एक दड़बा था जिसमें निर्धारित संख्या में कबूतर रोज आते/जाते थे। कबूतर न सफेद थे न काले, श्वेत से श्याम होने की प्रक्रिया में मानवीय रंग में पूरी तरह रंग चुके थे। कबूतरों के दड़बे में आने का समय तो निर्धारित था मगर जाने का कोई निश्चित समय नहीं था। दड़बे में रोज आना और अनिश्चित समय तक खुद को गुलाम बना लेना कबूतरों की मजबूरी थी। उनको अपने और अपने बच्चों के लिए दाना-पानी यहीं से मिलता था।
यूँ तो देश के कानून ने आने के साथ जाने का समय भी निर्धारित कर रखा था लेकिन जिस शहर के मकान में वह दड़बा था उस जिले में राजा ने कबूतरों को नियंत्रित करने और देश हित के कार्यों के लिए जिस बहेलिए की तैनाती कर रखी थी उसे देर शाम तक कबूतरों के पर कतरते रहने में बड़ा मजा आता था। इसका मानना था कि पर कतरना छोड़ दें तो बदमाश कबूतर हवा में उड़ कर बेअन्दाज हो जाएंगे!
कबूतर भी जुल्म सहने के आदी हो चुके थे। बहेलिए जब किसी एक कबूतर को हांक लगाता, सभी हँसते हुए आपस में गुटर गूँ करते...'आज तो इसके पर इतने काटे जाएंगे कि फिर कभी उड़ने का नाम ही नहीं लेगा!' थोड़ी देर में पर कटा कबूतर तमतमाया, रुआंसा चेहरा लिए गधे की तरह रेंगते हुए साथियों के बीच आता और मालिक को जी भर कर कोसता। यह साथी कबूतरों के लिए सबसे आनन्द के पल होते मगर परोक्ष में ऐसा प्रदर्शित करते कि उन्हें भी बेहद कष्ट है!
ऐसा नहीं कि बहेलिया सभी के प्रति आक्रामक था। दड़बे में झांकने वाले कौओं, गिलहरियों, लोमड़ियों, चूहे-बिल्लियों, भेड़ियों या शेर को देखकर गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर था। किसी को डाँटता, किसी को पुचकारता और किसी किसी के आगे तो पूरा दड़बा ही खोल कर समर्पित हो जाता!
एक दिन उद्यान से भटक कर अपने घोसले को ढूँढता, उड़ता-उड़ता एक नया कबूतर दड़बे में आ फँसा! नए कबूतर को देख बहेलिए की बाँछें खिल गईं..'यह तो तगड़ा है! अधिक काम करेगा।' जैसा कि बहेलिए की आदत होती है वे अपने जाल में फँसे नए कबूतरों का तत्काल पर कतर कर खूब दाना चुगाते हैं ताकि वे नए दड़बे को पहचान लें और इसे ही अपना घर समझें। वह भी नए कबूतर पर मेहरबान हो गया। पुराने कबूतर का चारा भी नए कबूतर को मिलने लगा। साथी कबूतर शंका कि नजरों से गुटर गूँ करने लगे..'कहीं मेरा भी चारा यही न हड़प ले!'
नया कबूतर जवान तो न था लेकिन खूब हृष्ट-पुष्ट था।दड़बे में जिस स्थान को उसने बैठने के लिए चुना वह एक युवा कबूतर का ठिकाना था। संयोग से जब नया कबूतर उद्यान से उड़कर आया, वह एक लंबी उड़ान पर था। लम्बी उड़ान से लौट कर जब युवा कबूतर दड़बे में वापस आया तो उसने अपने स्थान पर नए कबूतर को बैठा हुआ पाया! आते ही उसने नए पर गहरी चोंच मारी। बड़ा है तो क्या ? मेरे स्थान पर बैठेगा? झगड़ा बढ़ता इससे पहले ही साथियों ने बीच बचाव किया और मामला रफा-दफा हो गया। सब समझ चुके थे कि अब यह भी हमारी तरह रोज यहीं रहेगा। नया कबूतर, जो पहले दड़बे में आ कर खूब खुश था, जल्दी ही समझ गया कि मैं गलत जगह आ फँसा हूँ। यह तो एक कैद खाना है! बात-बात में बड़बड़ाता..कहाँ फँसायो राम! अब देश कैसे चलेगा!!!
