30.1.14

प्यार


प्यार के लिए वक़्त ही वक़्त है। जीवन का हर लम्हाँ आप चाहें तो प्यार में गुज़ार सकते हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि किरदार बदल जाते हैं। अब देखना यह है कि हम किससे कितना प्यार कर पाते हैं, किसके लिए हमारे पास वक़्त ही नहीं रहता! भूल जाते हैं। 

बचपन 
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वक़्त एक-सा नहीं रहता। जिस उड़ने वाले गुब्बारे को खरीदने के लिए हमारे प्राण निकल जाते थे, अब उसकी तरफ ध्यान ही नहीं जाता। दिया जलाकर पानी में चलने वाली स्टीमर, छुक-छुक चलती गोल-गोल ट्रेन, बचपने के सभी जानदार खिलौने वक्त के साथ कूड़े के ढेर में बेजान हो पड़े रहते हैं। राह चलते उनको देखकर कभी-कभी होता है एहसास कि ये ही हैं वे, जिनके लिए कभी हम प्राण तज़ते थे।  

माँ 
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माँ हमें इतना प्यार करती हैं कि हम भूल ही जाते हैं कि माँ को भी प्यार की जरूरत है! याद तब आता है जब वह अशक्त हो, बिस्तर पर निढाल पड़ जाती है। जब उसे प्यार की जरूरत होती है, हम व्यस्त हो जाते हैं। उसके जाने के बाद उसकी कमी बहुत खलती है। लगता है अब तो हम अनाथ हो गये। एक-एक लम्हाँ याद आता है और याद आती है अपनी व्यस्तता, अपनी लापरवाही, अपनी बेरूखी। अब चाह कर भी हम उसे प्यार नहीं कर सकते। जो भगवान का प्यारा हो जाय उसे किसके प्यार की जरूरत है भला!

माँ के आंचल में छुप जाना, घुटनो के बल चलते-चलते, 
बचपन था एक खेल सुहाना कहीं खो गया चलते-चलते।

पिता 
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पिता जब तक साथ रहते हैं हमारा बचपन, बचपन रहता है, हमारी जवानी, जवानी रहती है। उनके जाते ही ऐसा लगता है जैसे बीच धार में नाव का माझी अचानक से कहीं गुम हो गया। हवायें आधियोँ मे बदल जाती हैं, लहरियाँ ज्वार-भाटा बन जाती हैं। पिता जब तक रहते हैं, हमें उनकी टोका-टोकी बुरी लगती है, डाँटना अखरता है, जब नहीं रहते हमे एहसास होता है कि किसी ने हमारा सब कुछ छीन लिया। पिता को प्यार करने का सौभाग्य सबको नहीं मिलता।

बचपन के मित्र
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नींद खुलने से लेकर पलकें बंद होने तक, कभी-कभी तो सपने में भी, हम जिनके साथ कट्टी-मिठ्ठी किया करते थे, राह चलते करीब से ऐसे गुज़र जाते हैं जैसे पहचानते ही न हों! पहचान भी लिया तो बात करने के लिए वही सब घर-गृहस्थी और बीबी बच्चों की कुशल-क्षेम पूछने की औपचारिकता के सिवा और कुछ भी शेष नहीं रहता।

गुज़रे हैं फिर करीब से, वो उठा के हाथ
करते थे बात देर तक, जो मिला के हाथ।

पति-पत्नी 
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प्राण पियारी और प्राण प्यारे को अधिकार और कर्तव्य की चक्की पीस कर रख देती है। इसी चक्की में पिसाते हुए वे आपस में मिलकर एकाकार होते हैं। गुटर-गूँ करते हैं, गुफ्त-गूँ करते हैं। कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं।  इसी पिसे जाने पर कोई हाहाकार करता है, इसे ही कोई प्यार कहता है। कोई 'वन्स मोर' कहता है, कोई 'नो मोर' कहता है। यह दुनियाँ अचम्भा का मुरब्बा है। प्यार को जीवन साथी बनाना चाहता है, जीवन साथी से प्यार नहीं कर पाता!

