9.10.24
काव्य गोष्ठी
25.9.24
काव्य गोष्ठी
19 अगस्त 2023 को आकाशवाणी से प्रसारित काव्य गोष्ठी का यूटूब लिंक है.,...
https://youtu.be/K39UYglFIcA?si=4j1evtq8klKzSdgg
21.9.24
हे भगवान! तेरे कैसे-कैसे नाम!!!(3)
मूँछ वाले हनुमान जी
................................
वाराणसी 'कचहरी' से 'मकबूल आलम रोड' होते हुए 'चौकाघाट' की तरफ जाते समय 'वरुणा पुल' आता है। इसी पुल से ठीक पहले बाईं तरफ यह मन्दिर है। यहाँ 'मूँछ वाले हनुमान जी' विराजमान हैं।
यह भक्तों का प्रेम है जो अपने भगवान को विभिन्न नामों से पुकारता है। किसी भक्त ने सोचा होगा, 'हनुमान जी ब्रह्मचारी थे तो इसका मतलब यह थोड़ी न है कि उनकी मूंछे नहीं होंगी! आखिर कब तक मूंछे नहीं होंगी? इसी प्रश्न ने ऐसे हनुमान जी की कल्पना की होगी जिनकी मूँछ होंगी। भगवान ने भी भक्त की इच्छा पूर्ण करी और इस रूप में विराजमान हो गए। जय हो, मूँछ वाले हनुमान जी की। 🙏
(यह मेरी भक्त रूप में कल्पना है, इस मन्दिर की स्थापना का मूल कारण पता हो तो कृपया कमेंट कर अवगत कराने का कष्ट करें। 🙏)
https://youtu.be/a2UsYZQ29pc?si=IPftv9A1hO9_k-6h
साइकिल की सवारी
आज भोर अँधेरे नहीं, भोर उजाले घूमने निकले। स्नान-पूजा के बाद इत्मीनान से सुबह 5.20 पर निकले जब उजाला हो रहा था। अपनी साइकिल का मन खुश था तो लम्बी दूरी की यात्रा पर चल पड़ी। पाण्डेपुर, चौका घाट तक ट्रैक्टर, भारी वाहन, कार, ऑटो, बाइक के हारन का सामना करना पड़ा। मतलब एक घण्टे देर से चलो तो सड़क पर वाहनों की भीड़ जुट जाती है। ध्वनि, वायु प्रदूषण ने मजा किरकिरा कर दिया लेकिन जैसे ही चौका घाट का चौराहा पार कर शहर में घुसा नजारा बदला-बदला था।
धीरे-धीरे होती है बनारस की सुबह, धीरे-धीरे जागता है शहर। शहर में दुकानें बन्द थीं, वाहन भी बहुत कम चल रहे थे।आराम-आराम से साइकिल चलाते हुए, संस्कृत विश्वविद्यालय, लहुराबीर, चेतगंज, कोदई चौकी पहुँच गया।
दशास्वमेध थाने के सामने से जैसे ही गोदौलिया की ओर मुड़ा, तीर्थ यात्रियों और ई रिक्शा वालों की भीड़ से सामना हुआ। कई प्रकार की आवाजें सुनाई पड़ने लगी। दक्षिण भारतीय महिलाओं को अपने रिक्शा में बिठाने के लिए कोई अम्मा! अम्मा! चीख रहा था, तो कोई यात्रियों को विश्वनाथ दर्शन कराने के लिए बुला रहा था। कोई ऑटो वाला... गेट नम्बर 4, गेट नम्बर 4 चीख रहा था तो कोई भैरोनाथ-भैरोनाथ बोलकर यात्रियों को अपने पास बुला रहा था।
इस भीड़ में साइकिल चलाना मेरे लिए तो असम्भव था। मैने सब देखते-सुनते, बचते-बचाते गोदौलिया चौराहा पार किया, जब भीड़ कम मिली, फिर साइकिल चलाना शुरू किया। थोड़ी भीड़ सोनारपुरा चौराहा के पास भी मिली। यहाँ बगल में गौरी-केदार का प्रसिद्ध मन्दिर है। यह दक्षिण भारतीयों का इलाका ही है, यहाँ भी अम्मा! अम्मा! का शोर सुनाई दिया। आगे असि चौराहे पर थोड़ी भीड़ फिर शांति। पप्पू चाय की दुकान अभी बन्द थी। लंका चौराहा पार करने के बाद तो स्वर्ग का द्वार ही पार करना हुआ! मधुबन, छात्र संघ भवन, कला भवन, विज्ञान भवन, हिन्दी भवन, वाणिज्य भवन पार करते हुए कब विश्वनाथ मन्दिर पहुँच गया, पता ही नहीं चला। घड़ी देखा तो 6.35 मिनट हुए थे, मतलब 75 मिनट की साइकिल की सवारी हो चुकी थी। आगे का वर्णन वीडियो में है। लिंक...
