29.11.17

लोहे का घर-31


ट्रेन ने बदली पटरियाँ 
लोहे के घर की खिड़की से 
हौले से आई और..
दाएं गाल को चूमकर 
गुम हो गई 
जाड़े की धूप।

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पुत्रों को सौंप
धानी चुनरिया
सन बाथ ले रही है
धरती माँ
पटरी पर चल रही है
अपनी गाड़ी।

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सुबह के समय लोहे के घर की खिड़कियों से दिखते हैं सुनहरे धूप में नहाए स्वर्णिम खेत। खड़ी ज्वार/गन्ने की फसल हो या गाय/भैंस के मल से बने कंडे, यत्र तत्र सर्वत्र एक सुनहरी आभा बिखरी होती है। खेत के साथ खेतों की रखवाली के लिए तैनात बजुके भी दिखते हैं।
पंछियों को डराने के लिए किसान खेतों में बजुके खड़े करते हैं। चालाक पँछी आदमी के इन पुतलों से नहीं डरते। आकाश से उतर कर सीधे बजुकों के सर पर बैठते हैं। इधर-उधर ताकते हैं फिर पूँछ उठाकर, पँख फड़फड़ा कर पुतलों की बाहों से होते हुए खेतों में उतर, ढूँढने लगते हैं दाने। इसे देख एक बात समझ में आती है कि किसी को बहुत दिनों तक मूर्ख नही बनाया जा सकता।

अब प्रश्न उठता है कि इन बजुकों में अगर जान आ जाय तो क्या हो? स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय मानव प्रजाति के व्यवहार को देखते हुए तो यही लगता है कि लाख खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की व्यवस्था करो, सबसे पहले खेतों के दाने तो बजुके ही उड़ाएंगे! पूछो तो सारा इल्जाम चिड़ियों पर!..जरा सी आँख लग गई थी साहेब। अब हर समय तो जाग नहीं सकता!
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लोहे के घर की बन्द शीशे की खिड़कियों से आ रही है सुर सुर सुर सुर ठंडी हवा। आमने सामने की बर्थ पर हम छः यात्री हैं और सभी अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हैं। सभी साथी हैं मगर सभी को एक दूसरे से ज्यादा कुछ और पसन्द है। किसी को फिलिम पसन्द है, किसी को मोबाइल गेम।
कमोबेस यही हाल कंकरीट के घरों का भी है। कहने को तो सभी एक परिवार के सदस्य हैं मगर सभी की रुचियाँ अलग-अलग हैं। सभी को अपनी जिंदगी जीने का अधिकार और खुला स्पेस चाहिए। यदि कोई किसी से अपने मन की बात करना चाहता है तो अगले के खाली होने तक उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। बीच में टोका तो हो गया उपेक्षा का शिकार! उपेक्षा से आहत हुआ अहंकार। आहत दिल से उपजा क्रोध। क्रोध ने कराई बात। शुरू हुआ बेबात का झगड़ा। बहुत लफड़ा है। जीवन सरल भी हुआ है और कठिन भी।