बच्चों की तोतली जुबान तीखी मिर्ची में बदलते देर नहीं लगती। वक़्त बीत जाने पर हम चाहकर भी उन्हें गोदी में नहीं खिला सकते। जब वे हमसे लिपटना चाहते थे, आपके पास वक़्त नहीं था। आज हम उन्हें अपने करीब चाहते हैं, अब उनके पास वक़्त नहीं है!
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वक़्त एक-सा नहीं रहता। प्यार एक-सा नहीं होता। सब तेज़ी-से बदलता चला जाता है। किरदार तेजी से बदलते हैं। देखना यह है कि बचपन से लेकर बुढ़ौती तक हम कितना वर्तमान में जीते हैं, कितना गुज़रे वक़्त का मातम मनाते हैं। 
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27.1.14

सूरदास

वे दोनो आँखों से अंधे थे। लोग उन्हें सूरदास कहते थे। उनका कोई माई-बाप नहीं था। वे गाँव के स्कूल में रहते थे। गाँव वालों पर पूर्णतया आश्रित थे। उनकी शादी नहीं हुई थी मगर ज़वानी के दिनो में उनकी दिली ख्वाहिश थी कि कोई जीवन साथी मिले तो जीवन कट जाय। एक बार गाँव के लड़कों ने शरारत की। एक लड़के को पायल-धोती पहनाकर उनके पास ले गये। इधर लड़का पैर पटक कर छम-छम पायल बजाता उधर सूरदास का दिल बल्ले-बल्ले हो जाता। लड़कों ने सूरदास के सामने शादी का प्रस्ताव रखा। अंधे को क्या चाहिए, दो आँखें! सूरदास तुरंत राजी हो गये।

बकायदा शादी की तारीख तय की गई और शुभ मुहरत तय कर, बाजे वालों को बुलाकर बाजा बजाया जाने लगा। सूरदास को गधे पर बिठाकर लड़के ले चले बारात। आगे-आगे बाजा, बीच में लड़कों का हुड़दंग और गाँव के लोगों का हुज़ूम। जो भी सुनता कौतूहल वश देखने चला आता और असलियत जानने पर मफलर में मुँह दबाकर मुश्किल से अपनी हँसी रोक पाता।

खबर प्रधान तक पहुँची। वे भागे-भागे आये और लगे लड़कों को जोर-जोर से डांटने। जैसे शेर के आने पर गीदड़ भाग जाते हैं वैसे ही प्रधान के आने पर लड़के भाग खड़े हुए। सूरदास गधे पर बैठे के बैठे रह गये। बहुत दिनो तक गाँव में सूरदास की शादी की चर्चा चलती रही। लड़के कहते-"हम तो आपकी शादी करा ही देते मगर क्या करें? ई प्रधान जो बीच में आ गये। उनसे किसी की खुशी देखी नहीं जाती।" सूरदास प्रारंभ से ही सब समझ रहे थे। मुस्कुराकर बोले-"शादी करने का तो हमारा भी मन नहीं था वो तो तुम लोगों का मन रखने के लिए हमने हाँ कह दिया था। एक अकेले का जीवन तो चलता नहीं पत्नी का पेट कौन भरेगा भला!"

नोट: पिछली पोस्ट में भी आपने सूरदास के बारे में यहाँ पढ़ा था।

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20.1.14

पेट ही नहीं भरता...!

वे अंधे थे लेकिन कान से आहट ही नहीं सुनते थे, व्यक्ति को भी पहचान लेते थे।  उनके करीब से कितना भी दबे पाँव बच निकलने का प्रयास करो वे आहट से जान जाते थे कि यह फलाँ आदमी है। गाँव में सभी उन्हें सूरदास कहते थे। भिखारी नहीं थे बस भूख मिटाने के लिए उससे दो रोटी मांग लेते थे जिनपर उन्हें भरोसा था कि वह लेकर ही आयेगा। व्यक्ति को पहचानते थे। सबसे नहीं मांगते थे। एक दिन गाँव का एक लड़का उनसे बचते हुए पास से गुज़र रहा था कि सूरदास बोल पड़े-'सुनी न..अभय बाबू!' अभय के पाँव में अचानक से बेड़ी लग गई। मन मारकर उनके पास गया। सूरदास मुड़ी हिलाते, तख्ते पर हाथों से तबला बजाते, दोनो आँखें मिचमिचाते हुए धीरे से बोल पड़े-आज दू रोटी खिलाईं न ...। 

अभय भाभी जी के पास गया..'सूरदास दो रोटी माँग रहे हैं!' भाभी भुनभुनाने लगीं-'इस महंगाई में घर का पेट भरना मुश्किल है, बड़े आये दानवीर बनने।' अभय ने भाभी जी से कहा.'ठीक है, हमको तो खिलाओगी न भाभी कि मेरे लिए भी रोटी नहीं है?' भाभी को अभय का उत्तर नागवार गुज़रा। आँखें तरेरते हुए चार रोटियाँ थाली में रखकर थच्च से पटक दिया। अभय ने थाली उठाई और दौड़ा-दौड़ा सूरदास के पास जा पहुँचा। दो रोटी अपने खाई, दो रोटी सूरदास को खिलाया। सूरदास बोले-'मेरे कारण भूखे रह गये न अभय बाबू?" अभय बोला-'नहीं बाबा, आज तो मन तृप्त हो गया।'

