18.12.22

साइकिल की सवारी 5

आज फिर बैठे हैं पुलिया पर। आज टोपी भूलने वाली गलती न हो इसलिए पहले ही कैरियर में दबा दिए हैं। आज भी कोई नहीं है लेकिन वो आई है, सूरज की राजदुलारी, हम सब की प्यारी, जाड़े की धूप। सड़क के दोनो तरफ पुलिया बनी है, दोनो तरफ लाल रंग से लिखा है, 'बहादुर आदमी पार्टी!' इस पार्टी का नाम पहले नहीं सुना था, यहाँ बैठा तो ज्ञान हुआ, ऐसा भी कोई नाम है। वैसे सही भी लगा, आम आदमी, पार्टी कहाँ बना पाता है! बहादुर आदमी ही पार्टी बनाता है, भले आम को लुभाने के लिए लिख दे, 'आम आदमी पार्टी!'


आज भी अच्छी खासी साइकिलिंग हो गई, बढ़िया बात यह रही कि एक बार भी चेन नहीं उतरी और हम सूर्योदय के समय 10 किमी से अधिक साइकिल चलाकर, सारनाथ से पंचकोशी, कपिलधारा, सरायमुहाना, श्मशानघाट, आदिकेशव घाट, बसंता कॉलेज होते हुए सीधे पहुँच गए, नमो घाट।


आकाश से सूर्य देव गंगा जी की लहरों/घाटों पर अपनी लालिमा बिखेर रहे थे और सभी प्रकार के प्राणी आनंदित हो रहे थे। बकरियाँ स्वेटर पहन कर घूम रही थीं, यादो जी की भैंस कथरी ओढ़े खड़ी थी, कबूतर दाने चुग रहे थे, भक्त स्नान/ध्यान में डूबे थे, पंडे जजमान तलाश रहे थे, बच्चे स्केटिंग कर रहे थे और मेरी तरह फोटो खींचने/ खिंचवाने के शौकीन लगे हुए थे, मतलब सभी अपने-अपने धंधे में भिड़े हुए थे। एक से एक बढ़िया कैमरे, एक से बढ़कर एक फोटोग्राफर और पोज देकर फोटो खिंचवाने वाले एक से एक खूबसूरत जोड़े। 


देखते-देखते मेरा मन मचला और कदम बढ़ गए पँचगंगा घाट की तरफ। घाटों का नजारा काफी खूबसूरत था। तेलियानाला घाट और आगे 2,3 घाटों पर तीर्थ यात्रियों की खूब भीड़ जुटी थी। मैं चकराया!  आज कौन सी स्नान की तिथि है, मुझे तो कुछ नहीं पता! एक आदमी से पूछा तो उसने बताया, "गंगा सागर जाए वालन कs भीड़ हौ, दख्खिन से आयल हउअन, बीच-बीच में जउन घाट मिली, नहात जइहें!" 


वहाँ से आगे बढ़ा तो गाय घाट के पास एक आदमी मढ़ी पर बैठ कर मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाते दिखा, पँचगंगा घाट पहुँचे तो घाटीए ने पहचान कर स्नान करने के लिए बुलाया। मैं भक्ति के नहीं, घूमने के मूड में था, उनको नमस्कार किया और बोला, "बहुत ठंडी हौ महाराज! धूप अउर निकले दा।" आगे बढ़ कर भोसले घाट की एक मढ़ी में धूप लेते हुए मन किया सिंधिया घाट तो पास ही है, आगे बनारस का प्रसिद्ध चौखम्भा/ठठेरी बाजार और कचौड़ी/मलइयो की दुकान है, चलो! चलते हैं, समय भी हो चुका दुकान खुल गई होगी। 


चार गरमा गरम कचौड़ियाँ और 250 ग्राम मलइयो चाभने के बाद तो थकान और बढ़ गई। वापस ऑटो पकड़कर घर जाने का मन किया लेकिन याद आया साइकिल तो नमो घाट पर रखे हैं! वापस जाना ही पड़ेगा। थकान मिटाने के लिए वहीं संकठा जी के मंदिर के पास, सिंधिया घाट के ऊपर चबूतरे पर बैठ गए। दौड़ गुरु याद आए, "जितना कैलोरी जलाए, उससे ज्यादा तो चाभ लिए पण्डित जी! कोलेस्ट्रॉल बढ़ेगा कि घटेगा?" मैने मन ही मन कहा, "आनन्द से बढ़कर कुछ नहीं है, एक दिन तो सभी को जाना है, ज्यादे कैलोरी होगी तो जलने में  एकाध किलो लकड़ी ज्यादा लगेगी और क्या! वो भी मरने के बाद कौन अपने को जुटाना है! मैं कैलोरी जलाने के लिए थोड़ी न घूमता हूँ, आनन्द लेने के लिए घूमता हूँ, आनन्द मिल रहा है और क्या चाहिए?"