एक अकेला अजनबी यात्री ऊपर बर्थ में पद्मासन लगा कर बैठा नीचे वालों को टुकुर टुकर ताक रहा है। अलग अलग मोबाइल से आ रही आवाजें सुन रहा है। शायद उसके पास मोबाइल नहीं है। युवा है लेकिन उसका हाल घर के दद्दू जैसा है। जो परिवार के सभी सदस्यों की बात चुपचाप सुनता रहता है लेकिन अपने मन की बात किसी से नहीं कह पाता। ऊपर वाले को दद्दू की तरह बस मंजिल की प्रतीक्षा है।
#ट्रेन देर से रुकी थी। लोग अकुला कर एक दूसरे से बात करने ही वाले थे कि चल दी। आजकल जब समस्या आती है तभी घर के सदस्य एक दूसरे से बातें करते हैं। अजी सुनते हैं? मुन्ना अभी तक कोचिंग से नहीं आया! पति हाँ, हूँ करते हुए करवट बदलता है तभी डोर बेल बज जाता है। मुन्ना आ गया। समस्या खतम। संवाद खतम। एक तो वैसे ही हम दो, हमारे दो वाला छोटा परिवार उप्पर से सभी के अपने अपने मूड। पहले घर में बच्चे रहते और रहतीं थीं भाभी, दादी। गीतों के झरने बहते थे, झम झम झरते कथा, कहानी।
ऊपर पद्मासन लगा कर बैठा बन्दा सुफेद चादर ओढ़कर सो गया। नीचे बैठे छ में से एक सदस्य अपनी मोबाइल बन्द कर खिड़की का शीशा उठाकर बाहर अँधरे में मंजिल झाँक रहा है। दो एक ही मोबाइल में कोई मजेदार फ़िल्म देख कर खिलखिला रहे हैं। नॉन स्टॉप ट्रेन फिर किसी छोटे स्टेशन पर देर से रुकी है।
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भारतीय रेल अच्छे अच्छों को अपने समय जाल में फंसा सकती है। सात बजे फरक्का को जौनपुर आना था वह अभी तक नहीं आई। उसके बदले ८.१० में आने वाली गोदिया ९.३५ में आ गई। हम यह सोच कर मन बहलाते रहे कि वह अब चल चुकी है, अब आ रही है। पहले ही कह देती की हम इतने देर से आएंगे तो इसे कौन पूछता? सब सड़क का रास्ता नहीं पकड़ लेते! अब आ गई है तो इत्मीनान से खड़ी है। सिंगल ट्रैक है, एक मालगाड़ी छूटी है अभी। अब जब तक वह अगले स्टेशन तक पहुंचेगी, इसे रुकना ही है। हम अब इसकी एक बोगी में लेट कर इसके चलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बोगी में कोई कह रहा है.. काशी जाना आसान नहीं। उसके कहने का आसय यह कि मोक्ष पाना इतना सरल नहीं है।
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अपनी गाड़ी पटरी पर चल रही है। इस दौर में जब पटरी से उतर जाने की खबर चर्चा में हो, गाड़ी का पटरी पर चलते रहना सुखद है। क्या हुआ कि अब तक मिल जानी चाहिए थी मंजिल लेकिन नहीं मिली! क्या हुआ कि आना था कब और आई है अब! क्या हुआ कि जब घर पहुंच कर, खा पी कर सो चुकना था हमें मगर मगर फंसे हैं, रस्ते में! देर से चली मगर बड़ी रफ्तार से चल रही है अपनी गाड़ी। रात के सन्नाटे में किसी पुल को थरथराती, किसी छोटे स्टेशन पर पटरियां बदलती, झूला झुलाती ट्रैक बदलती है #ट्रेन तो बड़ा मज़ा आता है।
कुछ सो रहे हैं और कुछ इतने रात को भी ऐसे चहक रहे हैं कि अभी सबेरा हुआ हो! जो दूर से यात्रा करते हुए चले आ रहे हैं और अभी दूर जाना है वे मुंह ढककर सो रहे हैं। जिन्होंने प्लेटफार्म पर लंबी प्रतीक्षा के बाद के बाद ट्रेन पकड़ने में सफलता पाई है, वे चहक रहे हैं। न जाने क्या है इस ट्रेन की मोहब्बत में कि रोज धोखा देने के बाद भी कभी बेवफा नहीं लगती। रोज कहते हैं कि न जाएंगे कभी इससे और रोज लगता है कि बस चढ़े नहीं कि घर पहुंच गए। मंजिल से प्यारा है इसका सफर। अजनबी भी लगने लगते हैं हमसफ़र!
अभी देर से किसी स्टेशन पर रुकी है। पक्का बता देती कि रात भर रुकी रहेगी तो सो जाते चैन से। मगर कभी पक्की बात न करना ही तो ट्रेन की जानमारू अदा है। सही बता देती तो चलने वाले हारन की आवाज में इतनी मिठास कहां होती!
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सुबह सबेरे एक युवक चलती #ट्रेन के दरवाजे पर बैठा खेत झाँक रहा था। हमने कहा...उठो! रास्ता दो। स्टेशन पास आ रहा है, उतरना है।
वह उठा तो उसका आसन दिखाई दिया। दरअसल वह लकड़ी की एक पटरी थी जिसके चारों कोनों पर पहिए लगे हुए थे! अब हमारा ध्यान इकहरे स्वस्थ बदन वाले युवक पर गया। वह अपने एक टाँग पर खड़ा था। दूसरा पैर घुटने से गायब था!
कहाँ जाना है?
ट्रेन अमृतसर तक जाएगी तो अमृतसर चले जायेंगे!
#दिव्यांग के लिए पूरी बोगी है, वहाँ क्यों नहीं बैठे?
उसने प्रश्न के जवाब में प्रश्न किया...वहाँ बैठते तो माँगते कैसे?
अब हमको समझ मे आया कि यह तो भिखारी है!
कब से भीख मांग रहे हो?
बचपन से।
पैर कब कटा?
जब सात साल के थे।
कोई दूसरा काम क्यों नही करते? एक पैर कटा तो क्या हुआ? स्व्स्थ हो, सभी दूसरे अंग सलामत हैं।
घर वाले करने नहीं देते। सब यही काम करते हैं!
तब तक अपना स्टेशन आ गया और हम उतर गए। किसी भिखारी को देख कौंध जाता है उसका भी चेहरा तो लगता है भीख मांगना भी एक काम है। 


