अँधेरे से,
गली में भौंकते
कुत्तों से,
छत पर कूदते
बंदरों से,
खेत में भागते
सर्पों से,
अब डर नहीं लगता।
दुश्मनों के वार से,
दोस्तों के प्यार से,
खेल में हार से,
दो मुहें इंसान से,
डर नहीं लगता।
जान चुका हूँ
मान/अपमान
सुख/दुःख
मिलता है
इस जीवन में ही,
भूत या भगवान से
अब डर नहीं लगता।
माँ और मसान
दोनों की गोद में
भूल जाता है प्राणी
अपना अभिमान
दोनों का होना भी तय
मगर दिल है
कि मानता नहीं
भयभीत होने के सौ बहाने
ढूँढ ही लेता है!
न जाने मुझे
किस बात का भय रहता है!!!
जो अनजाना है उसी का भय ----बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteसाजन नखलिस्तान
भय एक अव्यक्त सोच है
ReplyDeleteजो उन सारी संभावनाओं से डरता है
जिनसे हम नहीं डरने की बात करते हैं
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुदंर प्रस्तुति. बधाई
ReplyDeleteक्या बात है :)
ReplyDeleteसबकुछ जानकर भी अनजान बने रहना इंसानी फिदरत है ..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (13-10-2014) को "स्वप्निल गणित" (चर्चा मंच:1765) (चर्चा मंच:1758) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद।
Deleteहर कसी के अंदर भय है !
ReplyDeleteसुंदर रचना !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
कृपया फॉलो कर औने सुहजाव दे
सच कहा है ... अक्सर पाता ही नहीं होता की क्यों डरता है इंसान ... शायद खुद से ही डरता है अन्दर अन्दर ...
ReplyDeleteभय लगता है तो कारण भी होगा ही...खाली हाथ जाना है का नहीं, तो जाना है.... इसका....
ReplyDeleteन खाली हाथ जाने का भय है न जाने का भय है लेकिन एक बात तो सच है कि भय है तो कारण भी होगा।
Deleteमानव की मूल वृत्तियों में भय भी शामिल है, कारण बाद में पता लगता है छा जाता है पहले ही !
ReplyDeleteनेताजी को भी डर लगे तो अच्छा हो.
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