जिस चबूतरे पर बैठे थे सामने एक फूल माला बेचने वाले की दुकान थी, वहीं एक टोपी पहने, जोश से लबरेज एक आदमी को दिखा कर फूल बेचने वाले ने पूछा, "बता सकsला, इनकर उमर कितना होई?" मैने कहा, "यही कोई चालीस साल?" मेरा उत्तर सुनकर फूल वाला और आसपास खड़े सभी लोग हँसने लगे! ठहाके लगाते हुए फूलवाला बोला, "अस्सी साल! इनकर उमर अस्सी साल हौ!!! जैतरपुरा कs रहे वाला हउअन, 'सुंदर' नाम हौ।" मैने अब ध्यान से देखा, दुबला-पतला, मुस्कुराता चेहरा, गालों में एक भी शिकन नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है! बहुत होगा साठ साल का होगा। मैने कहा, "हमे त तोहरे बात पर विश्वास नाहीं हौ।" वह फिर हँसने लगा, "हमरे पर विश्वास ना हौ त अउर सबसे पूछा!" सभी ने उसकी बात का समर्थन किया। हमने सुंदर को प्रणाम किया और कहा, "आइए, आपका एक फोटो खींच लें, रोज देखेंगे तो ताकत मिलेगी।" सुंदर हँसते हुए, इनकार करते हुए चले गए,"फोटो का होई?, बेकार कs बात हौ!" फूल वाले ने आगे बताया, "ये तीन भाई हैं, अपना घर है लेकिन इनका अपना कोई लड़का नहीं है, एक लड़का बड़ा होकर मर गया, खाने के लिए घर में रोज चालीस रुपिया देना होता है, उसी के लिए टाली चलाते हैं, इस उमर में भी घाट की सीढ़ी, दस बार ऊपर/नीचे चढ़ते हैं।" मैं आश्चर्य में डूबा, फिर मिलेंगे, बोलता हुआ, सिंधिया घाट की सीढ़ी उतर गया। एक-एक सीढ़ी उतरते हुए सोचता रहा, साठ की उमर में अपना यह हाल है, अस्सी की उमर का वह नौजवान कितना फुर्तीला था! सच बात है, मेहनत करने वाला और सदा खुश रहने वाला, कभी बुड्ढा नहीं होता।


सुबह 6 बजे घर से चले थे और अब दिन के दस बज चुके थे। सूरज नारायण सर पर सवार हो चुके थे, घाटों पर धूप बिखरी पड़ी थी। पतंग उड़ाने वाले और क्रिकेट खेलने वाले बच्चों की फौज घाटों पर जमा हो चुकी थी। हमने जल्दी-जल्दी सभी घाट पार किए, पँचगंगा वाले घाटीए से नजरें चुराता आगे बढ़ गया, कहीं पण्डित जी यह न कहें, "आओ जजमान! चउचक धूप हो चुकी है।" नमो घाट पहुँच कर अपनी साइकिल ली और पैदल-पैदल चढ़ाई चढ़ने लगा।


पता नहीं आपने महसूस किया है या नहीं, जिस रास्ते से साइकिल चलाते हुए जाओ, उसी रास्ते से लौटो तो एक अजीब एहसास होता है! चढ़ाई अखरती है, ढलान मजा देता है!!! जो चढ़ाई अखरती है, वही ढलान होती है जिसने आते समय बिना पैडल मारे साइकिल उतारने में खूब मजा दिया था। ढलान में हम उतने खुश नहीं हो पाते जितने दुखी चढ़ाई चढ़ते समय होते हैं। जीवन मे भी यही होता है। खुशी वाले पल ढलान की तरह जल्दी से सरक जाते हैं, दुखों वाले पल भुलाए नहीं भूलते! हमको इस बेचैनी/नासमझी से मुक्ति कोई बुद्ध ही दिला सकते हैं। 