https://youtu.be/qDXKAyEiy9w?si=O3MZfmWWkfgRLSo6
शहर के बाहरी इलाकों आशापुर, सारनाथ से चौका घाट चौराहे तक की भीड़ और शहर की भीड़ में काफी फर्क देखने को मिला। बाहरी इलाकों में साइकिल चलाना ध्वनि, वायु प्रदूषण के कारण थोड़ा बोरियत भरा रहा। जबकि शहर में सुबह साइकिल चलाने में कोई परेशानी नहीं हुई। तीर्थ स्थानों पर धार्मिक भीड़ और ऑटो रिक्शा वालों के शोर से कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि उनको देखने में आनंद ही आया। धीरे-धीरे जागता है शहर लेकिन मन्दिर के पास कभी सोता ही नहीं है, हमेशा हँसता रहता है! हर हर महादेव।
....................
19.9.24
हे भगवान! तेरे कैसे-कैसे नाम!!!(2)
'खाकी कुटि हनुमान मन्दिर'
......................................
कपिल धारा, ग्राम कोटवा से राजघाट की ओर बढ़ें तो आगे रास्ते में 'निशात राज द्वार' दिखाई देता है। इस द्वार से लगभग 20-30 मीटर आगे बाईं (लेफ्ट) ओर मुड़े तो लगभग 500 मीटर पर हनुमान जी का एक मन्दिर है जिसका नाम है.. खाकी कुटि।
कुछ दिन पहले पीर बाबा की पुलिया पर स्थानीय निवासी श्री राम गोपाल जी ने इस मन्दिर के बारे में बताया था। आज नमो घाट से लौटते समय मन बना कर चला कि आज तो दर्शन करना ही है। एक राह चलते आदमी से रास्ता पूछा तो उसने सराय मोहाना के सामने से एक पगडंडी वाला रास्ता दिखाते हुए बोला, "आ गयल हउआ! बस सामने लउकत हौ!" साइकिल वहीं ताला मारकर पैदल ही आगे बढ़ा तो रास्ता बहुत कठिन। जब आगे बढ़ना असम्भव दिखा तो भगवान से क्षमा मांगते हुए लौट आया। साइकिल लेकर लौटने लगा तो एक ग्रामीण महिला ने रोककर पूछा, "एहर कहाँ गयल रहला?" हमने जब बताया तो हँसकर बोली, "के तोहें उहाँ भेज देहलस! आगे पक्का रास्ता हौ, तोहार साइकिल आराम चल जाई।" महिला की बात से हिम्मत आई और फिर 'जय हनुमान जी' बोलता आगे बढ़ा और एक दूसरे आदमी के सहयोग से साइकिल चलाते हुए आराम से पहुँच गया।
वहाँ जब स्थानीय लोगों, पुजारी जी से बात किया तो जाना यह मन्दिर सैकड़ों वर्ष पुराना है। जिसे मैं 'खाखी खुखी' बोल रहा था वह 'खाकी कुटि' है। रोचक जानकारी यह मिली की इस मन्दिर का निर्माण 'खाखी बाबा' ने किया था। वे केवल खाक (राख) खाकर जीवन यापन करते थे इसलिए लोग उन्हें खाखी बाबा कहते थे। उन्होंने इसी स्थान पर हनुमान मन्दिर बनाया इसलिए यह स्थान 'खाखी कुटि हनुमान जी' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कालांतर में एक नेपाली बाबा भिक्षा मांगते हुए आए और यहीं रहने लगे। उन्होने भिक्षा मांगकर मन्दिर का सिलाब ढलवाया और मन्दिर को बढ़िया बनवाया! यह अचरज की बात है। क्या जमाना था! भिक्षा मांगते हुए आए और भिक्षा मांगकर दूसरे देश में जाकर मन्दिर को बढ़िया बनवा दिया! उनकी बात सुनकर महामना की याद हो आई... उन्होने तो भिक्षा मांगकर पूरा विश्वविद्यालय ही बना दिया था! हमें गर्व करना चाहिए कि हमारे पूर्वज अपने लिए नहीं, अपने समाज के लिए जीते थे। जय 'खाखी कुटि हनुमान जी' की।🙏
यू ट्यूब लिंक...