लेखक

जब कोई बड़ा लेखक मरता है
हमारे पास आता है।
अखबारें करती हैं
उनकी चर्चा
छापती हैं
उनकी कविताएं, संस्मरण, कृतियाँ और,..
पुरस्कारों के नाम।
जब कोई बड़ा लेखक मरता है
यकबयक
जागृत हो जाता है
मृतप्रायः साहित्यिक समाज
चमकने लगती हैं
गोष्ठियाँ
राजनैतिक चर्चा छोड़
चाय पान की अढ़ियों में
होने लगती हैं
किसी चर्चित पुस्तक या प्रसिद्ध कविता पर
बातचीत।
जब कोई बड़ा लेखक मरता है
तब याद करते हैं हम उसे
अरे!
कौन सी तो पुस्तक थी इनकी?
हमने पढ़ी थी यार!
बहुत अच्छी थी।
हाँ, हाँ यह वाली कविता
क्या बात है!
अच्छा!
अब चलेंगे पुस्तक मेले में
तो याद दिलाना
खरीदनी पड़ेगी इनकी
कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें
पढ़े नहीं तो
कितने बुद्धू लगेंगे हम
बुद्धिजीवियों में!
जब कोई बड़ा लेखक मरता है
स्थान पाता है
पढ़े-लिखे समाज में।

संघर्ष तो होगा

हम नहीं करेंगे
तुम नहीं करोगे
लेकिन वह जरूर करेगा
जिसे सहन नहीं होगा
संघर्ष तो होगा।

उतनी ही चलती है तानाशाही
जितनी झुक पाती है
रीढ़ की हड्डी
उतना ही रो पाती हैं
आँखें
जितने होते हैं
आँसू
पांच गांव मिल जाता
तो क्या
महाभारत होता?
संघर्ष तो होगा।

झूठ की ही नहीं
आँच अधिक होने पर
फूट जाती है
सच की भी हांडी!
गलत सही
सही गलत
कब तक होगा?
संघर्ष तो होगा।