उतरते/चढ़ते पुलिया पर आकर बैठ गए और खूब धूप ले लिया। तब तक घर से कई बार फोन आ चुका। नहीं, मेरी चिंता से नहीं, इस उलाहना से, "रविवार को भी आप सुबह से गायब रहते हैं! बहुत सामान लाना है, हैं कहाँ?" मैने कहा, " जो लाना है, वाट्सएप कर दो, अभी पुलिया पर बैठकर थकान मिटा रहे हैं।

    कई दिनों बाद, उसी जगह सुंदर मिल गए।



11.12.22

साइकिल की सावरी 3

राजघाट से बसन्त महिला महाविद्यालय के मार्ग पर मुड़ते ही आगे एक खुला गेट आता है। गेट से लगभग 50 मीटर की दूरी पर दाहिने हाथ एक कुआँ मिलता है। सूर्योदय के समय, इस कुएँ का पानी पीने हम अपने किशोरावस्था में साथियों के साथ गली-गली, घाट-घाट दौड़ते-कूदते आते थे। आज मेरे देखते हुए, 50 वर्षो के बाद भी, यह कुँआ जिंदा है और लोगों को पानी पिला रहा है। 


आज पानी पी कर लौटते समय थकान मिटाने के लिए कोटवा ग्राम की पुलिया पर बैठे तो एक ग्रामीण ने बताया कि 20 वर्ष पहले वहाँ एक कांड हो गया था। सुनसान इलाका था, किसी ने, किसी को मार कर कुएँ में फेंक दिया था! लाश निकालने के बाद उसकी सफाई हुई और उसे लोहे की पत्तियों से ढक दिया गया, हैंड पाइप लग गया और पानी पीने की व्यवस्था कर दी गई।


इस कुँए के पानी को अमृत माना जाता था। पुरनिए कहते थे कि जो इस कुएँ का पानी पेट भर पी ले उसे कोई रोग हो ही नहीं सकता। आज भी इसके कुँए पर लिखा है, 'अमृत कुण्ड'।आज के आधुनिक समय में जब अधिकांश कुएँ सूख चुके हैं, इसे जिंदा देखकर खुशी होती है लेकिन लोगों की मूर्खता देखकर दुःख भी होता है। मूर्खता यह कि यहाँ बारी-बारी से दयालु/धार्मिक प्रकृति के लोग आते हैं और कुएँ की जगत पर रोटी के टुकड़े, बिस्कुट या कुछ और खाने की चीजें लाकर बिखेर देते हैं। कौए और दूसरे पक्षी भी इसे खाने के लिए टूट पड़ते हैं। खा/पी कर ये कौए कुएँ के ऊपर बैठकर बीट करते हैं और कुएँ के पानी को गंदा करते हैं। मैने एक दो लोगों को समझाया कि आपको कौओं को खिलाने की इच्छा है तो खूब खिलाइए मगर कुएँ के जगत पर न खिलाकर थोड़ी दूर जमीन पर खिलाइए। यहाँ खिलाने से ये कौए, कुएँ के ऊपर बैठकर बीट करते हैं और कुएँ के पानी को गंदा भी करते हैं। मुझे नहीं लगा कि किसी पर मेरी बात का कोई प्रभाव पड़ा। सुबह के समय, एक के बाद एक अनवरत लोग आते हैं और कौओं को कुछ न कुछ खिलाते हैं। अच्छा होता ये मेरी बात समझ जाते और कुएँ की जगत पर न खिलाकर, नीचे कहीं एक फिट आगे खिलाते।



05 अगस्त, 2022

साइकिल की सवारी-4

बहुत दिनों बाद बैठे हैं पुलिया पर। जब पुलिया पर बैठते हैं, पुलिया सम्राट अनूप शुक्ल जी याद आ जाते हैं। क्या हुआ वो जबलपुर शहर में पुलिया तलाशते थे और हम यहाँ सारनाथ, बनारस से 6 किमी दूर सराय कोटवा और कपिलधारा के बीच एक पुलिया पर बैठे हैं। 


सारनाथ से नमो घाट, राजघाट जाने का एक यह भी मार्ग है। यह पैदल या साइकिल सवारों के लिए खूबसूरत रास्ता है। आम रास्ता जो आशापुर से कज्जाकपुरा होते हुए राजघाट जाता है, इस समय ओवर ब्रिज निर्माण के कारण बहुत खराब है। यह रास्ता थोड़ा दूर पड़ता है लेकिन गाँव का खूबसूरत रास्ता है। सारनाथ से आशापुर, पंचकोशी, कपिलधारा, सराय मुहाना, निषाद राज गेट, वरुणा-गंगा संगमतट पर बने पुल को पार कर आदिकेशव घाट, बसंत कॉलेज और तब जाकर आएगा नमो घाट, राजघाट।


