20.1.18

लोकतंत्र का बसंत

काशी में मराठी भाषा का एक कथन मुहावरे की तरह प्रयोग होता रहा है.. "काशी मधे दोन पण्डित, मी अन माझा भाऊ! अनखिन सगड़े शूंठया मांसह।" जजमान को लुभाने के लिए कोई पण्डित कहता है.. काशी में दो ही पण्डित हैं, एक हम और दूसरा हमारा भाई। बाकी सभी मूर्ख मानव हैं। ऐसे ही हमारे देश के लोकतंत्र में भी दो संत पाए जाते हैं। एक अ संत दूसरा ब संत। बाकी रही विद्वान जनता जिनकी गलतियों के कारण ही दोनों संत निरंतर मोटाते रहते हैं। इसे यूं समझा जाय कि लोकतंत्र एक बड़ा सा घर है जिसमें अ संत और ब संत दो भाई रहते हैं। जहां असंत है, वहीं बसंत है। जनता जजमान की तरह कभी इनसे छली जाती है कभी उनसे।

जनता अपना काम लेकर कभी अ संत के पास जाती है कभी ब संत के पास। अ संत के पास जाने वाली जनता समझती है कि अ संत ही उसके घर में बसंत ला सकता है। ब संत के पास जाने वाली जनता समझती है कि अ संत तो इसका भाई ही है, वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा ब संत ने चाहा तो मेरे घर भी बसंत आ ही जाएगा।

भारत का लोकतंत्र एक बहुत बड़ा घर है। इसके चार बड़े बड़े खंबे हैं। ये खंबे इतने मजबूत हैं कि अ संत और ब संत के हरदम बसंत मनाने के बावजूद भी ज्यों का त्यों मजबूत बना हुए हैं। कभी कोई खंबा अ संत की कारगुज़ारियों से कराहता है, कभी कोई खंबा ब संत की कारगुज़ारियों से लेकिन मुश्किल वक़्त में बाकियों के सहारे चारों खंबे मजबूती से लोकतंत्र को टिकाए रखते हैं।

पहले हमारे देश में बहुत से संत रहते थे। कोई अ संत और ब संत नहीं था। भारत का लोकतंत्र उन्हीं संतों की तपस्या का परिणाम है। अब इसमें संत के बेटों अ संत और ब संत का राज चलता है। बारी बारी से दोनों बसंत मनाते हैं और जनता कभी इनकी जय जयकार करती है, कभी उनकी।

प्रकृति का बसंत हर साल आता है। वीरों का बसंत तब आता है जब उन्हें युद्ध के मैदान में जौहर दिखाने का अवसर मिलता है। विद्यार्थी तब बसंत मनाते हैं जब परीक्षा में पास होते हैं। लेखकों का बसंत उनकी नई पुस्तक के लोकार्पण के दिन होता है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र का बसंत पॉच साल में एक बार आता है जब देश में चुनाव होते हैं। प्रकृति का बसंत तो पतझड़ के बाद आता है मगर लोकतंत्र में पतझड़ और बसंत दोनो साथ साथ आते हैं। जो पार्टी हारती है उसके पतझड़ के दिन शुरू हो जाते हैं, जो जीत जाती है उनके पत्ते लहलहाने लगते हैं। इस प्रक्रिया को संत और असंत दोनों लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस देश में चुनाव ही नहीं होते उस देश का राजा तानाशाह हो सकता है लेकिन लोकतंत्र में भी हारने वाला, शासक दल को तानाशाह घोषित करवाने में लगा रहता है। लोकतंत्र के चारों खंबों पर बारी बारी से पोस्टर चस्पा किए जाते हैं.. लोकतंत्र खतरे में है!

भारत का लोकतंत्र जितना ताकतवर माना जाता है उतना ही कमजोर भी होता है। जरा सी कुछ बात हुई कि खतरे में पड़ जाता है। लोकतंत्र न हुआ भारतीयों का कमजोर अंग हो गया जो हर बात पर फटने लगता है! लोकतंत्र के खतरे में पड़ने का ज्ञान विपक्ष को ही होता है। सत्ता पक्ष तो हमेशा सुदृढ़ लोकतंत्र का ढिंढोरा ही पीटता पाया जाता है। सत्ता पक्ष लोकतंत्र का बसंतोत्सव मनाता है तो विपक्ष लोकतंत्र के पतझड़ की तरह झड़ता रहता है। लोकतंत्र के चारों खंबे जब जब अपना दुखड़ा रोते हैं, विपक्ष तपाक से उनके सुर में सुर मिलाते हुए जनता को भड़काता फिरता है.. लोकतंत्र खतरे में है! विपक्ष की आदत दूसरे के फटे में टांग अड़ाने की है और सत्ता पक्ष सूई धागा लेकर आम जनता के फटे को सीने के लिए दौड़ता भागता दिखने की कोशिश करता है।

विपक्ष का मजबूत होना अच्छे लोकतंत्र की निशानी माना जाता है। अभी भारत में विपक्ष कमजोर है शायद इसीलिए लोकतंत्र बार बार खतरे में पड़ रहा है। विपक्ष तगड़ा हुआ तो सत्ता कमजोर पड़ने लगती है। चुनाव के समय अपने दम पर सरकार बना लेने का दावा करने वाली पार्टियां गणित कमजोर पड़ने पर विपक्षी पार्टियों को तोड़ती मेल जोल करती दिखने लगती है। सरकार बनने के बाद शेष बची हुई पार्टियां विपक्ष में आ जाती हैं और आपस में मिलकर तगड़ा विपक्ष बनने का प्रयास करती हैं। बड़े दंभ से कहती हैं.. आपस में मेल जोल न होई त चली का?

आम आदमी जिसकी पहुंच रोटी, कपड़ा और मकान के आगे सुबह के अखबार/शाम के टीवी तक है वे तो 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के दिन ही लोकतंत्र का बसंतोत्सव मना कर खुश हो लेते हैं। हम भी न अ संत हैं न ब संत। थोड़ा लिखना पढ़ना जान गए हैं। लोकतंत्र के बसंतोत्सव से दो चार फ़ूल मिल गए इसी में खुश हैं। हम भी बस यही मंगल कामना कर सकते हैं कि हमारे महान संतों की घनघोर तपस्या से जो यह लोकतंत्र की बगिया खिली है इसमें से एकाध फूल उन अभागों को भी मिले जिन्हे आजतक पतझड़ और कांटों के सिवा कुछ भी नसीब नहीं हुआ।

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