यह लोहे का घर जरा हट कर है। इसमें सभी गरीब ए.सी. में सफ़र करते हैं। कोई भेदभाव नहीँ। न जनरल, न स्लीपर सभी ए. सी. कमरे। नाम भी क्या बढ़िया! गरीब रथ । शाम को बनारस से चढ़कर सो जाओ, सुबह दिल्ली पहुंच जाओ। गरीबों के लिए भी दिल्ली दूर नहीं। समाजवादी कल्पना साकार होगी तो ऐसे होगी। चादर कम्बल चाहिए तो २५ रुपए और देने पड़ेंगे। आप स्वतंत्र हैं, टिकट लेते समय बुक कराएं या न कराएं। टिकट रिजर्व कराने में ही आप अत्यधिक गरीब हो चुके हैं तो बिना चादर के सो सकते हैं। कुछ लोग बिना चादर के भी सोए हैं। सभी गरीब को सफेद चादर कहां नसीब होता है!
अपन को नींद नहीं आती लोहे के घर में। पटरी और चक्कों की रगड़ धुन ध्यान भंग कर देती है। सोचा था रोज जनरल/स्लीपर में सफ़र करने वाला दिनभर का थका मांदा, गरीब रथ के ए.सी. बिस्तर में सोएगा तो मोबाइल बन्द हो धरी रह जाएगी और पलकें अपने आप बन्द हो जाएंगी। दो स्टेशन तो कंट्रोल किया मगर हाय! उंगलियां फिर मोबाइल पर चलने लगीं!!! यह कोई बीमारी तो नहीं लग गई हमें?
सभी गरीब सफेद चादर ओढ़कर सो रहे हैं और मुझे नींद नहीं आ रही। आगे के खाली बर्थ पर कुछ लोग अभी प्रतापगढ़ से चढ़े हैं। टिफिन निकाल कर रोटी सोटी खा चुके अब चादर के लिए लाइन लगाए हैं। एक आदमी चादर,कम्बल और तकिया ले कर आ रहा था तो बगल वाला अचानक से उठकर उससे चादर मांगने लगा! उसने हंसकर कहा.. मैं चादर देने वाला नहीं हूं भाई। चादर वहां मिल रहा है। उठकर चादर मांगने वाला शर्मिंदा हुआ..तब तक ओह! सॉरी सॉरी करता रहा जब तक अपना चादर ले कर आने वाले ने यह नहीं कह दिया..कोई बात नहीं, गलती सबसे हो जाती है। मेरी समझ में अभी तक यह नहीं आया है कि यह गलती उसकी है या व्यवस्था की! लेकिन एक बात समझ में आ गई कि गरीब कितने शरीफ होते हैं।
दिन में एक या दो घंटे के सफ़र में जब ट्रेन आधे घंटे के लिए रुक जाती है तो रोज के यात्री बेचैन हो प्लेटफॉर्म पर टहलने और स्टेशन मास्टर से देरी का कारण पूछने लगते हैं। रात में गरीब रथ के ए. सी. कमरे में सभी चैन से सो रहे और ट्रेन बहुत देर से न जाने किस स्टेशन पर रुकी पड़ी है। रात में ट्रेन रुक जाए तो लंबी दूरी के यात्री और भी आराम से गहरी नींद में चले जाते हैं! शायद उन्हें लग रहा है कि होटल के कमरे में बड़ी शांति है। लगता है लोगों को रात में पढ़ने की बीमारी नहीं है। तब रात में लिखना अंधेरे में तीर चलाने के समान है।
लोहे के घर में गुड मॉर्निंग हो रही है। सामने दो बिहारी युवा हैं। एक लेटा है दूसरा सट कर बैठा है और मोबाइल में बड़ी देर से अपनी गर्ल फ्रेंड से बातें कर रहा है। जो लेटा है वो बैठे वाले को छेड़ रहा है और ही ही ही ही कर रहा है। ए सी बन्द बोगी है शायद इसलिए कभी कभी लड़की की बोली भी सुनाई पड़ जा रही है। अब ऐसे में नींद न टूटे तो क्या हो? उनको कैसे कहा जाय कि डिस्टर्ब न करो! बरेली स्टेशन के आउटर पर देर से रुकी है #ट्रेन। इसी प्लेटफॉर्म पर एक लड़की ने बरेली की बर्फी खरीद कर घर से भागने का विचार त्याग दिया था। फिलिम की वो हीरोइन याद आ रही है और सामने बैठे युवक से मोबाइल में बात करती लड़की की आवाजें सुन रहा हूं। कुछ लड़कियां कितनी पागल होती हैं! नहीं जान पातीं कि लड़के उन्हें बर्फी समझते हैं और खाने के लिए ही चैट करते हैं।
