeleteसच का आईना दिखती बहुत ही बढ़िया पोस्ट...आभार
ReplyDeleteनेता-मंत्रियों को 'दान'का दाप है 'दान'का ही ढांप है
ReplyDeleteइंके मुख से जाती धर्म वर्ण की ठेक्केदारी अच्छी नहीं
लगती कारण की नेता इनकी जात है सत्ता इनका धर्म
और विलासिता इनका वर्ण.....
दूकान का नाम पता दीजिए तो. इस बार भारत आने पर एक चश्मे की जरूरत हमें भी पड़ेगी :)
ReplyDeleteबढ़िया कटाक्ष.
धन्यवाद कविराज।
ReplyDeleteवाह...चश्मे कैसे - कैसे ...लाजवाब अभिव्यक्ति...आभार...
ReplyDeleteकौन सा लेना ठीक रहेगा देवेन्द्र भाई ??
ReplyDeleteबिना चश्मे का रहना हिम्मत का काम है.
ReplyDeleteइतने तरह के चश्में देखकर तो लगता है एक चश्में की दुकान ही खोल ली जाये, जब जिसकी जरूरत हुई लगा लेंगे.:)
ReplyDeleteपर बहुत बढिया निपटाया आपने.
रामराम
चश्मा बहुत सालों से लगा रहा हूँ.. पढते थे कि दूर का चश्मा और नज़दीक का चश्मा होता है.. लेकिन कभी ऐसा चश्मा नहीं मिला जो दूर और नज़दीक का ना होकर दूरियों को मिटाकर नज़दीकियों में बदलने सा हो!! आपने जितने भी चश्में गिनाए सच में उतने ही चश्मे हैं समाज में.. मगर मेरे किसी काम के नहीं.. हमारे खानदान में बचपन से चश्मे का प्रचलन नहीं रहा!!
ReplyDeleteदेवेन्द्र भाई, अब आपकी कविता की बात!! सामयिक विषय पर, प्रासंगिक कविता लिखना आपकी विशेषता है.. और कविता भी खोखले शब्दों और व्यर्थ के बालाघात वाली नहीं विषयवस्तु की गहराई वाली!!आपसे सीखना है यह कला!!
बहुत सुन्दर!!
प्रभावी ... सटीक प्रहार है समाज के विभिन्न पहलुओं पर ... अलग श्रेणी की रचना है ये ...
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