कथरी

कथरी...1
कइसन तबियत हौ माई?
कहारिन ठीक से तोहार सेवा करत हई न?
काहे गुस्सैले हऊ?
पंद्रह दिना में घरे आवत हई, ई खातिर!
का बताई माई
तोहार पतोहिया कs तबियत खराब रहल
अऊर
ओ शनीचर के
छोटका कs स्कूल में... ऊ का कहल जाला... पैरेंट मीटिंग रहल
तू तs जानलू माई
शहर कs जिनगी केतना हलकान करsला

तोहसे से तs कई दाईं कहली,
चल संगे!
उहाँ रह!
तोहें तs बप्पा कs माया घेरले हौ
ऊ गइलन सरगे,
इहाँ बैठ कबले जोहबू?
हाली न अइहें।

का कहत हऊ माई?
ई कथरी से जाड़ा नाहीं जात?
दूसर आन देई?
तोहें मोतियाबिंद भईल हो, एहसे दिखाई नाहीं देत
ले!
कहत हऊ तs नई कथरी ओढ़ाय देत हई।
(पलटकर, वही रजाई फिर ओढ़ा देता है!)

माई!
नींद आयल राति के?
का कहली?
नवकी कथरी खूबे गरमात रही!
खूब नींद आयल!!!

ठीकै हौ माई,
चलत हई
सब सौदा धs देहले हई कोठरी में
कहरनियाँ के समझाय देहले हई
नौकरी से छुट्टी नाहीं मिलत माई
जाना जरूरी हौ।
तोहार बिसवास बनल रहे,
कथरी तs
जबे आईब
तबे बदल देब!
पा लागी।
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कथरी-2
सरगे में
मजा काटा
बाकि 
सुना करतार!
उलट पुलट
पुरनकी कथरी ओढ़ावेला
बेटवा तोहार!

बूझला...
माई के मोतियाबिंद भयल हौ त
गंधइबो न करी!
भिनसहरेे पूछी बेईमनवाँ..

नींद आयल माई?
मनेमन हँसी कs फुहारा छूटेला
मुहवाँ से बस इतने कहीला...

हाँ बेटवा!
खूब नींद अायल
नवकी कथरी बहुते गरमात रही!
पगलुआ खुश हो जाला।

हमे कs देई
कहरनियां हवाले
अपना जाई
शहरिया कमावे
मेहरिया के अपने
कपारेे चढ़ाई
लइकन के
इसकूले पढ़ाई
पन्द्रह दिना में इहाँ आई तs
पुरनकी कथरी
उलट-पुलट ओढ़ाई!
एहसे भला
जाड़ा जाई?
नाहीं किनाता एगो रजाई
त उफ्फर पड़े
अइसन कमाई!
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19.11.17

लोहे का घर-30

सुबह का समय है, लोहे के घर की खिड़की है और सामने हरे-भरे खेतों में दूर दूर तक फैली जाड़े की धूप। #ट्रेन छोटे छोटे स्टेशनों पर रुकती है, अपनी वाली की प्रतीक्षा में खड़े लोग दिखते हैं फिर ट्रेन चल देती है। लगभग हम उम्र पॉच बच्चों के साथ बैठी एक देहातन देर तक याद आती है। लगता है कि कुछ जिंदगियां बड़ी देसी टाइप की होती हैं। जाड़े में मां के साथ बच्चों के झुण्ड गली-गली दिख ही जाते हैं।
लोहे के घर में रोज के यात्री किसी विषय पर बहस कर रहे हैं और बाहर सामने की पटरी से एक डाउन ट्रेन हारन बजाती गुजर रही है। इंजन के शोर के बाद अपनी गाड़ी की खटर-पटर अच्छी लग रही है। बड़े शोर के बाद छोरा शोर अच्छा लगता है। पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी।
खेतों में धान की कटाई जोरों पर है। दूर दूर तक फैले कटे धान क ढेर और अधकटी फसलों पर सूर्य की किरणें धमाल मचा रही हैं। इन्हें देख-देख परिंदों के साथ-साथ हम भी खुश हैं लेकिन किसान और उसका परिवार चिंतित। तैयार फसल को ठिकाने लगाने की कड़ी मेहनत से जूझ रहा किसान प्रसन्न कब होता है, हम क्या जाने! हमने कभी खेती तो करी नहीं। हमने तो बस लहलहाती फसलों की फोटोग्राफी का आंनद लिया है। जाके पैर न पड़ी बिवाई, ऊ का जने पीर पराई!
आम का एक बाग गुजरा है। एक पुल पर चढ़ रही है ट्रेन। शांति से सो रही थी नदी। कम पानी की वजह से बीच में उभर आए रेत पर बैठ मस्ती कर रहे थे गांव के लड़के। एक नाव खड़ी थी किनारे। किनारे-किनारे नदी पर तैर रही घने वृक्षों की परछाइयां नदी को और भी मैली दिखा रही हैं।