https://youtu.be/FTfAGlnOHNU?si=XAkDidfxietffKjm
हे भगवान! तेरे कैसे-कैसे नाम!!!(1)
13.9.24
हे गणेश
शक्ति दो
कर सकें सवारी
हम भी
चूहे पर।
चंचलता के प्रतीक
चूहे पर
सवारी करना क्या सरल है?
सवारी क्या
इसे तो पकड़ना ही
कठिन है।
रोटी का लालच दे
कुछ समय के लिए
फंसा तो सकते हो
चूहेदानी में
लेकिन कब तक?
क्या केवल
एक ही चूहा है
घर में?
एक को पकड़ा और बाकी
सारी उम्र
ऊधम मचाते रहें!
दूसरे को फंसाने के लिए
पहले को
छोड़ना ही पड़ेगा।
हत्या कर सकते हो
यह आसान है
जहर की पुड़िया खरीदी
आटे के घोल में मिलाया
और..
धोखे से खिला दिया!
क्या फिर
नहीं आ जाते,
समाप्त हो जाते हैं
पूरी तरह?
चूहे को
मोदक खिलाकर
खूब मोटाते हुए स्वतंत्र छोड़कर
बुद्धि से
अपने वश में करके
उस पर
आजीवन सवारी करना!
यह तो
गणेश जी ही कर सकते हैं।
हे बुद्धि विनायक!
शक्ति दो
कर सकें सवारी
हम भी
मन पर।
.........
10.9.24
कोरोना काल
कोरोना काल, सितंबर 2020 का पहला सप्ताह कठिन मानसिक यातना वाला गुजरा था। घर से दूर रहने के कारण मैं तो बच गया था, पूरा घर कोरोना पॉजिटिव हो गया था। सभी घर में ही आइसोलेशन में थे। पूरा घर सील था। बनारस में रहकर भी मैं घर नहीं जा सकता था। घर से थोड़ी दूर एक मित्र के घर रहकर परिवार को दवा, भोजन की व्यवस्था कर रहा था। एक सप्ताह बाद सभी के हालत में सुधार दिख रहा था, लेकिन हालत गंभीर बने हुए थे।
15 अगस्त 2020 को नाना बना था। सभी बारी-बारी से हॉस्पिटल आ/जा रहे थे। सिजेरियन ऑपरेशन था। अस्पताल में 9 दिन रुकना पड़ा था। मेरा पुत्र जो होली से 15 अगस्त तक कभी घर से बाहर नहीं निकला, वर्क फ्रॉम होम ही करता रहा, वह भी अस्पताल गया था और 2,3 दिन जग गया। वहीं, कहीं या आने-जाने में संक्रमित हो गया। पहले तो बुखार आया, दूसरे दिन सूँघने की क्षमता खतम हो गई। डॉक्टर ने तुरंत कोरोना टेस्ट की सलाह दी। 2 दिन बाद जब तक उसका रिपोर्ट आता सभी में वही लक्षण आने लगे।
श्रीमती जी भयंकर सावधानी रखती थीं। मैं दूसरे शहर से सप्ताह में एक या दो दिन के लिए घर आता तो मुझे अलग कमरे में कोरेन्टीन कर देतीं। बाकी सब आपस मे हिले मिले रहते थे। बीच मे एक दो सप्ताह तो घर भी नहीं जाता था कि जब वहाँ जाकर कैद ही होना है तो जाने से भी क्या फायदा! परिणाम यह हुआ कि मैं बच गया और सभी संक्रमित हो गए।
मेरा बचना भी अच्छा रहा। मैं सबकी देख-भाल कर पा रहा था। मैं भी संक्रमित हो गया होता तो कौन मदद करता? सरकारी हॉस्पिटल के ऊपर इतना बोझ था कि वहाँ सब भगवान भरोसे था। प्राइवेट हॉस्पिटल इतने महँगे थे कि फीस पूछ कर ही हिम्मत जवाब दे जाती थी। कुछ ईश्वर की कृपा और कुछ मित्रों की दुआएँ कि धीरे-धीरे मुसीबत टल रही थी। सबसे कष्ट में 20 दिन के बच्चे को लेकर बड़ी बिटिया थी।
यह बीमारी जो थी, सो थी, सबको पता ही है लेकिन मेरा अनुभव यह रहा कि इसमें मानसिक संतुलन भी डगमगाने लगा था। पड़ोसी दूरी बनाकर आपका हाल पूछते थे। मुसीबत में कोई साथ नहीं देता था। कुछ तो हाल पूछते भी डरते थे ...कहीं मदद लेने घर में आ गया तो?
