जिसे देखते ही पूरे शरीर मे उत्तेजना बढ़ जाती है उस माल का नाम पटाखा माल है। जो आँच दिखाते ही धड़ाम से फूट जाय, जिसके फूटने पर आपका मन आंनद से भर जय तो समझो वही पटाखा माल है। आँच दिखाते-दिखाते आपकी पूरी बत्ती जल जाय और धड़ाम की आवाज भी कानों में न सुनाई पड़े तो समझो वो पटाखा नहीं, फुस्सी माल है। पटाखा देखने और पाने के लिए बाजार में घूमना पड़ता है। माल ही माल को खींचता है। इसलिए पटाखा प्राप्त करने के लिए जेब में माल लेकर बाजार में घूमना पड़ता है। अत्यधिक ज्वलनशील होने के कारण पटाखे मॉल में नहीं बिकते, तंग गलियों में या सड़कों के किनारे पटरी पर सज्ज होकर बिकने के लिए आते हैं। पटाखे खरीदते समय अपनी जेब के साथ अपनी उम्र और क्षमता का भी ध्यान रखना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि पटाखा खरिदा आपने, घर लेकर गए और छुड़ाने के लिए मोहल्ले के लड़कों को बुलाना पड़ा!
हर चीज का एक समय होता है। उम्र के किसी पड़ाव पर जो चीज अच्छी लगती है, समय बीत जाने के बाद वही चीज बेकार लगने लगती है। पटाखों का भी यही हाल है। चुटपुटिया छुड़ाते समय काँपने वाली उँगलियाँ आड़ू बम के धमाकों से भी संतुष्ट नहीं होती। किशोर से जवान हुए तो चाहते हैं कि आड़ू बम में आग लगाने से पहले उसे किसी पुराने टीन के कनस्टर से ढक दिया जाय ताकि धमाके के साथ टीन के परखच्चे उड़ जांय! तंग गलियों के छत पर खड़े होकर, बम को हाथ से पकड़ कर, सुतली में आग लगाकर, नीचे फेंकने में जो मजा है वह बुढ्ढों की तरह पुराने अखबार के ऊपर बम रखकर, अखबार में आग लगाकर, कान में उँगलियाँ घुसेड़ कर, चार हाथ पीछे भागने में कहाँ!
जैसे पटाखे छुड़ाने में आनन्द की एक उम्र होती है वैसे ही पर्यावरण प्रेमियों के लिए भी त्योहारों में प्रदूषण की चिंता करने का शुभ मुहूरत होता है। धर्मनिरपेक्ष समय मे फैलने वाले प्रदूषणों पर पर्यावरण की चिंता का असर नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह सुनी, अनसुनी रह जाती है इसलिए त्योहारों के समय आवाज बुलंद करनी चाहिए। भले रोज मुर्गा उड़ाते हों लेकिन जब बकरीद का समय आये तो बकरों की कुर्बानी पर टेसुए बहाना सबसे मुफीद होता है। भले एक पौधा न रोपे हों, होली में होलिका दहन के लिए सजाए वृक्षों की डाल पर छाती फाड़ने में चैन आता है। यह और कुछ नहीं, दूसरे के फटे में उँगली करने का हम भारतीयों का पुराना स्वभाव है। स्वच्छता के नाम पर अपना कूड़ा या चूहेदानी में फंसा चूहा जब तक पड़ोसी के दरवाजे पर छोड़ नहीं आते हमारी आत्मा को सुकून नहीं मिलता।
सुंदर लाल बहुगुणा गंगा पर टिहरी बांध का विरोध करते रहे, कोई फर्क नहीं पड़ा। सरकारें गंगा पर बांध भी बनाती रही और सफाई के नाम पर गंगा में हाथ भी धोती रही। न बाँध रुका, न गंगा का पानी ही साफ हुआ। गंगा को मुक्त कर दो तो गंगा की धार स्वयं अपनी सफाई के साथ आपके पाप भी बहा ले जाने में समर्थ है। हम व्यवस्था पर व्यंग्य क्या खाक करेंगे? व्यवस्था सदैव हमारा ही मजाक उड़ाती रहती है और हम सब चुपचाप सहने के आदी हो चुके हैं। जान्ह्वी स्वयं मुक्तिदायिनी, पाप हारिणी हैं और हम उस पर बांध बांध कर उसी की सफाई करने में लगे हैं! गंगा में बांध बांधने से प्रदूषण नहीं होता, दिवाली में पटाखे छुड़ाने से प्रदूषण फैलता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना कि दो घण्टे पटाखे छुड़ाने से इतना प्रदूषण नहीं होगा कि समाज सहन न कर सके। हम पूछते हैं कि आज के मंहगाई के जमाने में किस आम आदमी की इतनी हैसियत है कि वह दो घण्टे से ज्यादा पटाखे छुड़ा सके? हमने तो अपने जुनूनी समय मे भी एकाध घण्टे से ज्यादा पटाखे नहीं छुड़ाए! हां, पहले लोग 'मजा लेना है जीने का तो कम कम, धीरे धीरे पी' वाले अंदाज में रुक रुक कर पटाखे छुड़ाते थे, अब वही पटाखे दो घण्टे में ही सारे छुड़ा दिए जाएंगे। पहले मुकाबला चलता था। पड़ोस के भोनू की रॉकेट हवा में उड़ी तो ध्यान से देखा जाता था कि वह कितना ऊपर उड़ा और हवा में कितनी जोर से फटा! फिर उसके मुकाबले अपना दो आवाजा छोड़ा जाता। नीचे भोनू के कान के पर्दे भी फटें और दूर ऊपर जा कर इतनी जोर से फटे की नीचे भोनू की छाती फटी की फटी रह जाय।
हिन्दुओं की बात करते हो तो हिंदुओं के पटाखे छुड़ाने का एक निर्धारित समय होता है। बदमाश लौंडों की बात छोड़ दो तो लक्ष्मी पूजा समाप्त होने से पहले हिन्दू स्वयं धमाके नहीं चाहते। डरते हैं कि कहीं शोर शराबे से उल्लू डर कर भाग न जांय। वे तभी पटाखे छुड़ाते हैं जब आरती समाप्त होने के बाद दिए भी जला कर खाली हो चुके होते हैं। धनी माने जाने वाले परिवारों के लिए भी पटाखे छुड़ाने के लिए दो घंटे बहुत हैं। अब समय में लफड़ा हो सकता है। पण्डित जी यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित समय शाम आठ बजे से पहले पूजा समाप्त कर दें तब तो ठीक लेकिन यदि पूजा कराते कराते रात के दस बजा दिए तो गए पटाखे पानी में! गुस्से में पटाखे यदि पण्डित जी के सर पर फूटे तो और भी लंबे समय के लिए जेल जाना पड़ सकता है। माननीय न्यायालय के इस आदेश से प्रदूषण कितना कम होगा यह तो कह नहीं सकते लेकिन इतना तय है कि पटाखे छुड़ाने वाले घर के गैंग का ध्यान हर समय लक्ष्मी जी के बजाय घड़ी पर ही टिका रहेगा।
धन्यवाद।
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