आज सुरुज नरायण आदमियों की करनी से चित्त हो गए दिखते हैं। लोहे के घर की खिड़की से दिखने वाले खेतों में न धूप है न किरणें। ऐसा लगता है कि दोनो बहने डर गई हैं। आकाश में बादल नहीं हैं फिर भी उतर नहीं पा रहीं धरती पर।

अभी शाम के साढ़े पाँच बजा चाहते हैं लेकिन धुंध इतनी है कि लगता है शाम ढल गई। लोहे के घर की खिड़की से धुंध में डूबे खेत दिख रहे हैं। झुग्गी-झोपड़ी और दूर खेतों के बीच उग आए कंकरीट के घरों में जल चुके हैं बल्ब। साथी कह रहे हैं यह कोहरा नहीं, धुंध है। कोहरा होता तो हवा में दिसम्बर वाली ठंडी होती।
जाड़े के मौसम में जब घने कोहरे के कारण ट्रेने अत्यधिक लेट हो जाती हैं, तो एक दिन पहले वाली या सुबह वाली #ट्रेन अकस्मात नेट में अवतरित हो जाती है। यही हाल आज का है। अपनी रोज की सभी ट्रेने अत्यधिक लेट हैं, भोर में आने वाली बरेली एक्सप्रेस शाम को मिल गई।
अब खेत अंधकार में डूब चुके हैं। घर के भीतर रौशनी है। बोगी में भीड़ कम है। ज्यादातर रोज के यात्री ही दिखलाई पड़ रहे हैं। कोई ऊँघ रहा है, कोई मोबाइल चला रहा है। घर के बाहर चारों तरफ उजाला फैला हो, घर भले अंधेरे में डूबा रहे, कोई बात नहीं। मन में उजाला हो, आँखें भले अंधकार में डूबी रहें, क्या फ़र्क पड़ता है! यहाँ स्थिति थोड़ी विपरीत है। घर में उजाला है और बाहर अँधेरा। मन में निराशा है और आँखें उजाले में डूबी हुई।
शोर भी सुनाई पड़ रहा है। उस तरफ बैठे साथी देश की चिंता में हैं। देश की चिंता में शोर होना स्वाभाविक है। मीडिया भी टी.वी. चैनलों में विद्वानों को बुलाकर देश की चिंता करती है। खूब शोर होता है फिर सभी हँसते हुए घर जाते हैं। उस तरफ बैठे यात्री भी अब खिलखिला कर हँस रहे हैं। लगता है देश की चिंता कर चुके।
आज मिली लेट ट्रेन अभी तक बढ़िया चल रही है। 

