21.1.23

लोहे का घर 66

एक चार साल का बच्चा रोते हुए कह रहा है, "यह ट्रेन अच्छी नहीं है, यहाँ से चलो।" माँ चुप करा कर कुछ खाने को दे रही हैं। इनका घर यहाँ से 60 किमी दूर है, नॉन स्टॉप ट्रेन है लेकिन अपने समय से लगातार विलम्बित और विलम्बित होती जा रही है, हर छोटे-छोटे स्टेशन पर 20, 30 मिनट रुक रही है। बच्चे को भूख लगी है, माँ मना रही हैं और बच्चा कह रहा है, "तुम पागल हो! यह ट्रेन अच्छी होती तो अबतक घर नहीं पहुँचा देती?" लगातार कुछ न कुछ बोले जा रहा है। दूसरे यात्री भी ट्रेन की लेट लतीफी से परेशान हैं, बच्चे की बात उनके दिल को छू रही है मगर सिर्फ मुस्कुरा कर देख/सुन रहे हैं। बच्चे की तरह चीख नहीं पा रहे, खुशी नहीं मना रहे।


ट्रेन लेट होने पर लोकल वेंडरों की चाँदी हो जाती है। हमारी आपदा ही उनके लिए अवसर का काम करती है। चाय, रँगा हुआ हरा चना और पानी खूब बिक रहा है।


हिजड़ों का दल नहीं, एक हिजड़ा गुजरा है। सामने बैठे बच्चे के पापा से 10 रुपिया मांग रहा था, उन्होंने बस इतना कहा, "आगे बढ़ो, जब देखो तब माँगने आ जाते हैं! जबरदस्ती है क्या?" हिजड़ा मायूसी से नहीं, झगड़ते/चिल्लाते/गाली देते हुए आगे बढ़ गया, "भीख माँग रहे हैं? पढ़े-लिखे होकर ऐसी बात करते हो? तुम्हारे घर मैय्यत पड़े!"


माँगने वाले भी अधिकार से माँगते हैं! कभी स्वीकार नहीं करते कि माँग रहे हैं! माँगना उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है!!! ये घाट से लेकर हॉट तक, ऑफिस से लेकर सफर तक, कहीं भी पाए जा सकते हैं। आपको एहसास तभी होगा, जब आपका इनसे पाला पड़ेगा और आप देने से इनकार कर देंगे!मैय्यत तक का श्राप दे देंगे!!!


इस मार्ग के हिजड़े हमको अपने स्टॉफ का समझते हैं, बस देखकर मुस्कुराते हैं, कभी-कभी कहते भी हैं, "यह तो अपने स्टॉफ का है, इससे मत माँगो!" हमने एक बार समझाया था, "नाई से न नाई लेत, धोबी से न धोबी, हम भी रोज आने/जाने वाले हैं, तुम लोग भी रोज मिलते हो, कब तक देंगे? जब मन करेगा, खुद ही दे देंगे, हम लोगों से मत मांगा करो।" तभी से इन लोगों ने मेरी बात गाँठ बांध ली है, देखते ही एक दूसरे से कहते हैं,"यह तो स्टॉफ का है।"


मैं लिख रहा था और ट्रेन इत्मिनान से एक लोकल स्टेशन पर रुकी थी, जब बच्चा खुशी से चीखा, "ट्रेन चल दी!" मेरा ध्यान गया, "अरे!ट्रेन तो रुकी थी, अभी चली है!"


जीवन की यात्रा में भी यही होता है, जब आप चलते-चलते देर तक एक ही जगह रुके रहते हैं, कोई काम नहीं करते, सब आपके कारण परेशान रहते हैं, तभी आपकी चेतना जगती है और कुछ कदम चल देते हैं, सभी खुश हो जाते हैं! आपकी गलती भूल जाते हैं, चलो! अब तो रास्ते पर आया, अब पक्का काम करेगा! यह ट्रेन भी कुछ कि.मी. चलकर फिर रुकी, बच्चा फिर चीखा, "यह ट्रेन गंदी है।" फिर चल दी, बच्चा खुशी से फिर चीखा, "ट्रेन चल दी।" 


व्यवस्था ऐसे ही हम सबको बच्चा बनाए हुए है और हम बार-बार इसे गाली दे रहे हैं और खुशी मना रहे हैं। व्यवस्था हमको हिजड़ा बना कर ताली बजवा रही है या खुद ताली बजाकर पैसे माँग रही है! हमें कुछ नहीं पता। हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि हम सफर कर रहे हैं।

....@देवेन्द्र पाण्डेय।

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