12.10.14

भय

अँधेरे से,
गली में भौंकते 
कुत्तों से,
छत पर कूदते 
बंदरों से,
खेत में भागते 
सर्पों से,
अब डर नहीं लगता।

दुश्मनों के वार से,
दोस्तों के प्यार से,
खेल में हार से,
दो मुहें इंसान से,
डर नहीं लगता।

जान चुका हूँ
मान/अपमान
सुख/दुःख
मिलता है
इस जीवन में ही,
भूत या भगवान से
अब डर नहीं लगता।

माँ और मसान
दोनों की गोद में
भूल जाता है प्राणी
अपना अभिमान
दोनों का होना भी तय
मगर दिल है
कि मानता नहीं
भयभीत होने के सौ बहाने 
ढूँढ ही लेता है!
न जाने मुझे
किस बात का भय रहता है!!!

14 comments:

  1. जो अनजाना है उसी का भय ----बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
    साजन नखलिस्तान

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  2. भय एक अव्यक्त सोच है
    जो उन सारी संभावनाओं से डरता है
    जिनसे हम नहीं डरने की बात करते हैं

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  3. बहुत सुंदर

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  4. सुदंर प्रस्तुति. बधाई

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  5. सबकुछ जानकर भी अनजान बने रहना इंसानी फिदरत है ..
    बहुत बढ़िया

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (13-10-2014) को "स्वप्निल गणित" (चर्चा मंच:1765) (चर्चा मंच:1758) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. हर कसी के अंदर भय है !
    सुंदर रचना !
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
    कृपया फॉलो कर औने सुहजाव दे

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  8. सच कहा है ... अक्सर पाता ही नहीं होता की क्यों डरता है इंसान ... शायद खुद से ही डरता है अन्दर अन्दर ...

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  9. भय लगता है तो कारण भी होगा ही...खाली हाथ जाना है का नहीं, तो जाना है.... इसका....

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    1. न खाली हाथ जाने का भय है न जाने का भय है लेकिन एक बात तो सच है कि भय है तो कारण भी होगा।

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  10. मानव की मूल वृत्तियों में भय भी शामिल है, कारण बाद में पता लगता है छा जाता है पहले ही !

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  11. नेताजी को भी डर लगे तो अच्छा हो.

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