आज पाँच बजे के आसपास जौनपुर से बनारस जाने वाली चार चार ट्रेने हैं। जो मर्जी वो पकड़ो। खुदा जब देता है, छप्पर फाड़ के देता है। यह अलग बात है कि कोई कल वाली है, कोई आज सुबह वाली। मजे की बात यह है कि रोज के यात्री रेल मंत्री को धन्यवाद दे रहे हैं। घंटों लेट यात्री जितना रेलवे को कोस रहे होंगे उससे ज्यादा तो अपने समय पर ट्रेन पकड़ पाने के लिए धन्यवाद मिल रहा है!
यह कोलकोता जम्मूतवी सियालदह एक्सप्रेस है। रात 12 बजे के आसपास जौनपुर से जाती है। अभी शाम 5.15 में चली है। रेल पटरी पर एक के पीछे दूसरी लगी हैं। एक्सप्रेस ट्रेन हर स्टेशन पर पैसिंजर की तरह रुक रही है। आगे प्लेटफॉर्म खाली ही नहीं है तो पीछे वाली आगे कैसे बढ़ेगी?
बोगी में अंधेरा था। दूसरे यात्रियों ने बताया कि कल से अँधेरा है। रोज के यात्रियों ने रॉड घुमाया तो सब रॉड जल गये। अब उजाला हो गया। अब सभी अपनी अपनी बीमारी के हिसाब से अपने अपने धंधे में लग गए। कोई बर्थ खाली देखकर लेट गये, कोई मोबाइल में पुराना क्रिकेट मैच/वीडियो देख रहे हैं, कुछ देश की चिंता कर रहे हैं, कुछ तास खेल रहे हैं और हम लोहे के घर की कहानी।
ट्रेन रुक रही है, चल रही है। लोग खुश हो रहे हैं, दुखी हो रहे हैं। पटरी पर चल रही है सभी की गाड़ी।

शाम ढल चुकी है। लोहे के घर में वेंडर भेज और नानभेज खाने का आर्डर ले रहे हैं। दो पीस मच्छी और भात 140 रुपये में। मछली रोहू बता रहा है। मेरे साथ मालदा तक जाने वाले लड़के बैठे हैं। खूब पूछताछ के बाद भी यह कहकर नहीं लिए कि महंगा है। पता नहीं सही रेट क्या है!
यह दिल्ली से मालदा जाने वाली फरक्का है। इसमें बंगाली अधिक हैं। मोबाइल में गाने भी बंगाली बज रहे हैं। मालदा कब पहुँचेगी पूछने पर एक लड़का कहता है ..पता नहीं। मुझे लगा मेरा प्रश्न ही वाहियात था। भारतीय रेल कब कहाँ पहुँचेगी यह भी पूछने की बात है! जब मिल जाय तब चढ़ लो, जब पहुँच जाओ उतर लो। झोले में दाना-पानी, गुण-भुजा बांध लो। मोबाइल चार्ज करने की व्यवस्था टंच रहे फिर क्या चिंता? गाते-बजाते पहुँच ही जाओगे। महंगा माछी-भात कितनी बार खाओगे? दो-दिन का सफर तीन दिन में क्या हर्ज है? रेलवे कोई एक्स्ट्रा किराया थोड़ी न लेती है!
वेण्डर भी कई प्रकार के आते हैं। अंडा-चावल, सब्जी- चावल वाले खाना, खाना, खाना.....चीखते आ/जा रहे हैं। इतने खिलाने वाले हैं फिर #ट्रेन लेट होने की क्या चिंता।

आपको पता है, मुझे पता है लेकिन क्या सभी बच्चों को पता है कि आज उनका दिन है? स्कूल जाने वाले बच्चे गहरी सांस लेंगे टेबल या बेंच पर अपने बस्ते का भारी बोझ पटक कर तब शायद उन्हें बता देंगे गुरुजी कि आज बाल दिवस है। सुनकर वे खुश होंगे और चाचा नेहरूको मिस करेंगे या फिर जल्दी-जल्दी याद करेंगे चाचा की जीवनी! क्या सभी बच्चे जा पाते हैं स्कूल?
लोहेकेघर में एक बच्चा पैर छू कर भीख मांग रहा है। न उसे पता है कि आज बाल दिवस है न उसे जिसने डाँट कर भगा दिया बच्चे को!
पटरी पटरी प्लास्टिक के टुकड़े बीन कर सीमेंट के खाली झोले में भरने वाले बच्चों को भी नहीं पता कि आज बाल दिवस है।
पानी की बोतल बेचने के लिए चलती ट्रेन से कूद कर उस पटरी पर खड़ी ट्रेन पर चढ़ने वाले बच्चे को भी नहीं पता।
देव दीपावली के मेले में जब चारों ओर घाटों पर जल रहे थे दिए कुछ बच्चे बेच रहे गुब्बारे! आज क्या वे मना रहे होंगे बाल दिवस?
आज सुबह चाय की दुकान पर गिलास धो रहे बच्चे को तो पक्का नहीं पता था।
माँ के साथ महुए के पत्तों की गठरी सम्भाले रेल की पटरी पार करते बच्चों को भी नहीं पता।
और तो और मुझे ही कहाँ पता था? वो तो फेसबुक में नेहरू-एडविना के प्रेम प्रंसग पर परसाईं का लेख पढ़ा तो याद आया कि आज बाल दिवस है!

