10.4.23

लोहे का घर 69

मेरी गाड़ी पटरी पर चल रही है। चलते-चलते, बचपन और जवानी के कई स्टेशन आए, चेन पुलिंग भी हुई, भिड़े भी, गिरे भी, बिन स्टेशन के घंटों रुके भी लेकिन थक कर बैठे नहीं, हारे नहीं, चलते रहे। लोग कह रहे हैं, "अगला स्टेशन बुढ़ापा है, कितना चलोगे? कोई आश्रम ढूंढों, हरिभजन का समय आ गया है, उतर जाओ।" मैं कहता हूं, "जिसने गाड़ी को ही घर बना लिया हो, उसे किस बात से डराते हो? मंजिल आएगी तो चार लोग मिलकर खुद ही उतार देंगे! मंजिल से पहले क्यों उतरें? जब उतरेंगे, जहां उतरेंगे, समझ लेना वही मेरी मंजिल थी। मंजिल किस चिड़िया का नाम है? जब तक जिस्म में सांस है, कोई स्टेशन आखिरी नहीं होता।"


गोधुली बेला है, सूर्यास्त हो चुका लेकिन रोशनी शेष है। एक बच्चा लोहे के घर की खिड़की से बाहर झांक रहा है। पास के वृक्ष पीछे छूट रहे हैं, दूर के साथ चलते प्रतीत हो रहे हैं। जब ट्रेन किसी छोटे स्टेशन पर रुकती है, खुशी के पल की तरह, काले पंखों वाली चिड़िया किसी शाख पर फुदकती है। गाड़ी चल देती है, चिड़िया भी गुम हो जाती है। खुशी के हों या दुःख के हों, पल कभी टिकते नहीं। गाड़ी चलती है, दृश्य बदल जाते हैं। 


धीरे-धीरे बाहर अंधेरा, भीतर रोशनी होती जा रही है। लंबी यात्रा के बाद ही इसका एहसास होता है। छोटी दूरी के यात्री या वे जिन्हें मंजिल पाने की हड़बड़ी होती है, भीतर के उजाले को महसूस ही नहीं कर पाते। जब चांद निकलता है, साथ साथ चलता है, आंखों से ओझल नहीं होता! सूर्योदय से पहले होता भी नहीं। बच्चे को खिड़की झांकने में अब मजा नहीं आ रहा, लोहे के घर के भीतर की रोशनी अच्छी  लग रही है, मोबाइल अच्छा लग रहा है।


मैं एक ही गोल के या विभाग के यात्रियों के समूह को चार बंगाली कहता हूं। चार बंगाली इसलिए कि अक्सर अपने रूट पर बंगाल जाने वाले यात्री मिल जाते हैं। वे अपनी बोली में/अपने धुन में मस्त रहते हैं। न दूसरे उनकी बात समझ पाते हैं, न इन्हें दूसरों की कोई परवाह रहती है। राजनीति की बहस छिड़ गई तो अपने ही धुन में आलोचना/समर्थन करने में/ बहस करने में/ मशगूल रहते हैं। उनकी बहस सुनकर लगता है, खूब समाचार देखते हैं और टी वी के एंकरों की तरह मोर्चा संभाले रहते हैं। उन्हें किसी की कोई चिंता नहीं होती। मैं जैसे टी वी में समाचार नहीं देखता वैसे उनकी बातें भी नहीं सुनता। चाय, ब्रेड, अंडे, पानी और मैंगोजूस पीने वाले वेंडर भी उन्हें देख आगे बढ़ जाते हैं, जानते हैं, ये एक पैसे की खरीददारी नहीं करेंगे, इनसे पूछना ही बेकार है। हिजड़े भी इन्हें देख हाय! हाय! करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। 

...@देवेन्द्र पाण्डेय।

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