आपके मित्रों/रिश्तेदारों में ही कोई आपके साथ खड़ा हो सकता था। यह बीमारी बड़ी घातक थी। सब कुछ सही रहा, ईश्वर की कृपा रही, होम आइसोलेशन में ही आप स्वस्थ हो गए तो भी आपको एक कठिन मानसिक यातना से गुजरना पड़ता था। इसलिए अच्छा यह था कि शुरू से ही पूरी सावधानी बरतते हुए अपनी शारीरिक क्षमता/सहन शक्ति में वृद्धि की जाय। कोरोना हो ही न, इसी में सबकी भलाई थी। ईश्वर से रोज प्रार्थना करता कि यह कष्ट किसी को न सहना करना पड़े।
15 सितंबर तक घर सील था, उसके बाद घुसने की सोच रहा था। यह बीस दिन के नाती के साथ बिटिया की तस्वीर है, जो कई दिनों बाद सो पाई थी, तस्वीर बेटे ने अपने मोबाइल से लिया था।
2.9.24
सृजन के फूल
कल शाम स्याही प्रकाशन के सभागार में श्री नन्द लाल राजभर 'नन्दू' के काव्य संग्रह 'सृजन के फूल' का भव्य लोकार्पण समारोह मनाया गया। समारोह की अध्यक्षता जौनपुर से आए साहित्यकार श्री द्विवेदी जी एवं कुशल संचालन श्री टीकाराम जी ने किया।
सभा को सेवा निवृत्त विकास अधिकारी श्री दयाराम विश्वकर्मा, सेवानिवृत्त लेखाधिकारी श्री एन. बी. सिंह, सेवा निवृत्त जज आदरणीय श्री चंद्रभाल सुकुमार जी, आकाशवाणी वाराणसी के श्री..... एवं पुस्तक के सम्पादक श्री छतिस द्विवेदी जी ने अपने उदबोधन से आयोजन को सदा स्मरणीय बना दिया।
इस सफल आयोजन में जनपद के कई वरिष्ठ साहित्यकार उपस्थित थे।
वीडियो का लिंक यह रहा...
22.8.24
अटकन चटकन
(4 वर्ष पहले लिखी इस समीक्षा की याद फेसबुक ने दिलाई तो यहाँ पोस्ट कर दिया।)
........................................
वंदना अवस्थी दुबे जी का नया उपन्यास अटकन चटकन घर मे आए भी कई दिन हो गए लेकिन पढ़ने का मौका वैसे ही नहीं मिल रहा था जैसे और बहुत सी पुस्तकें उत्साह में मंगा तो ली गईं मगर धरी की धरी रह गईं। इसके नाम मे इतना आकर्षण था कि घर से ले आया और सामने मेज पर रख दिया। पक्का मन बना लिया था कि इसे तो पढ़ना ही है। देखें अटकन चटकन है क्या बला?