अभय बाबू अब बड़े हो चुके हैं। कहते हैं-'मेरे पास न अन्न की कमी है, न धन की। कमी है तो सिर्फ सूरदास की।' जब भी खाना खाने बैठते हैं दो रोटी उनके नाम से निकालना नहीं भूलते। फिर वह रोटी गइया खाये या कुत्ता। पत्नी पूछती है-'अपनी थाली से रोटी क्यों निकालते हैं ? क्या मुझ पर भरोसा नहीं है ! मैं खिला दूँगी न कुत्तों को।' अभय बाबू हँसते हुए कहते हैं-'रोटी न निकाली तो मेरा पेट ही नहीं भरता!'
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2.1.14

टिंबकटूं, शेखचिल्ली और चिलगोजर


तीन मित्र थे- टिंबक टूं, शेखचिल्ली और चिलगोजर। नाम से ऐतराज हो तो आप अपने सुविधानुसार दूसरे नाम भी समझ सकते हैं। मैने ये नाम इसलिए दिये कि मुझे बहुत प्रिय थे और कहीं अपने बचपन में किसी कथा-कहानी को पढ़ते हुए दिमाग में बैठ गये थे। मेरे इन पात्रों में टिंबकटूं सबसे चालाक, शेखचिल्ली सबसे मूर्ख और चिलगोजर सबसे हिम्मती था। मैने इन पात्रों को तब गढ़ा था जब मेरी दोनो बेटियाँ बहुत छोटी थीं। उन्होने बोलना सीख लिया था और तोतली जुबान में तब मुझसे लिपट जातीं जब मैं ऑफिस से घर आकर सब्जी और दूसरे घर के सामाने का झोला पटक कर चाय पीने बैठता। श्रीमती जी लम्बी सांस लेतीं और कीचन में यह कहते हुए घुस जातीं-अब आप संभालिये! मेरी मजबूरी थी कि मैं उन्हें देर तक झूठी-मुठी कहानियों में भुलाता रहता। यदि ऐसा न करता तो समय से भोजन मिलना संभव ही नहीं था। मैं शुरू करता-तीन मित्र थे..तभी कोई बोल पड़ता- आं आं पता है तिबंकतू, थेखतिल्ली औsss...तिलगोदर। आगे बताइये... :) 

तीनो में घनिष्ट मित्रता थी। कोई टोकता ..घनित माने ? मतलब.. खूब मित्रता थी। …अत्ता। तीनो तुम लोगों से अधिक बड़े नहीं थे। आठ-दस साल के होंगे। एक दिन पता है क्या हुआ! टिंबकटूं ने नदी किनारे मछली पकड़ने की योजना बनाई। सबको सूर्योदय के समय बुला लिया और बैठ गया नदी में बंसी डाल कर। छोटी बिटिया बीच में ही टोक देती.. बंती तो आप बजाते हैं न पापा ! उतते तिबंकतू मतली कैते पकल तकता है ? तब तक बड़ी समझाती- तिंबकतूं पापा की तलह बंती बदाता होगा..मतलियाँ तुनने के लिए आतीं होंगी, तिलगोदर और थेखतिल्ली दौल कल पकल लेते होंगे, है न पापा ? 

मैं माथा पीट लेता। दोनो की टोकाटेकी के कारण जो कहानी सोच रहा होता वह सब भूल जाता लेकिन प्रश्न ऐसे होते की बिना बताये आगे बढ़ा ही नहीं जा सकता। मैं समझाता-वो दूसरी वाली बंसी होती है। एक लम्बी-सी डंडी होती है। जसमें एक तरफ मछली को फंसाने के लिए एक मजबूत धागा लटका होता है। जिसमें लोहे का कांटा बंधा होता है। कांटे में मछली को खाने के लिए कुछ फंसा देते हैं, जिसे चारा कहते हैं। फिर धागे को पानी में डुबो देते हैं और डंडी को पकड़ कर नदी किनारे बैठ जाते हैं। मछली चारा खाने के लिए आती है और कांटा उसके मुँह में फंस जाता है। कांटे में मछली के फंसते ही डंडी भारी लगने लगती है और किनारे बैठा शिकारी झट से धागे को ऊपर खींच लेता है। मछली फँस जाती है। समझी? दोनो बिटिया एक साथ बोल पड़तीं-तमझ गये। तिबंकतू बहुत बदमात था! मतली को खाने का लालच देकल पकल लेता था! 

