कितनी अभागन हैं!
फेसबुक के आने से पहले स्वर्गीय हो जाने वाली माएँ।
नहीं देख पाईं
'मदर्स डे' वाली एक भी पोस्ट।
काश! फेसबुक के जमाने मे भी जिंदा होंतीं
तो देखतीं
सब कितना प्यार करते हैं अपनी माँ को!
कसम से
पोस्ट पढ़-पढ़ कर
रो देतीं
मन ही मन कहतीं
मैने बेकार ही तुमको ताना दिया..
"खाली अपनी पत्नी की सुनता है नालायक।"
बेटे का आँखें तरेरना,
गुस्से से हाथ जोड़ क्षमा माँगना/कहना...
"अब बस भी करो अम्मा, अब हमें सुख से जीने दो"
धमकी देना...
"नहीं मानोगी तो छोड़ आएंगे तुम्हें वृद्धाश्रम!"
फेसबुक में अपनी और अपने बेटे की प्यारी तस्वीरें देख,
खुश हो जातीं, भूल जातीं
सभी गहरे जख्म।
कैसे याद रख पातीं
पिता के साथ किए गए जहरीले संवाद...
"जिनगी में
का देहला तू हमका?
खाली अपने सुख की खातिर
पइदा कइला,
तू हमका!"
माँ!
तुम्हें तो बस
पुत्रों की मुस्कान से मतलब था
जल्दी चली गई तुम,
हमे छोड़कर।
एक सुख भी नहीं दे सके,
नहीं दिखा सके, मदर्स डे वाली
एक भी पोस्ट।
....
मार्मिक रचना
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteहृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteमर्मस्पर्शी सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteबहुत बढ़िया लिखा है आपने।
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteअति सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteबहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण प्रस्तुति देवेंद्र जी। आपके सबसे छद्म सत्य को उद्घाटित करती हुई। इसे साभार फेसबुक पर कुछ ग्रुपों में शेयर कर रही हूं। हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏
ReplyDeleteआभार।
Deleteएक सुख भी नहीं दे सके,
ReplyDeleteनहीं दिखा सके, मदर्स डे वाली
एक भी पोस्ट।
....
गहरा कटाक्ष ।
आभार।
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteकटु सत्य आज का.....
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी.... लाजवाब सृजन।
दिल को दहलाती रचना।
ReplyDeleteगहन कटाक्ष! साथ ही वेदना भी, बहुरूपिया चरित्रों पर सीधा वार सार्थक सृजन।
ReplyDeleteभाई, आपकी लेखनी की ईमानदारी पर दंग हूँ। जब व्यंग्य लिखती हैं तो ऐसा कि चीर दें, हास्य लिखती है तो पेट में बल पड़ जाए, यात्रा वृत्तांत लिख्ती है तो सहयात्री होने का अनुभव होता है और जब करुणा बरसती है तो दिल रो पड़ता है। इस कविता के विषय में कुछ नहीं कहूँगा... नि:शब्द हूँ!!
ReplyDeleteसादर प्रणाम।
Deleteआज हम बाजार के बीच हैं। अम्मा भी वहीं है हमारे साथ। लाजवाब।
ReplyDeleteक्या खूब कमेंट।
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