नौकरी से बंधा हूँ
घर छोड़
शहर के एक छोटे से कमरे की चौकी पर पड़ा हूँ
मैं अकेला हूँ!
जिस्म जिंदा है
इसका प्रमाण
हवा में उड़ते मच्छर हैं
जो रगों में दौड़ते
लहू से बंधे हैं।
कमरे में
रोशनदान के पास
मकड़ी के जाले हैं
जाले से
कीट-पतंगे
कीट-पतंगों से छिपकली बंधी है
आदमी के पेट में नहीं
जमीन पर
चूहे दौड़ते हैं
चूहों का अपना पेट, अपनी भूख होती है
इस सच के अलावा
मेरे गले में
एक बड़ा-सा झूठ बंधा है
मैं अकेला हूँ!
………………………….
कहाँ अकेले रहते हैं हम?
ReplyDeleteअपने से सब दिखते रहते,
मूक रहे वैश्विक संबोधन,
शुष्क व्यवस्था और हृदय नम,
कहाँ अकेले रहते हैं हम?
वाह!
Deleteकेले सा जीवन जियो, मत बन मियां बबूल |
ReplyDeleteसामाजिक प्रतिबंध कुल, दिल से करो क़ुबूल |
दिल से करो क़ुबूल, अन्यथा खाओ सोटा |
नहीं छानना ख़ाक, बाँध कर रखो लंगोटा |
दफ्तर कॉलेज हाट, चौक घर मेले ठेले |
रहो सदा चैतन्य, घूम मत कहीं अकेले |
ए पांडे जी! आप त हमरा व्यथा बयान कर दिए हैं.. आजकल ओही फेज से हम भी गुजर रहे हैं.. ई कविता छपवाकर दीवाल पर टांग देते हैं!! जय हो!!
ReplyDeleteयकीन कीजिए.. मैं अकेला हूँ ! लिखते वक्त आपका और हम जैसे बहुतों की याद साथ-साथ थी।
Deleteसच कहा...कहाँ अकेले हैं आप...मच्छर, मकड़ी, चूहे...और कविता का साथ तो है ही...
ReplyDeleteधन्यवाद। फुर्सत मिलते ही साझा होने का प्रयास करूंगा अभी नेट से सप्ताह में दो चार घंटे ही जुड़ पाता हूँ।
ReplyDeleteअकेले हैं तो क्या ग़म है,
ReplyDeleteकीड़े मकौड़े क्या कम हैं !
अकेलेपन से निकलना होगा !
ReplyDeleteबहुत सुंदर..... गहन भावपूर्ण प्रस्तुति .....
ReplyDeleteगजानन माधव मुक्तिबोध की राह पर चल पड़े हैं। ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (02-112-2013) को "कुछ तो मजबूरी होगी" (चर्चा मंचःअंक-1449)
पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ये अकेलापन...
ReplyDeleteअकेलेपन की यह व्यथा...
ये हम सभी की ही व्यथा है...!
...a feeling so easy to identify it... well penned!
घर से दूर यह अकेलापन। कविता ऐसे भुक्तभोगियों की व्यथा बयान करती है !
ReplyDeleteमैं अकेला हूँ -
ReplyDeleteनहीं बंधा हूँ किसी के प्रेम से -
क्योंकि इस जगती के प्रेम हद के हैं -
बेहद के प्रेम की तलाश में अकेला हूँ।
सुन्दर रचना संसार और रूपक है आधुनिक जीवन का।
नौकरी से बंधा मैं अपने से ही दूर हूँ -
कितना मजबूर हूँ।
आदमी सदा अकेला ही है । यही उसकी नियति है । हाँ, इसे स्वीकार करना कठिन है |
ReplyDeleteपाण्डेय जी आजकाल शहर में तो सब अकेले है ,कोई किसी को नही पहचानते हैं !कमाल का शहर है !
ReplyDeleteनई पोस्ट वो दूल्हा....
मैं अकेला हूँ ... यूं तो हर कोई अकेला है आज के दौर में ... पर किसी दूसरे अकेले को साथ बनाइये ...
ReplyDeleteकल 04/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
ओह .....भावुक अभिव्यक्ति
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ReplyDeleteसच इंसान कभी अकेला रहता ही नहीं है .... ..आस-पास कितना कुछ रहता है फिर अकेले कैसे .....
बहुत सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत किया है आपने ....
मछ्छर,मकड़ी,छिपकली और चूहों का साथ है,कोई प्यार करने वाला भी नहीं ,शिकायत करने वाला भी नहीं !
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