मैं समझाना चाहता-हाँ बेटा। जबसे यह दुनियाँ बनी है तभी से चालाक और ताकतवर, कमजोर और सीधे लोगों को फँसाने का खेल खेलते आये हैं। यह दुनियाँ भी एक नदी की तरह है। जहाँ घाट-घाट पर बहुत से ‘टिंबकटूं’ बंसी लटाकाये बैठे हुए हैं। अपने आनंद के लिए मछली के गले में कांटा फँसाकर पकड़ना और खा जाना इनकी आदत है। सावधानी तो मछलियों को रखनी पड़ती है। लेकिन इतना ही कह पाता- जीव ही जीव का भोजन होता है। जंगल में बड़े जानवर, कमजोर को मारकर अपनी भूख मिटाते हैं। मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है। वह शिकार भी करता है और अन्न भी उगा सकता है। बहुत से लोग ऐसे हैं जो मछली पकड़कर, इनको बेचकर ही अपना और अपने परिवार का पेट भर पाते हैं। भूख मिटाने के लिए शिकार करना उनकी मजबूरी है। सिर्फ आनंद लेने के लिए दूसरे जीवों को कष्ट देना गलत बात है। टिंबकटूं सिर्फ आनंद लेने के लिए मछली पकड़ रहा था। इसलिए तुम लोगों का कहना सही है। टिंबकटूं बदमाशी कर रहा था। 

आगे जानती हो क्या हुआ? (अब मैं जल्दी-जल्दी कहानी पूरी करना चाहता था। कीचन में पक रहे भोजन की खुशबू आने लगी थी।) एक बड़ी-सी मछली जाल में फँस गई। टिंबकटूं चीखा- भारी मछली फँसी है। पकड़ो-पकड़ो। वह चीखकर कहना चाहता था कि मछली भारी है जल्दी से डंडी पकड़ो नहीं तो मैं ही पानी में गिर जाउँगा लेकिन शेखचिल्ली तो मूर्ख था ही। उसने समझा टिंबकटूं मछली पकड़ने के लिए कह रहा है। वह खुद ही दौड़कर नदी में कूद गया मछली पकड़ने के लिए। 

दोने बेटियाँ जोर-जोर से हँसने लगतीं। छोटकी कहती-उतको तो तैलना आता है। बड़की कहती-लेकिन कपला तो भीग ही गया न! मैं कहता-फिर जानती हो क्या हुआ ? शेखचिल्ली मछली को नहीं, मछली शेखचिल्ली को पकड़कर नदी में ले जाने लगी! 

दोनो चीखतीं- धूत! धूत! 

मैं समझाता-मेरा मतलब है कि मछली इत्ती बड़ी और ताकतवर थी कि शेखचिल्ली उसे पकड़कर ला ही नहीं पा रहा था और लालच में छोड़ भी नहीं रहा था। दोनो अचरज से पूछतीं- तब का हुआ ? मैं समझाता-चिलगोजर को भूल गई? चिलगोजर ने देखा तो दौड़कर नदी में कूदा और मछली को पकड़ लिया। इतने में टिंबकटूं भी आ गया। फिर तीनो मिलकर मछली को पकड़ कर किनारे ले आये। पानी से बाहर निकलते ही मछली छटपटाने लगी। शेखचिल्ली मछली को छटपटाते देखकर बोला-लगता है मछली को ठंडी लग रही है! तभी इत्ता कांप रही है!!!  टिंबकटूं को उसकी बात सुनकर गुस्सा आ गया। वह शेखचिल्ली को मारने के लिए दौड़ा-मूर्ख! यह पानी से निकलने के कारण छटपटा रही है और तुम कह रहे हो कि इसे ठंडी लग रही है!!! चिलगोजर ताली पीट-पीट कर हँसने लगा। इत्ते में जानती हो क्या हुआ? 

दोनो आँखे फाड़कर - का हुआ? 

मछली छटपटाते-छटपटाते फिसलकर पानीं में गिर गई। मछली को पानी में गिरते तीनो ने देखा तो फिर से दौड़ पड़े पकड़ने के लिए। लेकिन जानती हो क्या हुआ? 

… का हुआ? 

मछली पानी में भाग गई! इतना सुनते ही दोनो खुशी के मारे चीखने-उछलने लगीं। हो हल्ला सुनकर बच्चों की अम्माँ कमरे में आ गईं- क्या हुआ? 

दोनो हाथ नचाकर बोलीं-मतली पानी में भाग गई! 

बहुत देर तक दोनो का नाटक चलता रहता। एक पूछती-का हुआ? दूसरी कहती-मतली पानी में भाग गई!  

मैं मनाता-हे ईश्वर! इनकी हँसी यूँ ही सलामत रहे। मछलियाँ कभी किसी लालच में न फँसें और अगर फँस भी जायें तो शिकारियों को चकमा देकर भागने में कामयाब हो जायें।

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