बहेलिए ने कबूतरों की पल-पल की गतिविधियों की जानकारी के लिए एक #काका_कौआ पाल रखा था। काका कौआ भी मानवीय रंग-ढंग में रंगे कबूतरों के बीच रहते-रहते अपनी धवलता खो कर काला हो चुका था। यूँ तो वह दड़बे की देखभाल के लिए नियुक्त प्रधान सेवक था लेकिन अपने मालिक का आशीर्वाद पा कर हँसमुख और मेहनती होने के साथ-साथ बड़बोला भी हो चुका था। कभी-कभी उसकी बातें कबूतरों को जहर की तरह लगतीं। शायद यही कारण था कि जब काम लेना होता तो सभी कबूतर उसे #काका बुलाते और जब कोसना होता #कौआ कहते! उसका काम था मालिक के आदेश पर कबूतर को दड़बे से निकाल कर उन तक पहुंचाना। जब तक कबूतर ठुनकते, मुनकते हुए मालिक के कमरे तक स्वयं चलकर न पहुँच जाते वह लगातार चीखता-चिल्लाता रहता। न उठने पर हड़काता और मालिक से शिकायत करने की धमकी देता। मरता क्या न करता! काका कौआ को 'कौआ कहीं का!' कहते हुए कबूतर दड़बे से निकल कर मालिक के दड़बे तक जाते। काका कौआ उन्हें हँसते हुए जाते देखता और पीछे से कोई तंज कसते हुए खिलखिलाने लगता। मालिक ने पर नहीं कतरे, सिर्फ धमकी दे कर छोड़ दिया तो वह उड़कर काका को ढूंगता हुआ वापस दड़बे में घुस कर, साथियों के ताल से ताल मिलाकर गुटर गूँ करने लगता।
जैसे सरकारी सेवा में काम करने की एक निश्चित उम्र हुआ करती है वैसे ही यहाँ के कबूतर भी एक उम्र के बाद मुक्त कर दिए जाते थे। उस दिन एक बूढ़े हो चले कबूतर की विदाई थी। साथियों ने धूमधाम से विदाई समारोह मनाया। विदाई के समय बहेलिए ने भी उसकी लंबी सेवा की सराहना तो खूब करी लेकिन उसके जाने के बाद उसकी गलतियों के दंड स्वरूप उसके द्वारा सेवा काल में बचाए अन्न की गठरी का कुछ भाग जब्त कर लिया और दूसरे कबूतरों से उसके घर खबर भिजवा कर आतंकित करता रहा कि क्यों न तुम्हारे अपराधों के लिए तुम्हें एक काली कोठरी में बंद कर दिया जाय? यह सब देख दड़बे के कबूतर दिन-दिन और भी भयाक्रांत रहने लगे।
सुबह से दड़बे में गुटर-गूँ, गुटर गूँ का स्वर मुखर है। आज सभी कबूतर बहुत खुश हैं। दशहरे की लम्बी छुट्टी हो रही है। सभी को छुट्टी से पहले दाने की मोटी गठरी मिलने वाली है। उद्यान वाले ने तो छुट्टियों में परिवार सहित लम्बी उड़ान पर जाने का निश्चय कर लिया है। दूसरा कबूतर भी दूसरे राज्य में अपने पुराने मित्रों से मिलने जा रहा है। अधिकांश का कहना है हम तो त्योहार अपनी कबूतरी और बच्चों के साथ मनाएंगे। सभी के अपने-अपने हौसले, अपने-अपने सपने हैं। आजादी कितनी प्यारी होती है!
(काल्पनिक कथा)