अँधेरी राह में
घने वृक्षों के तले
अक्षर दिखे
गुच्छ के गुच्छ!
जुगनुओं की तरह
आपस में टकराते,
बिखर जाते।
तेजी से
बन/बिगड़ रहे थे
शब्द
हो रहा था
चमत्कार!
कठिन तपस्या के बाद
बस एक शब्द समझ पाया..
प्रेम!
मुग्ध हो
खोया रहा
रात भर
हाय!
मुँह से
बोल ही नहीं फूटे।
चाहता था, चीखना...
देखो!
प्रेम मरा नहीं है,
अँधेरे में
जुगनुओं की तरह
आज भी
टिमटिमा रहा है।
....................
वाह , टिमटिमाता रहना चाहिए प्रेम ।
ReplyDeleteलाजवाब रचना ।।
धन्यवाद।
Deleteअंधेरे में टिमटिमाहट जीवन का स्पंदन है।
ReplyDeleteअत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति सर।
सादर।
धन्यवाद।
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय।
Deleteजुगुनूओं की तरह जगमगाता और प्रेम सा खूबसूरत सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteप्रेम मरा नहीं है, आज भी जुगनुओं की तरह टिमटिमा रहा है। बहुत सुंदर सृजन!साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
ReplyDeleteआभार।
Deleteआभार।
ReplyDeleteआभार।
ReplyDeleteवाह! जुगनू ही सही अँधेरे का आशा स्तंभ है ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सकारात्मक सोच, सुंदर सृजन।
धन्यवाद।
Deleteप्रेम मरा नहीं है,
ReplyDeleteअँधेरे में
जुगनुओं की तरह
आज भी
टिमटिमा रहा है।
वाह!!!
प्रेम नहीं मरा वह शाश्वत है
लाजवाब सृजन।
धन्यवाद।
Deleteबहुत बढिया देवेन्द्र जी | प्रेम का अस्तित्व सदैव रहता है | वह यत्र - तत्र - सर्वत्र व्याप्त है
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteकठिन तपस्या के बाद
ReplyDeleteबस एक शब्द समझ पाया..
प्रेम!
कठिन तपस्या के बाद ही प्रेम को समझा भी जा सकता है... प्रेम जो कभी मरता नहीं अंधेर में बस छुपा होता है... लाजवाब अभिव्यक्ति, सादर नमन आपको 🙏