इसमें कोई शक नहीं कि पुरुष अपने कर्मों से महान बनता है। पुरुष से महापुरुष बनने के लिए उसे कई सत्कर्म करने पड़ते हैं। महापुरुष बनने के लिए पुरुष को सबसे बड़ा सत्कर्म तो यह करना पड़ता है कि उसे अपना पुरुष तत्व त्यागना पड़ता है। पुरुषत्व त्यागने के लिए पुरुष को स्त्री से दूर भागना पड़ता है। अपवाद को छोड़ दें तो जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने सबसे पहले अपनी स्त्री का ही त्याग किया। प्राचीन भारत में मर्यादा पुषोत्तम भगवान श्री राम से भगवान बुद्ध, तुलसी दास तक कई उदाहरण हमे मिल जाएंगे। महात्मा गाँधी ने अपनी धर्मपत्नी को नहीं छोड़ा मगर पराई पीर सुनने के चक्कर में उन्होंने भी बा के दुखों पर केवल घड़ियाली आँसू ही बहाए। वर्षों दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटियाओं के दुखों के लिए संघर्ष किया और भारत लौट कर भी देश की आजादी की चिंता में लगे रहे, अपनी स्त्री पर ध्यान नहीं दिया। बीसवीं, इक्कीसवीं सदी में भी कुँवारे रहकर या स्त्री त्याग कर महापुरुष बनने की दौड़ में लगे पुरुषों के उदाहरण मिल जाएंगे। यह अलग बात है कि स्त्री को खुश करने के लिए पुरुष आपस मे एक सूक्त वाक्य दोहराते पाए जाते हैं... हर सफल पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है!
पुरुष को महापुरुष बनने के लिए अपनी रुचि और क्षमता के हिसाब से अलग-अलग क्षेत्र का चुनाव करना पड़ता है। पहले क्षेत्र सीमित थे। धर्म, दर्शन और जन सेवा ही सर्व सुलभ क्षेत्र हुआ करते थे। विकास के साथ-साथ महापुरुष बनने के अनेकों द्वार खुलते चले गए। राजनीति, खेल, संगीत, नाटक, सिनेमा और अब तो ब्लॉग, ट्विटर, फेसबुक और वाट्सएप जैसे सर्वसुलभ रास्ते अपना कर भी पुरुष, महापुरुष बनने की सोच सकता है। लेकिन इन सभी सत्कर्मों में उसे स्त्री का नहीं तो स्त्री की भावनाओं का त्याग जरूर करना पड़ेगा, तभी वह महापुरुष बन सकता है।
महापुरुष बनने के लिए सबसे सटीक और बढ़िया मार्ग राजनीति है। खेल, संगीत, सिनेमा या दूसरे आभासी मार्ग पर चलकर भारत रत्न तो मिल सकता है लेकिन महापुरुष बनने के लिए उसे इसमें राजनीति का तड़का भी लगाना पड़ता है। राजनीति में सफल होने पर पुरुष को मोक्ष प्राप्ति की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। राजनीतिज्ञ जब तक जीवित रहता है, विरोधी उसे परम पुरुष ही प्रचारित करते हैं। मरणोंपरांत परम पुरुष को महापुरुष मान कर उसकी ख्याति से लाभान्वित होते हैं। राजनीति का उद्देश्य वैसे तो समाज और राष्ट्र की सेवा है मगर इसमें व्याप्त दलगत स्वार्थ की भावनाएं पुरुष को महापुरुष क्या, मनुष्य की श्रेणी से भी पदच्युत करा सकती है। एक दल, दूसरे दल के महापुरुष को नीचा दिखाने और अपने दल के परम पुरुष को महा पुरुष सिद्ध करने में लगा रहता है। जैसे हम बचपन में खड़िया से खींची अपनी पाई को बड़ा सिद्ध करने के लिए दूसरे की खींची पाई को मिटा देते थे, ठीक वैसे ही राजनीतिज्ञ अपने दल के पुरुष को महान सिद्ध करने के लिए दूसरे दल के महापुरुष की गलतियाँ गिनाते पाए जाते हैं।
वह महापुरुष भाग्यशाली होता है जिसके पास उसकी जाति का वोट बैंक तगड़ा होता है। वोट बैंक की विशालता को देख कर कोई भी दल उस महापुरुष की गलतियाँ गिनाने की हिम्मत नहीं कर पाता। इससे एक बात और समझ में आती है कि किसी पुरुष को महापुरुष बनना ही पर्याप्त नहीं होता, मरणोपरांत सदियों तक महापुरुष बने रहने के लिए अपनी जाति का प्रबल समर्थन भी चाहिए होता है। सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे भवन्तु निरामया के साथ-साथ, अपनी जाति का सबसे ज्यादा कल्याण करते हुए मोक्ष प्राप्त करना चाहिए, तभी वह मरणोपरांत भी महापुरुष बना रह सकता है। अपनी जाति को छोड़, दूसरी जातियों का कल्याण करने वाले पुरुष भी हुए, लेकिन उन्हें अब कौन याद करता है!
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बहुत रोचक और सटीक प्रस्तुति...
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteस्त्री के लिये भावनाओं का त्याग ? बड़ा कठिन काम - गांधी जी की तो क्या कहें ,कबीर जैसै बड़े-बड़े संत तक पहले स्त्री से दूर भागते हैं.फिर पलट-पलट कर उधर ही ध्यान लगाए गरियाते रहते हैं.
ReplyDelete_/\_
Deleteधन्यवाद।
ReplyDeleteधन्यवाद।
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteबहुत खूब!
HindiPanda
Nice post, love reading your blogs.
ReplyDeleteDigi Patrika