वो धूप है कि खेत में आदमी, पँछी या जानवर कोई नज़र नहीं आ रहा। दूर झुग्गी में बेना डुलाती दादी और आम की छाँव में जुगाली करती भैंस दिखी थी बस्स। खेत सूने हैं। गाँव का श्रम शहर में घूमने नहीं, मजूरी करने गया होगा। शहरी पहाड़ ढूँढ रहे होंगे। पहाड़ी कारों के काफिले से काले हो रहे हिमालय को देख रहा होगा। सुरुज नारायण मस्ती में हैं..भागो-भागो, कहाँ तक भागोगे?
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#फिफ्टी की जिस बोगी में जहाँ बैठा था वहाँ भीड़ बहुत थी। वैष्णव देवी और बाघा बार्डर के दर्शन कर खुशी-खुशी लौट रहा था एक बिहारी परिवार। वे मैथली में बोल रहे थे। उनके साथ बच्चे और बूढ़ी दादी भी थी।
उनकी एक समस्या थी..पानी। गर्मी से बेहाल प्यासे बच्चों और बूढी दादी के लिए पानी। इतने पैसे वाले भी नहीं थे कि सबके लिए बिसलरी की बोतल खरीद सकते। हिम्मत कर के महिला ने एक बोतल 20 रुपये में खरीदी और बच्चों की प्यास बुझाई। अभी और भी प्यासे थे।
हर स्टेशन पर पानी के लिए महिला का उतरना और #ट्रेन की सीटी की आवाज पर भाग कर खाली बोतल हिलाते हुए मायूस लौटना देखा न जाता। महिला के साथ उनका पति और दूसरे युवा भी थे मगर उन्हें कोई फर्क नहीं! नई मिल्छे हेने पानी..ऐसा ही कुछ बोल कर अपनी औरत को भी मना कर रहा था जाने से। मैंने जब समझाया कि इधर छोटे-छोटे टेसन पर ट्रेन अधिक देर नहीं रुकती। बनारस पहुंच कर ले लेना। वहाँ आराम से मिल जाएगा तो वह बात समझ कर आराम से बैठ गई। पति समझाये तो महिलाएं बात जल्दी नहीं समझतीं। कोई और वही बात कह दे तो झट्ट से समझ मे आ जाता है।
उफ्फ! ये गर्मी और ये प्यास। घबड़ा कर उठा और दूसरी बोगी में घूमने लगा। दूसरी में भीड़ कम थी। खाली थे बर्थ। एक खिड़की से झाँका तो मस्ती से डूब रहे थे सुरुज नरायण। गर्मी, प्यास और पानी की समस्या के असली मुजलिम तो यही हैं! मैंने प्रमाम किया और एक तस्वीर हींच ली। ताकि जब सूर्यदेव पर मुकदमा चले तो सबूत दिखाने के वक्त काम आये।
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तू फिर कब चलेगा #escalator? #कैंट स्टेशन #वाराणसी के प्लेटफॉर्म नम्बर 9 के बाहर जब तू बन कर तैयार हुआ था, कितने खुश थे मेरे घुटने! एक दिन सुबह जब मैं #ट्रेन पकड़ने आया तब तू चल रहा था! मैंने खड़े-खड़े हवा में तैर कर चढ़ी थीं पूरी सीढ़ियां। कितना धन्यवाद दिया था #रेलवे को! भले रोज लेट चलाता है ट्रेन मगर विकास का काम भी हो रहा है। सज्ज हो रहे हैं प्लेटफॉर्म। सुविधाएँ बढ़ रही हैं। लेट की तकलीफ चुनाव तक कौन याद करता है! चुनाव के समय तो काम बोलता है।
हाय! वो दिन था और आज का दिन। महीना, महीनों में बदल रहे हैं। क्या बनाने वाला इसमें प्राण फूँकना भूल गया? क्या इसकी सीढ़ियों को किसी देवता के चरण रज की दरकार है? आखिर तू कब तक हाथी के दांत की तरह मुँह चिढ़ाता रहेगा? देख! यह आदमी तेरी सीढ़ियों पर अपने दम पर चलकर तेरी नपुंसकता का मजाक उड़ा रहा है! मुझसे तेरी बेइज्जती देखी नहीं जाती। तू कब चलेगा मेरे escalator?
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