आज दिन में मौका मिला तो अनमने भाव से पढ़ना शुरू किया। शुरुआत के कुछ पृष्ठ पढ़ने के बाद से ही जो इस पुस्तक की कहानी ने अटकाया कि तब तक नहीं छूटा जब तक पूरा पढ़ नहीं लिया। जब आदमी की सांस अटक जाती है तो उसे अंतिम समय दही, गंगाजल चटा दिया जाता है। सोच रहा था, यही कुछ अर्थ लिए होगा इस शीर्षक का लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं निकला। हाँ, पूरे समय सांस अपनी ही अटकी रही और आई तब जब मैने इसे दीमक की तरह पूरा चाट नहीं लिया।
लगभग अस्सी पृष्ठों का यह लघु उपन्यास दो बहनों सुमित्रा जी और कुंती के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। ग्रामीण परिवेश, देशज शब्द और कसे संवादों ने इस कहानी को इतना रोचक बना दिया है कि पाठक एक ही बैठकी में इसे खतम कर देना चाहता है।
दो सगी बहनों में एक मंथरा(कुंती) है तो दूसरी सावित्री। मजे की बात यह है कि सावित्री जानती है कि यह मंथरा है, मंथरा जानती है कि यह सावित्री है मगर तमाम षड्यंत्रों के बाद भी जीवन पर्यंत दोनो में प्रेम भी बना रहता है! पढ़ने के बाद लगता है इस कहानी का नाम अटकन-चटकन के बजाय उलझन-सुलझन होना चाहिए था। एक बहन जीवन के मंझे को उलझाती है दूसरी बहन उसे यत्न कर सुलझाती है।
ग्रामीण परिवेश से उठाकर परिवारों के शहरी पलायन और अंत में गाँव के घर का, बूढ़े बरगद की तरह एकाकी रह जाने की घर-घर की दर्द भरी कहानी को बड़े अनूठे अंदाज में प्रस्तुत करने में सफल रही हैं लेखिका।
उपन्यास में कहीं-कहीं प्रचलित सीरियल के बकवास षड्यंत्रों की झलक भी दिखती है लेकिन कहानी के बीच ही सीधे पाठकों से संवाद कर, बड़ी साफगोई से लेखिका इस आलोचना से बच निकलने का प्रयास करती दिखती हैं। इस उपन्यास के मुख्य पात्र महिलाएं होने के कारण इसमें महिलाओं की खिचड़ी ही ज्यादा पकाई गई है। पुरुषों को दाल गलाने का मौका ही नहीं मिला है।
उपन्यास का अंत संयुक्त परिवार के विघटन के बाद एकाकी बचे पात्र को जीने का सही मार्ग इस अंदाज में दिखाता है कि हृदय को छू जाता है। कुल मिलाकर शुरुआत से अंत तक उपन्यास पाठक को बांधे रखने में सफल होता है। मैं वंदना अवस्थी दुबे जी को उनकी इस सफल कृति के लिए तहे दिल से बधाई देता हूँ।
30.7.24
इमली का चटकारा
डॉ योजना जैन का कहानी संग्रह 'इमली का चटकारा' पढ़ा। संग्रह में कुल 13 कहानियाँ हैं। हर कहानी किसी सामाजिक समस्या को उठाती है और कहीं न कहीं प्रभावित करती है।
पहली कहानी 'आंदोलन' एक ठेले वाले की कहानी है जो आंदोलन से बुरी तरह प्रभावित होता है। अंतिम पंक्ति पढ़कर पाठक का दिल धक्क से हो जाता है... पिछले कुछ महीनों में जो अधूरा हो गया था। वह था उसका बदन.. जिसमें एक ही किडनी थी।
दूसरी कहानी 'लेडीज बाथरूम' कामकाजी महिलाओं की जरूरी समस्या को उठाने में सफल रही है।
'वह पुरानी चिट्ठी' एक नव विवाहित जोड़े की कहानी है जिसका अंत सुखद है।
'तीसरी बेटी' लिंग भेद करने वाली सामाजिक सोच पर कुठाराघात करती है।
शीर्षक कहानी 'इमली का चटकारा' के माध्यम से बाँझ महिला के दर्द को अभिव्यक्त ही नहीं किया गया है, समाधान भी बताया गया है।
'फूल की कहानी' में लेखिका क्या कहना चाहती है, समझ में आता है लेकिन जोरदार नहीं लगा।
'येलेना माँ बनना चाहती है...' एक मार्मिक कहानी है जो 'न्यूक्लियर पावर प्लांट' में हुए विस्फोट के रासायनिक प्रभाव से एक बच्ची(जो बाद में महिला बनती है) पर हुए प्रभाव को इस तरह चित्रित करता है कि पाठक भी दुखी हो जाता है।
'श्रृंखला की अधूरी कहानी' भी एक महत्वकांक्षी, लोभी लड़की की कहानी है जिसका लोभ ही उसे ले डूबता है और उसकी इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं।
अगली कहानी 'कैरियर वुमन' एक ऐसी महिला की कहानी है जो घर में पति से और ऑफिस में बॉस से प्रताड़ित होती रहती है। कमाई पति ले लेता है और उसकी मेहनत से अर्जित की हुई सफलता का क्रेडिट बॉस ले उड़ता है। इस चक्की में पिसाती है उसकी मासूम बच्ची।
'वह बुरा नहीं था' एक मजदूर की कहानी के जरिए लेखिका ने सदियों से गरीब लड़कियों पर होने वाले अपराध को सामने लाने का प्रयास किया है। लेखिका कहना चाहती हैं कि गरीबों की सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है कि कोई लड़का बुरा न होते हुए भी जघन्य अपराध कर बैठता है और परिणाम सामने आने पर चौंकता है... अरे!