इस रास्ते से आने में अच्छी साइकिलिंग हो जाती है। आज तो कुछ ज्यादा ही अच्छी हो गई, बार-बार चेन निकल जाता, बार-बार हम चढ़ा कर चढ़ते, बच्चे भी देख कर कहने लगे, "चेन ढीली हो गई है अंकल, टाइट करा लीजिए।" हम हाँ/हूँ कहते हुए आगे बढ़ते, यहॉं, इतनी सुबह, कहाँ मिलेगा सायकिल वाला!


बहरहाल जब नमोघाट पहुँचे, सूरज नारायण निकल ही रहे थे। हमको देख कर बोले, "आओ बच्चा! आज खूब मेहनत किए, फोटो खींचो।" हमने जल्दी से प्रणाम किया और बोला, "बस अभी खींचते हैं देव! आप अपनी लालिमा बनाए रखना।" सूर्यदेव मुस्कुरा कर गंगाजी में अपनी आभा बिखेरने लगे और मैं घूम-घूम कर फोटू खींचने लगा। 


थककर जब एक जगह बैठा तो नींबू वाली चाय लेकर अजय बाबू आ गए। बहुत बढ़िया चाय पिलाई। राजघाट के बगल के हैं अजय बाबू। चाय बेचकर परिवार का लालन/पालन करते हैं। इनको भी परिवार छोड़ कर राजनीति में कूदना चाहिए और बड़े होकर अजय घाट बनाना चाहिए लेकिन कौन समझाए! यह कला समझाने से थोड़ी न आती है। हमने चाय पीकर चाय की खूब तारीफ करी। मौके पर इच्छित वस्तु का मिल जाना भाग्य की बात होती है। चाय पीकर, सूर्यदेव को बाई-बाई करते हुए लौट चले। 


अब लौटते समय यह पुलिया मिली तो आराम से बैठकर लिख रहे हैं। एक पंथ दो काज हो गया, थकान भी दूर हो गई, लिखना भी हो गया। इतनी देर से बैठे हैं, आज पुलिया पर न रामचन्दर हैं, न राम नरेश। शायद दिन में धूप लेने आते होंगे। हम भी बहुत दिनों बाद इधर आए हैं तो कुछ नहीं पता। दो देसी कुत्ते सामने वाली पुलिया के बगल से होते हुए दाएं से बाएं गए। मेरी तरफ देखा तक नहीं! कुत्ते भी पहचानते हैं, कौन काम का आदमी है, कौन फालतू में बैठकर मोबाइल चला रहा है। अभी काफी दूर जाना है, कुत्ते किसी पर भौंक रहे हैं, मेरे ऊपर भौंकने लगें इससे पहले यहाँ से चलना पड़ेगा। 


पुलिया से 5 किमी चलकर पंचकोशी पहुँचे, लगा कि अब तो घर आ ही गए कि अचानक मन ने प्रश्न किया, "टोपी कहाँ है"?" याद आया, सेल्फी लेने के चक्कर मे टोपी तो पुलिया पर उतारी थी, वहीं छूट गई होगी। अब क्या करें? अच्छी/ऊनी टोपी थी, अभी वहीं होगी। गाँव के लोग ईमानदार होते हैं, दूसरे की टोपी नहीं लेंगे।


शरीर में जान नहीं बची थी, थकान के मारे बुरा हाल था, औकात से ज्यादा मेहनत हो चुका था लेकिन टोपी का इतना मोह था कि एक साइकिल बनाने वाले से चेन ठीक कराई और वापस चल पड़े। पुलिया में पहुँच कर खुशी का ठिकाना न रहा, कोई अभी तक नहीं आया था लेकिन टोपी वहीं रखी थी। कितने लोग यहाँ से गुजरे होंगे लेकिन किसी ने टोपी नहीं उठाई। झट से टोपी पीछे कैरियर में दबाई और गाँव के लोगों के लिए दिल से दुआ निकली, "ईश्वर इनका भला करे, ईमानदारी कहीं तो बची है!"


