30.3.13

संभावना


अटके हो
किसी के आस में
तो झरो!
जैसे झरते हैं पत्ते
पतझड़ में

रूके हो किनारे
साथी की तलाश में
तो बहो!
तेज धार वाली नदी में
बिन माझी के नाव की तरह

धऱती पर पड़े हो
तो उड़ो!
जैसे उड़ती है धूल
बसंत में

हाँ तुमसे भी कहता हूँ...

वृक्ष हो
तो नंगे हो जाओ!

माझी हो
तो संभालो अपनी पतवार!

आँधी हो
तो समझ जाओ!
तुम उखाड़ नहीं पाओगे
कभी भी
किसी को
समूल!

जर्रे-जर्रे में
होती है
आग, पानी, हवा, मिट्टी या फिर..
आकाश बनने की
संभावना।
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28.3.13

कहाँ गई होली...!


बसंत आया
सरसों के फूल खिले
गेहूँ की बालियाँ लहलहाईं
झूमने लगे अरहर
सूखी सनाठी को पकड़कर
इक-दूजे से
लिपटने लगीं लताएँ
धरती माँ ने
अपने दुलारे
सबसे बूढ़े पीपल को भी
उबटन लगाकर
लौटा दिया
उसका बचपन।

हर बार की तरह
इस बार भी
पकृति ने रंग जमाया
अंकुरित होती
जवान होती
खिलती-फूलती
नाचती-गाती
नखरे दिखाती
आ गई होली।

प्रकृति के बदलते तेवर देख
मन मचला
तन बहका
पुराने वस्त्रों को
नकली रंगों से
खूब किया मैला और..
छुड़ाते रहे देर तक
पुराने चमड़े की
नई कालिख!

नए वस्त्र पहने
गुलाल लगाया
एक ढूँढो
हजार मिलते हैं
कई थे
अपने जैसे
मस्ती में डूबे
सबसे गले मिले
खूब किया बचपना
लगा कि अपनी
हो गई होली।

हाय!
हम पीपल न हुए
न लगा पाये
उसके जैसा उबटन
न लौटा पाये बचपन
न हो पाये जवान
पचपन के थे
पचपन के ही रहे
जस के तस
महंगाई से परेशान
ब्लड प्रेशर और शुगर के मरीज
जवान होती बेटियों की चिंता में घुले रहने वाले
बाबूजी।
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