यह एक सच्ची घटना पर आधारित है। इसे आप संस्मरण कह सकते हैं।
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मैं
एक अदद पत्नी और तीन बच्चों के साथ
झांसी 'प्लेटफॉर्म' पर खड़ा था
भीड़ अधिक थी
खतरा बड़ा था
मेरे पास कुछ ज्यादा ही सामान था
जो कुली मिला वह भी एक बूढ़ा मुसलमान था !
पचास रूपये में ट्रेन में चढ़ाने का सौदा तय था
मगर मन में एक अनजाना सा भय था
रेल के आते ही आ गया रेला
भागम-भाग, ठेलम-ठेला
कुली ने फुर्ती से
पहले पत्नी-बच्चों को
फिर मुझे
यूँ सामान सहित ट्रेन में धकेला
मानों मै भी हूँ
कोई सामान जैसा
फिर जोर की आवाज लगाई
साहब पैसा !!
मैं चीखा-
बच्चे कहाँ हैं ?
वह बोला-
ट्रेन के अंदर !
बच्चों की अम्मा कहाँ है ?
ट्रेन के अंदर !!
मेरा सामान कहाँ है ?
कुली झल्लाया-
आपका सामान आपके पास है
और आप भी हैं ट्रेन के अंदर !!!
मेरा पैसा दीजिए
फुर्सत में
सबको ढूँढ लीजिए।
तभी बीबी-बच्चों की आवाज कान में आई
मेरी भी जान में जान आई
जेब टटोला
बस् सौ का नोट था
बोला-
सौ का नोट है
पचास रूपये दो
वह भीड़ में चीखा-
नोट दीजिए आपके पैसे लौटा दुँगा
मैने कहा-ये लो।
उसने सौ का नोट लिया
और गायब हो गया
मैं मन मसोस कर
अपना सामान और जहान समेटने लगा
सोंचा
मेरी ही गलती थी
पचास का छुट्टा रखता
तो धोखा नहीं खाता
आज के ज़माने में
किस पर यकीन किया जाय !
यह क्या कम है
कि मेरा सभी सामान सही-सलामत है !!
सीटी बजी
ट्रेन पटरी पर सरकने लगी
सह यात्रियों की हंसी
मुझे और भी चुभने लगी
हें ..हें...हें... आप भी कमाल करते हैं !
ऐसे लोगों पर भी विश्वास करते हैं !!
तभी खिड़की से
एक मुठ्ठी भीतर घुसी
कान में हाँफती आवाज आई
साहब
आपका पैसा
फुटकर मिलने में देर हो गई थी...
मैने जल्दी से नोट लपका
और खिड़की के बाहर झाँक कर देखने लगा.....
प्लेटफॉर्म पर
दूर पीछे छूटते ''ईमान'' के चेहरे पर
गज़ब की मुस्कान थी !
उसके दोनो हाथ
खुदा की शुक्रिया में उठे थे
मानों कह रहे हों
हे खुदा
तू बड़ा नेक है
तूने मुझे
बेइमान होने से बचा दिया
हम
बहुत देर तक
पचास रूपये के नोट को देखते रहे
मेरे क्षुद्र मन और सहयात्रियों के चेहरे की हालत
देखने लायक थी।
पचास रूपये का नोट तो कहीं खर्च हो गया
मगर आज भी
मैं अपनी मुठ्ठी में
विश्वास और भाईचारे की
उस गर्मी को महसूस करता हूँ
जो उस गरीब ने
नोट में लपेटकर मुझे लौटाया था
जिसे
जीवन की आपाधापी में
सहयात्री
गुम होना बताते हैं।
Aaj bhi imaan daari jinda hai sair aise hi logon ki wajah se... mera naman aise logon ko.
ReplyDeleteJai Hind...
प्लेटफॉर्म पर
ReplyDeleteदूर पीछे छूटते ''ईमान'' के चेहरे पर
गज़ब की मुस्कान थी !
उसके दोनो हाथ
खुदा की शुक्रिया में उठे थे
मानों कह रहे हों
हे खुदा
तू बड़ा नेक है
तूने मुझे
बेइमान होने से बचा दिया
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पचास रूपये का नोट तो कहीं खर्च हो गया
मगर आज भी
मैं अपनी मुठ्ठी में
विश्वास और भाईचारे की
उस गर्मी को महसूस करता हूँ
जो उस गरीब ने
नोट में लपेटकर मुझे लौटाया था
kitna badaa sach hai, beimaanon ke madhya hi imaan pasine se tar-batar hota hai
DIL KO CHOO GAYEE GHANTA AUR AAPKA LIKHI RACHNA ......
ReplyDeleteaaj hi hm bhi ek aisi hi ghatna se rubaroo hue hain ,itna hi kahna chahoongi ki insaaniyat abhi khatam nahi hui,kam jaroor hui hai bus anupaat thoda gadbad ho gaya hai ,jo sochne par majboor kar deta hai ki aakhir iske liye kaun jimmedaar hai ,kahi..............
ReplyDeleteलोग कहते हैं कि दुनिया साँप के फ़न, कछुए की पीठ या गाय के सींग पर टिकी है..मगर मुझे लगता है कि यह दुनिया ऐसी ही ईमानदारी, विश्वास के कंधों पे टिकी है..और हमारा फ़र्ज है कि वो कंधे सलामत बने रहें..