वापस लौटे तो भूख के मारे बुरा हाल था, रास्ते में गरम-गरम कचौड़ी जिलेबी छन रही थी लेकिन साइकिल की चेन चढ़ाने के कारण उँगलियाँ इतनी गंदी हो चुकी थी कि बिना हाथ साफ किए कुछ खाने का मन नहीं किया। टोपी मिलने की खुशी में इतनी ताकत आ गई कि सकुशल घर वापस आ गए। आज साइकिलिंग के सभी पिछले रिकार्ड टूट गए। 







9.12.22

गुम होते बच्चे

इक दूजे पर

कूद/काट कर

खेल रहे थे

दुदमुहेँ पिल्ले

खेलते-खेलते दौड़कर 

चूसने लगे

गहरी नींद सोई 

कई स्तनों वाली माँ के

एक-एक स्तन!


अचानक!

मेरे पास जाते ही

दोनो आँखें तरेर,

छूरे जैसे दाँत दिखाकर,

गुर्राई थी मुझ पर 

ललछौहीं आँखों वाली कुतिया,

लगा कि

काट खाएगी!!!


मैं कैसे समझाता?

जो पिल्ले गुम हुए

वो मैंने नहीं लिए!

आजकल

नहीं टिकते

इंसानों के बच्चे भी

अपनी माँ के पास तो 

तेरी क्या औकात?

............

8.12.22

शनि देव

यह महिला

पाँच रुपए में

रोशनी की किरण बेचती है

यह महिला,

शनिवार को

शनिदेव के मंदिर के सामने

दिए बेचती है।


दिया 

जिसको जलाने से

शनि प्रसन्न होते हैं!

दिया

जिसको जलाने से,

सभी मनोकामनाएं

पूर्ण होती है!


नहीं है विश्वास?

तो आप, 

हम पर

पक्का हँसेंगे

अंधविश्वास फैलाने का 

आरोप भी 

लगा सकते हैं।


मगर सोचिए!

एक बेरोजगार

जो कर रहा है 

प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी,

एक पिता

जो नहीँ ढूँढ पा रहा है

पुत्री के लिए 

योग्य वर या

एक मासूम

जिसे फँसा दिया गया है

झूठे मुकदमे में

हो चुके हैं जो

सभी प्रयत्न करके निराश,

जिंदगी से हताश,

दिख नहीं रहा 

कोई मार्ग

करना चाहते हैं

आत्महत्या!

उनसे कहा जाय...

तुम छः सप्ताह 

शनिदेव के मंदिर में 

जलाओ एक दिया तो

तुम्हारी मनोकामना जरूर पूर्ण हो जाएगी!

और..वह 

जलाना शुरू करता है दिया!

एक सप्ताह, दो सप्ताह..पूरे छः सप्ताह!


छः सप्ताह मतलब टेढ़ महीना, 

42 दिन!

इतने दिन

कम नहीं होते

कामना पूर्ण होने के लिए,

इतने दिन

कम नहीं होते

निराश मन में

उम्मीद की नई किरण 

जल जाने के लिए!

या इतने दिन

कम नहीं होते

किसी को मरने से 

बचाने के लिए!


यह अंधविश्वास है

तो भी

बड़ा प्यारा अंधविश्वास है!

कुछ नहीं तो इससे

एक गरीब के घर का चूल्हा  

जल ही जाता है

आखिर

पाँच रुपए बचाकर

आप कौन सा तीर मार लेंगे?


यह महिला

पाँच रुपए में

रोशनी की किरण बेचती है

यह महिला

शनिदेव के मंदिर के सामने

दिए बेचती है।

........


3.12.22

तस्वीर

    शाम का समय था, श्मशान घाट में एक चिता जल रही थी। चिते के पास लगभग 70 वर्षीय बुजुर्ग के सिवा दूर-दूर तक कोई न था। कृषकाय बुजुर्ग, दोनों हाथों से अपने पिचके  गालों को दबाए, फटी आँखों से जलती चिता को, एक टक देख रहे थे। पूछने पर पता चला जिसकी चिता जल रही है, वह और कोई नहीं, उसकी पत्नी थीं। पूरा दृश्य अपनी कहानी खुद कह रहा था, कुछ कहने/बताने की जरूरत न थी। चिता की आँच में चुपचाप दर्द और प्यार की एक सरिता बह रही थी। 

     बहुत चाहा, एक तस्वीर खींच लूँ, किसी उपन्यास पर भारी पड़ेगी यह तस्वीर। हाय! सोचता ही रह गया, देखता ही रह गया। खयालों में ऐसा खोया कि होश तब आया जब सब कुछ ठंडा पड़ चुका था। चिता ठंडी पड़ चुकी थी, वृद्ध जा चुके थे, बस एक वाक्य शेष था, 'राम नाम सत्य है।'

.......

