गंगा की लहरें, नाव, बाबूजी और तीन बच्चे। इन तीन बच्चों में मैं नहीं हूँ। तब मेरा जन्म ही नहीं हुआ था।
बाबू जी के मित्र थे स्व0 अमृत राय जी। शायद अपनी साहित्यिक गतिविधियों से पीछा छुड़ाकर यदा-कदा बाबूजी से मिलने ब्रह्माघाट आते। शाम को नैया खुलती और लालटेन की रोशनी में देर शाम तक जाने क्या बातें होती!
तब मैं छोटा बच्चा था। मेरी समझ में कुछ न आता। अमृत राय से बाबूजी की कैसी मित्रता! बाबूजी को धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी पढ़ने के अतिरिक्त अन्य किसी साहित्यिक गतिविधी में हिस्सा लेते नहीं देखा। मैं भी अमृत राय के बारे में कुछ जानता न था। उन्हें कभी भाव नहीं देता। वे परिहास करते-कभी तुम्हारे बाबूजी से मेरी कुश्ती हो तो कौन जीतेगा? मैं ध्यान से दोनों को देखता। अमृत राय, बाबूजी से खूब लम्बे, मोटे-तगड़े थे। मैं उनकी बातें सुन हंसकर भाग जाता। कई बार ऐसा हुआ तो एक दिन मुझसे भी रहा न गया। झटके से बोल ही दिया-बाबा आपको उठाकर पटक देंगे!
बाबूजी मेरा उत्तर सुन अचंभित हो मुझे डांटने लगे-तुमको पता भी है किससे बात कर रहे हो? ये मुंशी प्रेम चन्द्र जी के पुत्र हैं। जिनकी कहानियाँ तुम्हारे कोर्स की किताब में पढ़ाई जाती है। चलो! माफी मागो। मैं कुछ कहता इससे पहले अमृत राय जी ने मुझे गोदी में उठा लिया और हंसकर बोले-अरे! बिलकुल ठीक उत्तर दिया लड़के ने। यही उत्तर मैं इसके मुँह से सुनना चाहता था।
पिताजी की मृत्यु 8 जून 1980 के बाद अमृत राय जी का एक अन्तरदेसीय शोक सन्देश आया था और कुछ याद नहीं।
ऐसे इंसानों के साथ बिताये पल भूलते नहीं हैं ...
ReplyDeleteबहुत रोचक संस्मरण !
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ReplyDeleteउस समय के लोग जैसे सरल और सहज होते थे, वैसे अब न देखने को मिलते हैं न सुनने में आते हैं। .
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति .
कुछ लोग कुछ यादें, हमेशा याद रहती हैं।
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