आज ट्रेन छूट गई। चाय पीने के चक्कर में छूटी, पान खाने के चक्कर में छूटी, मॉर्निंग वॉक में धमेख स्तूप का एक चक्कर अधिक लगाने के चक्कर में छूटी या श्रीमती जी के देर से नाश्ता देने के चक्कर में छूटी पर यह अब आइने की तरह साफ़ है कि मेरी 49अप छूट गई। वो जा रही है प्लेटफॉर्म नम्बर 5 से! दिख रही है अंतिम बोगी।
बाइक खड़ी कर जब दौड़ रहा था स्टेशन की ओर तभी दिमाग में यह ख़याल कौंध रहा था कि आज तो ट्रेन छूट गई! फिर भी एक उम्मीद में दौड़ रहा था कि भारतीय रेल है, 5-10 मिनट तो तब भी लेट छूटती है जब सही समय पर आती है तो भला आज कैसे सही समय पर छूट जायेगी! मगर हाय! जब मैं पुल पर चढ़ रहा तब वह अंगूठा दिखाते हुए रेंग रही थी। प्लेटफॉर्म पर पहुँचते-पहुँचते सतीश जी तरह दौड़ने लगी! मैं भी आख़िरी दम तक दौड़ रहा था कि शायद चलते-चलते रुक ही जाय! किसी और की भी छूट रही हो और कोई चेन पुलिंग ही कर दे! मगर हाय! फाइनली छूट ही गई। जब रुका तो एहसास हुआ कि अकेले मेरी ही नहीं छूटी थी, दो और रोज के यात्री दौड़ रहे थे, उनकी भी छूटी थी! उन्हें देख कुछ दुःख कम हुआ। अकेला मैं ही नहीं हूँ जिसकी ट्रेन छूटती है! दौड़ते-दौड़ते थक चुका था। बेंच पर बैठ गया। वे नहीं बैठे। वे फिर दौड़ने लगे! मैंने पूछा-अब काहे दौड़ रहे हैं? अब तो ट्रेन छूट ही गई! वे बोले-बस पकड़ने! मैंने कहा-नमस्कार!
बेंच पर बैठा रेल की पटरियों को देखने लगा। एक मालगाड़ी दायें से बायें गई। एक मालगाड़ी बायें से दायें गई। मालगाड़ी न हुई राजनैतिक पार्टियों की सदस्यता हुई ! इधर से उधर, उधर से इधर।
प्लेटफॉर्म पर साफ सफाई चकाचक है। प्रधान मंत्री जी का स्वच्छता अभियान झलक रहा है। लोग जागरूक हुए हैं। एक लड़की मूंगफली खा कर छिलके अपनी गोदी में ही रख रही है।
सन्नाटे के बाद प्लेटफॉर्म पर फिर भीड़ जुटने लगी। प्रसिद्द वैवाहिक लान में जैसे बिदाई के बाद सुबह सन्नाटा और दिन शुरू होते ही चहल-पहल शुरू हो जाती है वैसे ही प्लेटफॉर्म पर एक ट्रेन जाने के बाद सन्नाटा और दूसरी ट्रेन आने से पहले गहमा-गहमी बढ़ जाती है। जब बैठा था तो बेंच खाली थी। अब अगल-बगल अपरिचित यात्री आ कर बैठ चुके हैं। अपरिचित यात्रियों से बात नहीं करनी चाहिए, इस शिक्षा का असर दिखता है। ये मुझे लिखने में डिस्टर्ब नहीं कर रहे। एक भिक्षा का धंधा करने वाला ढोंगी व्योपारी आकर सामने दीन-हीन सूरत बना कर खड़ा हो गया। दूसरे से पैसे माँगा, मुझसे नहीं माँगा। देख कर संतोष हुआ। कम से कम भिखारी व्योपारियों के निगाह में रोज के यात्रियों की अलग ही इज्जत है!