लोहे का घर 64

फरक्का जलालपुर से अभी चली है। बहुत से लड़के जलालपुर से चढ़े हैं। ये #अग्निवीर हैं। इनसे बात करने पर पता चला, कल सुबह फिजिकल परीक्षण होगा। आज रात्रि में 12 बजे ग्राउंड में प्रवेश मिलेगा, वहीं इन्हें अलग-अलग समूहों में बांट दिया जाएगा, भोर से परीक्षण शुरू होगा। रात भर ये बच्चे ग्राउंड में बिताएंगे। अपना कम्बल/चादर लेकर, पूरी तैयारी से आए हैं। इनका जोश देखते ही बनता है। 


इनके अतिरिक्त ट्रेन की इस बोगी में कई परिवार हैं। दूर के यात्री शंकालू, लड़के अनुशासित हैं। आपस में बतिया रहे हैं, कोई उपद्रव नहीं कर रहे। इसका अगला स्टॉपेज बनारस है लेकिन अभी यह खालिसपुर में रुकी है। भारतीय रेल धैर्यवान और सहनशील बनने की ट्रेनिंग देनी शुरू कर चुकी है। एक मालगाड़ी विपरीत दिशा से हॉर्न बजाते हुए गुजरी है, उसके निकलते ही यह ट्रेन भी चल दी। लड़कों ने शोर मचाया, जिनको सीट नहीं मिली है, वे प्रेम से खड़े हैं। एक ही गाँव के, आपस मे परिचित दिखते हैं। खूब हंस/बोल रहे हैं। इनकी भाषा शुद्ध भोजपुरी है। इनकी बोली सुनकर एकाध वाक्य लिखने का प्रयास करता हूँ...


ए! चदरवा लियायल है न? बिछावा!

हमहूँ आवत हई, जगह हौ?

ए! कुछ लहलेहै, खाए वाला? निकाल।

बाबतपुर भी रुकी का यार?ट्रेन क स्पीड धीमा होत हौ।

टी.टी. आई, सबके भगा देई।

आज टी.टी.का करी यार!

कौन ट्रेन हौ ई?

फरक्का!


ट्रेन में चढ़ गए, ट्रेन का क्या नाम है, नहीं पता। बस इतना जानते हैं, बनारस जा रही है। ऐसे ही हँसते/बोलते ये बच्चे भारत की रक्षा करने वाले सैनिकों में शामिल होने जा रहे हैं। एक अलग प्रकार का आनन्द ले रहे हैं। ट्रेन बाबतपुर में फिर रुकी है। ऐसे ही हर स्टेशन रुकते हुए, नॉनस्टॉप ट्रेन चल रही है। इन्होंने सोचा था कि जलालपुर से चलेंगे तो आधे घण्टे में बनारस पहुँच जाएँगे। ये ऐसे खुशी-खुशी जा रहे हैं जैसे पहुँचते ही कार्यभार ग्रहण करने की अनुमति मिल जाएगी। 


इन सब शोरगुल से परे, इत्मीनान से थोड़ी देर रुककर ट्रेन फिर चल दी। लड़कों में जल्दी पहुँचने की उम्मीद जगी है। ये सभी भारतीय रेल की चाल से पूर्व परिचित/अनुभवी लग रहे हैं। कल जो  आगे की परीक्षा के लिए सफल होंगे, उनकी खुशी देखने लायक होगी, जो असफल होंगे वे माथा पीटेंगे। यह जीवन संघर्ष क्या-क्या रंग दिखाता है! ये संघर्ष की ट्रेन में सवार हो चुके हैं। अब जीवन में जो भी पड़ाव आएगा, इन्हें ऐसे ही हँसते हुए स्वीकार करना है। मंजिल कहाँ है? यह जब मैं नहीं जान सका तो इन्हें क्या पता होगा! अभी तो इन्हें शुभकामना ही दे सकते हैं। ट्रेन एक छोटे से स्टेशन 'वीरापट्टी' में देर से रुकी है।

...@देवेन्द्र पाण्डेय।