बरेली से चली है ट्रेन। बहुत देर से अपना सामान लिए टायलेट के पास उतरने के लिए भीड़ लगाए यात्री उतर गए। कुछ नए चढ़ गए। वेंडर भी समय के हिसाब से चढ़ते हैं ट्रेन में। अभी पेपर सोप, चाय और अखबार बेचने वाले अजीब अजीब आवाजें निकाल रहे हैं। मोबाइल में बातें करने वाला लड़का अपने मित्र को गर्ल फ्रेंड की बातें सुनाकर अब अपनी बर्थ में जा कर बातिया रहा है। चाय बेचने वाले अजीब अजीब आवाजें निकालने में माहिर होते हैं। पकौड़ी बेचने वाले को चाय बेचने वाला सम्मान नहीं देगा तो क्या मंठा बेचने वाला देगा? लोग मर्म को समझते नहीं है। लोहे के घर की खिड़की के बाहर खूब उजाला हो चुका है। यह समय भाग कर ट्रेन पकड़ने का है मगर आज तो ट्रेन ही हमें पकड़े हुए है। आ गय दिल्ली, उबर बुक कराए. पहुँच गए अपने पहले से बुक कराए हुए होटल में. अब एक शहर से दूसरे शहर में जाना कितना आसान हो चला है!
कल नोएडा में रुका था। शाम को खाली हुआ तो किसी ने बताया यहां घूमने के लिए अक्षर धाम मंदिर ही बढ़िया रहेगा। होटल से निकलते निकलते सवा छः बज गए। रास्ते में सलिल भैया को फोन लगाया और कल के लिए मुलाकात का समय तय करने लगा। आभासी दुनियां में बने मित्रों में कुछ लोग हैं जिनसे मिलने की इच्छा मन में हमेशा दबी रहती है। सलिल भैया भी उन्हीं में से एक हैं। जैसे ही मैंने कल सुबह मिलने की बात करी वे सहर्ष तैयार हो गए, मेरे होटल का पता पूछकर कल आने का वादा किया और आज का प्रोग्राम पूछने लगे। जैसे ही मैंने बताया कि हम अक्षर धाम मंदिर जा रहे हैं उन्होंने बताया कि अब तो मन्दिर बन्द हो गया होगा। आपको अंदर जाने ही नहीं मिलेगा। रास्ते में ही हमने प्रोग्राम चेंज कर दिया। उनसे आने की अनुमति और घर का पता मांगा। अगले ही पल घर के पते का मैसेज आ गया।
कॉलोनी के चौकीदार की मदद से घर पहुंचा तो मां मिल गईं, भाभी मिल गई और मिली प्यारी बिटिया झूमा। भैया मुझे लेने बाहर गए थे। आह! चला था 'अक्षर धाम मंदिर' के लिए पहुंच गया 'घर एक मन्दिर'। भव्य तो खूब होगा अक्षर धाम मंदिर मगर मन्दिर पहुंच कर जो वाइब्रेशन महसूस होता है, जो ऊर्जा मिलती है वह सब यहीं मिल गया। लगा ही नहीं कि पहली बार आया हूं, पहली बार मिल रहा हूं। अब आधुनिक जीवन शैली की आपाधापी में ऊँचे-ऊँचे बिल्डिंग, बड़े-बड़े मकान तो खूब दिखते हैं मगर घर कम दिखते हैं। प्यारी बिटिया, स्वादिष्ट भोजन, भाभी का प्यार, भैया का स्नेह और मां का आशीर्वाद एक घर से जब इत्ता सारा प्रसाद एक साथ मिल जाय तो वह घर मन्दिर लगने लगता है। ऐसा ही लगा मुझे सलिल भैया का घर।