'हिमालय' जून 2013 में उत्तराखंड में आए विनाश की कहानी है। एक बच्ची फुल्की को बिंम्ब बनाकर बादल फटने और केदारनाथ धाम में आए प्रलय का वर्णन है।
आखिरी कहानी 'विल यू बी माय वेलेंटाइन?' नाम के अनुरूप एक कामकाजी नव युवा दम्पत्ति की प्यार भरी कहानी है। कहानी में एक संदेश है कि युवाओं को तरक्की के पीछे भागकर अपने वैवाहिक जीवन को पीछे नहीं छोड़ देना चाहिए। तरक्की और प्रेम में चुनना हो तो 'प्रेम' ही प्रथम वरीयता होनी चाहिए।
इन 13 कहानियों को पढ़कर इनकी विविधता पर आश्चर्य हुआ। लेखिका कभी ठेले वाले की बात करती हैं, कभी रूस पहुँच जाती हैं, कभी हिमालय के गाँव तो कभी दिल्ली के गुड़गांव! सभी कहानियों का कथानक जोरदार है और सभी कहानियाँ अपने आस पास घटित होती दिखती हैं। हाँ, वाक्य विन्यास और भाषा शैली कमजोर है। यह मुझे नई वाली हिन्दी लगी। लेकिन बर्लिन में रहते हुए भी लेखिका ने इतना विविध कथानक चुना और जरूरी आवाज उठाई, इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। इस कहानी संग्रह के लिए उन्हें बहुत बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएँ।
............
27.7.24
पुनर्नवा
दो दिन पहले, वर्षों पहले खरीदी गई हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक 'पुनर्नवा' पर दृष्टि गई, प्लास्टिक कवर हटा कर पढ़ना शुरू किया तो वाक्यों की सुंदरता ने मंत्र मुग्ध कर दिया, शब्द-शब्द मन में उतरने लगे। कहानी रोचक तो है ही, अपनी हिन्दी पर गर्व भी हुआ। वाह! हिन्दी कितनी खूबसूरत है!!! क्षोभ भी हुआ, लिखते-लिखते हम कहाँ से कहाँ आ गए!
प्रातः भ्रमण के लिए बहुत देर हो चुकी थी। कहाँ भोर में 5 बजे साइकिल लेकर घर से निकल पड़ता, कहाँ उठने में ही 6 बज चुके थे। देर हुआ तो क्या हुआ, कौन ऑफिस जाना है, सोच कर तैयार हुआ तो मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। ध्यान गया, कल रात 12 बजे के बाद पुस्तक समाप्त हुई थी, उठने में देर तो होना ही था। बाहर जोरदार वर्षात हो रही, हम फिर पुस्तक की याद में खो गए।
शताब्दियों पहले के कई ऐतिहासिक पात्रों से जुड़ी कहानियों को आपस में गूंथ कर किस तिलस्मी अंदाज से एक उपन्यास बना दिया है द्विवेदी जी ने! हिन्दी का आनंद लेने के लिए फिर से पढ़नी पड़ेगी पुस्तक।
अब बारिश रुक चुकी है लेकिन सूर्यदेव फिर अपने पुराने तेवर में चमक रहे हैं। हरी पत्तियों पर बिखरी बूँदों को तेजी से सोख रही है, चटक धूप।