घड़ी पर ध्यान टिका है। दूसरी ट्रेन 15 मिनट लेट है। कैसे-कैसे ख़याल आने लगे- मेरी वाली को ही सही समय पर जाने की जल्दी थी! इसकी तरह वो लेट नहीं हो सकती थी!!! अनाउंस हो रहा है-यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है। मैं क्या कहूँ! मैं तो सही समय वाली ट्रेन का छूटा हुआ यात्री हूँ।
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आज कोहरा रंग में है। सुबह मेरी हावड़ा-अमृतसर को उलझा दिया और शाम को तो गुम ही कर दिया। पता नहीं कहाँ है! गंगा सतलज आई कोहरे को चीरती, सीटी बजाती, गुनगुनाती -आजा! मेरी बोगी में बैठ जा। मैं लपक कर बैठ गया। बैठ कर सोचने लगा-आज का दिन ही खराब है। 10 मिनट पहले आता तो 5.30 में फरक्का मिल जाती। सभी साथी उसी से चले गये। अब तक तो वे घर भी पहुँच गये होंगे। यह आई भी तो देर से। अब चल भी रही है तो हंस की चाल। एक स्टेशन पर रुकती है तो देर तक रुकी रहती है। लगता है खड़ी हो कर फोन लगाती होगी अपनी सहेलियों को-हाय! फिफ्टी तुम कैसी हो? मैं जफराबाद आ गई, तुम कहाँ फंसी हो ? बहुत कोहरा है न! सम्भल कर चलना। इन यात्रियों की चीख-पुकार से तनिक न घबड़ाना। बोलना-पहुँचा रही हूँ न, यही क्या कम है! फिफ्टी डाउन बोल रही होगी-मैं तो वहाँ रात 12 बजे तक पहुंचुंगी। अभी सुलतानपुर में सो रही हूँ। मेरी फिकर न करो, मन करे तो एक नींद ले लो तुम भी। ये यात्री तो ऐसे होते ही हैं। अभी लड़-भिड़ जाओगी तो सब तुम्हें ही कोसेंगे।'
ट्रेन जफराबाद से आगे बढ़ रही है। यह अच्छी बात हुई कि फिफ्टी से बतिया कर संतुष्ट हो गई। कहीं किसी पैसिंजर ट्रेन से बतियाने लगती तब क्या होता! वो तो सुबह उठने की सलाह देती। बहुत चीख रही है। लगता है जलाल गंज का पुल आने वाला है। ऐसे चल रही है जैसे पहली बार कोई पुल पार कर रही हो!
बोगी में अजीब मुरदैनी छाई है। सामने साइड लोवर की बर्थ पर कोई कम्बल ओढ़े जोर-जोर से खर्राटे भर रहा है। ट्रेन का हारन और उस यात्री के खर्राटे अजीब सी संगत भिड़ा रहे हैं! एक यात्री कान में तार ठूंस कर मोबाइल में डूबा है। दो ऊँघ रहे हैं। बगल के साइड लोवर बर्थ पर बैठे यात्री ने अपनी पॉलिथीन से ठेकुआ टाइप का कुछ निकाल कर अभी-अभी मुँह में डाला है। चबाने की चप-चप सुनाई पड़ रही है। दूर आगे बच्चों की आवाज सुनाई पड़ रही है। अभी पीछे की बर्थ से किसी ने रोनी आवाज में अपने साथी से कहा है-बनारस पहुँचने में रात के 10 बजेंगे। खिड़कियों के शीशे बंद हैं। ट्रेन का हारन और रेल पटरी की खटर-पटर ही सुनाई पड़ रही है।
अभी खालिसपुर में रेंगती खड़ी हुई है। स्टेशन पर रोशनी के साथ घुले कोहरे को देख एहसास हो रहा है कि कोहरा घना है। यहाँ भी देर से रुकी है। एक ट्रेन धड़धड़ाते बगल से गुजरी है, मैं रुकी ट्रेन के यात्री की तरह तड़पा हूँ। कुछ बनारसी अब अपनी भाषा में चीखने लगे हैं। मतलब ट्रेन को गरियाने लगे हैं। ट्रेन पर इसका कोई असर नहीं। लगता है यह पीछे आ रही गोंदिया से बतिया रही है-आजा-आजा मैं तुझे पास दूँ! अब चल दी। गोंदिया ने पास लेने से इनकार किया होगा। कहा होगा-तू चल! मैं आई। अभी तो आधी दूरी तय हुई है। सही समय पर पहुंचाती तो मैं भी आज एक शादी का बराती होता! मूँगफली वाला गुज़रा है। भूख लग रही है। ठहरिये! मूंगफली तो खा लूँ, पता नहीं आज ये पहुँचे न पहुंचे!
ट्रेन रुकी है। इसको रुकना नहीं था मगर रुकी है। चलना नहीं होगा तो चलेगी। सब कुछ सरकारी नियंत्रण में थोड़ी होता है! देश भगवान भरोसे भी चलता है।
अपनी तरक्की और ट्रेन के बीच गहरा साम्य है। कुछ भोले भाले लोग जो अपने देश की व्यवस्था से परिचित नहीं हैं, पूछते हैं-नौकरी करते-करते 28 साल हो गए आपकी तरक्की क्यों नहीं हुई ? कभी-कभी सोचता हूँ रेलवे स्टेशन वाला टेप सुना दूं-यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है! मतलब मेरी तरक्की न होने से जो आपको असुविधा हुई इसके लिए खेद है।
अरे! जितनी देश कि तरक्की हुई उतनी मेरी भी हुई। क्या मैं देश से अलग हूँ। साइकिल से मोटर साइकिल में आ गया। तार से दूर संचार में आ गया। मोबाइल चलाता हूँ, कम्पूटर चलाता हूँ, वाई-फाई चलाता हूँ, क्या कम है? देश ही कौन अमरीका बन गया?