फिर बेतलवा डाल पर। दौड़ भाग खतम हुआ फिर इत्मीनान से लेट गए लोहे के घर में। इसमें जो सुकून है वो बनारस दिल्ली घूमने में कहां! न कोई काम न कोई बॉस। दिन में बैठ कर भारत दर्शन करो, रात में सफेद चादर बिछाओ, सफेद चादर/कम्बल ओढ़ो और लेटे रहो। लोहे का घर न होता तो एक रात की दूरी पर न होते दोनो शहर।
यह गरीब रथ नहीं, शिव गंगा है। शाम सात बजे दिल्ली से चलती और सुबह सात बजे बनारस। दिल्ली और बनारस के बीच कानपुर और इलाहाबाद केवल दो स्टेशन। ऐसे ही लौटते समय भी। दो दिन की छुट्टी में आराम से बनारस वाले दिल्ली और दिल्ली वाले बनारस घूम सकते हैं।
चार पढ़े लिखे कामकाजी समझदार दिख रहे युवकों की अनवरत जारी बेवकूफियों के अतिरिक्त सभी अपने अपने बर्थ पर लेट चुके हैं। ये चारों मित्र लगते हैं। दो के पास साइल लोअर की एक एक बर्थ है और दो की सीट कनफर्म नहीं है। चारों लगातार गिट पिट गिट पिट बतियाए जा रहे हैं। बातें कोई खास नहीं। जैसे कोई कहता है कि हमने कुत्ते की पूंछ देखी जो गोल गोल घुमी हुई थी और तीनों ठहाके लगा कर हंसने लगते हैं। मतलब इतनी ही कोई साधारण सी जोक और हंसी के ठहाके! ये उम्र ही शायद ऐसी होती है।
हम अपर बर्थ पर और बिटिया साइड अपर बर्थ पर लेटे हैं। मेरे नीचे मिडिल बर्थ पर एक पंजाबी महिला अपने बच्चे के साथ खा पी कर लेट चुकी हैं। इनकी एक भाभी भी हैं जिनकी बर्थ बगल वाली बोगी में है। ट्रेन में चढ़ते ही उन्होंने टिफिन खोल कर पहला काम यही किया कि पंजाबी में घर की सब बातें करते हुए जल्दी जल्दी, गरम गरम आलू और परांठे निकाले और चाव से खाए। इनकी बातों का सार यही था कि हमको ये करना पड़ा, वो करना पड़ा और अगर जल्दी न करते तो ट्रेन छूट जाती।खा पी कर ननद को और बच्चे की सुला कर भाभी गईं अपनी बोगी में। उनके नीचे वाली लोअर बर्थ पर एक मुस्लिम युवक है जो चुपचाप मोबाइल में फिलिम देख रहा है और कान में तार ठूंस कर डायलॉग सुन रहा है। मेरे सामने अपर बर्थ पर एक पापा अपनी छोटी बच्ची के साथ लेटे हैं। मिडिल और लोअर बर्थ वाले भी थके/पके लगते हैं। चादर ओढ़ कर चुपचाप सो रहे हैं। बस चारों पढ़े लिखे समझदार कामकाजी युवकों के अलावा कोई शोर नहीं कर रहा। ईश्वर इनकी आत्मा को भी शांति प्रदान करे। इनके सीट भी कनफर्म हो जाएं और ये भी चुपचाप सो जाएं।
सुबह हो चुकी है। आ चुके हैं बनारस। ट्रेन आउटर पर खड़ी है। लग रहा था समय से पहले पहुंचा देगी। ट्रेन ऐसे चले तो क्या बात है!
एक लंबा पेंडिंग काम निपटाने की बधाई,,,सलिल जी से एक सूक्ष्म मुलाक़ात मेरे होटल के कमरे में दिल्ली में हुई थी,,,बहुत मशक्कत कर वे मिलने आये थे..आज तक दिल के किसी कोने में वह मुलाक़ात ज़िंदा दर्ज है. उनको शायद याद भी न हो..मगर मैं उन क्षणों को सहेज कर आज भी आनंदित हूँ ...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अंग्रेजी बोलने का भूत = 'ब्युटीफुल ट्रेजडी'“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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