ReplyDeleteजिंदगी की खूबसूरती लिये एक अनुभव बाँटने के लिये शुक्रिया
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! सच्चाई तो यही है कि आज के ज़माने में ऐसे ईमानदार इंसान ढूंढने से भी नहीं मिलते! वो पचास रुपया खर्चा होना तो जायज़ था पर उस छोटी सी बात को आप ज़िन्दगी भर याद रख सकते हैं! गरीब आदमी था पर उसके मन में कोई खोट नहीं था और न कभी ठगने के बारे में सोचा बल्कि उस सौ रूपये का छुट्टा करवाके दौड़ते दौड़ते आपको पचास रुपया लौटाया!
ReplyDeleteप्लेटफॉर्म पर
ReplyDeleteदूर पीछे छूटते ''ईमान'' के चेहरे पर
गज़ब की मुस्कान थी !
उसके दोनो हाथ
खुदा की शुक्रिया में उठे थे
मानों कह रहे हों
हे खुदा
तू बड़ा नेक है
तूने मुझे
बेइमान होने से बचा दिया
वाह....वाह ....वाह.....देवेन्द्र जी ऐसी घटनाएं तो सभी के साथ होती रहती हैं पर आपने इसे शब्दों में गज़ब का पिरोया .....लाजवाब.....!!
Wah Devendraji !Ghatana bhi Khoobssorat aur aapaki banya karane ki shaili bhi khoobsurat......ek pyarese yadgar pal ko aapane banya is tarah kiya,ki us par char chand lag gaye.Khubasurat yadagar ghatananye aapake sath hoti ranhe aur aapaki lekhani chalati rahe.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अहसास लिए संस्मरण.
ReplyDeleteकभी कभी हम अपनी ही असुरक्षित भावनाओं में बहकर , गलत सोच लेते हैं.
आज भी इमानदार लोग दुनिया में हैं.
अच्छा उदहारण.
aise log hi hame apne anrman se prichit karvate hai jinhe ham jankar bhi padh nhi pate .
ReplyDeleteishvar uske jeevan ki is jeevantta ko bnaye rkhe aur ham bhi vishvas ki dor tutne na de .
संवेदनाओं को बहुत ही अच्छे शब्दों में पिरो कर एक भावनापूर्ण रचना।
ReplyDeletedhanyvad mere blog par aane ka .Insaaniyat abhee jinda hai.....
ReplyDeleteaisee ghatnae dilo par chap chod jatee hai .aise bhee jhansi se mujhe bahut lagav bhee hai .
mere pati aur pitajee douno kee janmbhoomee Jhansi hai .aaj pahalee var hee aapake blog par aai hoo bahut sunder aapbbtee padane ka soubhagy mila .aabhar .
मानों कह रहे हों
ReplyDeleteहे खुदा
तू बड़ा नेक है
तूने मुझे
बेइमान होने से बचा दिया
बहुत सुंदर लगा आप का यह संस्मरण
ईमान आज भी जिन्दा है.
धन्यवाद
साहब, मुसल्लल ईमान था उसका..
ReplyDeletekal me Jhansi ja rahee hoo parivar me ek shadee hai . Mujhe maloom hai meree aankhe barbas hee us Kulee ko talashengee jisane naa jane kitano ke man me phir se vashvas aur imaandaaree me aastha paida kar dee . mere liye to vo shakhs Laxmeebai , dhyanchand jee , maithelee sharan jee.v Vrundavanlal vermaji se kam nahee .
ReplyDeletebadhai
देवेन्द्र जी,
ReplyDeleteआपके ब्लाग पर कई रंग देखने को मिले.
सबसे ज्यादा ''मां'' और ''पिता जी'' ने प्रभावित किया.
जनाब निदा फाज़ली कहते हैं---
बीवी, बेटी, बहन, पडोसन, थोडी थोडी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां
आपने मां की इसी कशमकश को अपने शब्दों में खूबसूरती के साथ पेश किया है..
मैंने आपके ब्लाग को अपनी लिस्ट में शामिल कर लिया है
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
मुझे लगता है, जबकि यह पोस्ट है, उत्तर देने का विकल्प ब्लॉग में नहीं था।
Deletevery good... keep writing...
ReplyDeleteमेरे अनुभव को सह्रदयता से महसूस करने और अपनी विस्तृत टिप्पणियों से मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए मैं आप सभी का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ ।
ReplyDeleteachhi laga apka sansmaran....
ReplyDeleteमाफ़ कीजियेगा... पहले नहीं पढ़ पाया था.
ReplyDeleteईमान और विश्वाश से लाबालैब यह संस्मरण
मेहनतकश आदमी के लिए ऐसी कमाई हराम है...पर बड़े बाबू लोगों की कौन कहे...
ReplyDeleteवाकई ईमान हो तो ऐसा।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteमन छू गया आपका संस्मरण सर।
ReplyDeleteऐसे ही लोगों की बदौलत दुनिया में सच पर भरोसा और इंसानियत पर यकीन कायम है।
सादर।
ईमान की भट्ठी में तपा प्रेरक संस्मरण सृजन।
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteयह संस्मरण मुझे भी प्रिय है। पसंद करने और प्रतिक्रिया देने के लिए सभी का शुक्रगुजार हूँ।
ReplyDeleteबहुत मनभावन काव्यात्मक रचना….मन भिगो गई…बना रहे मनों में ये विश्वास!
ReplyDeleteएक गरीब कचली की अमीर ईमानदारी को बहुत ही लाजवाब तरीक़े से बयां किया आपने...
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक संदेशप्रद लाजवाब सृजन
वाह!!!
बेहतरीन
ReplyDeleteसलाम उस ईमानदार कुली को
सादर
आदर्शों की मिसाल , सुंदर कथा।
ReplyDeleteईमानदारी का सुंदर दृश्य चित्र खींचती रचना।
बहुत, बहुत, बहुत.. आनंदित करता कवितामय संस्मरण!
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