आजादी से पहले बनारस से बलिया रेलवे लाइन सिंगल ट्रैक थी, आज भी है। नदी का पानी पीने लायक नहीं रहा तो पानी की बोतल खरीद ही लेता हूँ। जैसी तरक्की देश की वैसी अपनी। मैं देश से अलग थोड़े न हूँ।
मैं कोई सफल नेता तो हूँ नहीं की रातों रात आम से ख़ास बन जाउँ! और नेता से मेरी तुलना करना अच्छी बात नहीं । माता पिता ने पढ़ाया न होता, किसी कम्पटीशन में पास न होता और ट्रेन में चाय बेचता तो हो सकता है नेता बनने और तरक्की के बारे में सोचता। मेरी नहीं हुई तो मेरी तरह किसी दुसरे मेधावी छात्र की हुई? एकाध पायदान ऊपर उठकर अफसर हो गया होगा और क्या? उनकी पत्नी से जा कर पूछिए, यही जवाब मिलेगा- ये किसी काम के नहीं! अपनी कभी तरक्की नहीं हो सकती।
अब कोहरे की वजह से ट्रेन लेट हो जाय तो इसमें रेलवे का क्या दोष? यह एक वाजिब वजह है ट्रेन लेट होने की। बेवजह लेट हो सकती है तो फिर जब वजह सामने हो तो क्या शिकायत करना? 2 घण्टे का सफर 4 घण्टे में कटे लेकिन क्या रेलवे ने अधिक किराया माँगा? किसी होटल में 1 घंटा अधिक रुक कर देखिये! ये तो रुक-रुक कर दूर-राज्य के यात्रियों से बतियाने, उनकी भाषा सीखने और देश के हालात पर सामाजिक चिंतन करने का मुफ़्त अवसर उपलब्ध करा रही है। आप हैं कि बेवजह शिकायत पर शिकायत किये जा रहे हैं!
घने कोहरे को चीरती अपनी #ट्रेन चली जा रही है। धनबाद लुधियाना (किसान) जो सुबह 5 के आस पास बनारस आती है 7 बजे आई। 49 अप लेट है। #रोजकेयात्री कोहरे में और सुबह घर से निकल पड़ते हैं। ट्रेन के अनुसार अपना शेड्यूल निर्धारित होता है। इस समय सभी ट्रेने लेट हो जाती हैं।
लोहे के घर की बंद शीशे की खिड़कियों से दूर-दूर तक कोहरे में डूबे खेत दिखाई दे रहे हैं। रोज के यात्री अपने-अपने अंदाज़ में समय बिता रहे हैं। आशुतोष अपना कल का रोना रो कर चुप हुए और अब मोबाइल में हनुमान चालीसा सुन रहे हैं। अशोक जी अपनी रात की नींद पूरी कर रहे हैं। दुर्गेश भाई मोबाइल में टीवी देख कर थके, अब सबको जगा रहे हैं। कोई अखबार पढ़ रहा है, कोई अपनी मोबाइल में फेसबुक अपडेट कर रहा है और कोई ऑफिस की योजना बना रहा है।
मनीष भाई अभी बाहर का नजारा ले कर आये हैं। जफराबाद के पास पहुँच चुकी है ट्रेन। अधिकतर लोग यहीं उतरते हैं। भूखे पेट भाग रहे रोज के यात्रियों की ऊर्जा देखते ही बनती है। कुछ लोग 3 किमी पैदल ही ऑफिस जाने की योजना बना रहे हैं। कोई कह रहा है-इतनी जल्दी क्या करेंगे ऑफिस जा कर? अभी तो चपरासी भी नहीं आया होगा!
शुभ दिन।
ट्रेन के बहाने देश दुनिया की हालातों का सटीक व रोचक चिंतनशील चित्रण
ReplyDeleteआम आदमी के लिए आम ट्रेन...
शुक्रिया।
Deleteबहुत रोचक यात्रा विवरण..न जाने कितने मुसाफिर रोज ही ट्रेन में सफर करते हैं..इसकी चाल-ढाल को समझते हैं, किसी देश की नब्ज को समझने का अच्छा-खासा साधन है रेल..
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteरोजमर्रा का ढर्रा आपने बहुत ही रोचक ढंग से सुनाया। वाकई रोज रोज ट्रेन का सफ़र नए नए अनुभव देता है , लेकिन ट्रेन्स उन्ही मुसीबतों से जूझते हुए हमारी सेवा में लगी रहती हैं। देखा जाये तो कुदरत के आगे तो विमान भी बेबस हो जाते हैं , फिर ये तो भारतीय रेल हैं।
ReplyDeleteवैसे रोहतक से दिल्ली आने वाले रोज के यात्री ताश खेलकर बहुत आनंद उठाते हैं। ट्रेन चले या रुकी रहे , उनकी बला से !
यहाँ भी एक ग्रुप है जो तास खेलकर समय बिताता है।
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