चीटियों की तरह एक के पीछे दूसरी पंक्ति बद्ध हो, खरगोश की तरह टेसन-टेसन फुदकती चल रही हैं सभी ट्रेनें। सुपर फास्ट पैसिंजर को क्रॉस नही कर सकती क्योंकि हर टेसन के मेन लाइन पर खड़ी है मालगाड़ी। किसे पता था कि समाजवाद ऐसे भी लाया जा सकता है!

जौनपुर सीटी स्टेशन पर रोज के यात्रियों का उत्साह देखते ही बनता है..बेगम पूरा आ गई! बेगम पूरा आ गई! का शोर गूंजा और जम्मूतवी से चलकर बनारस जाने वाली ट्रेन जो दिन में ११ बजे के आसपास आती है, शाम ६.४५ में सीटी स्टेशन आ गई। सुल्तानपुर से बहुत जल्दी आ गई थी शायद इसलिए चलकर जफराबाद में इत्मीनान से रुकी है। अगल-बगल दो ट्रेनें खड़ी हैं। बाईं तरफ अप वाली पटरी पर सुबह आने वाली दून और दाईं तरफ गाजीपुर जाने वाली पैसिंजर। अपनी वाली बनारस तक नॉन स्टॉप है। सभी की देखा देखी यह भी रुक गई या और कोई कारण भगवान जाने!
#ट्रेन अब हवा से बातें कर रही है। अनावश्यक खड़ी ट्रेन जितनी बुरी लगती है, हवा से बातें करती उतनी ही हसीन। अब बड़ी प्यारी लग रही है अपनी बेगमपुरा।
गाड़ी रुक जाए तो बड़ी तकलीफ होती है, पटरी पर चलती रहे तो जीवन में आंनद रहता है। गाड़ी जब तक चलती रहती है लोहे के घर के सभी सदस्य अपनी-अपनी मस्ती में रहते हैं। निश्चिंत भाव से कोई मोबाइल में वीडियो देख रहा होता है, कोई राजनैतिक बहस में शामिल हो, देश की चिंता करने लगता है, कोई बैठे-बैठे ऊंघने/सोने लगता है। और तो और बेचन आत्मा भी चिंता छोड़ गीत गाने लगता है!
गाड़ी भले पटरी पर हो, अनावश्यक रुक जाए तो बड़े से बड़े धैर्यवान के भी धैर्य का बांध टूट जाता है। बेचैन हो खिड़की/दरवाजे से सिगनल झांकने लगता है। गाड़ी फिर पटरी पर चल पड़ती है, फिर खुश हो जाता है।
भारतीय रेल अपने देशवासियों को धैर्यवान बनाती है। जीवन जीने का फलसफा सिखाती है। रेलवे दर्शन को भी दर्शन शास्त्र में शामिल कर विश्वविद्यालयों में शोधपत्र लिखवाया जाय तो जीवन जीने के कई नए विचार प्रकाशित हों।
घर के लोग अभी फ़िर दुखी हुए हैं। किसी ने चेन पुलिंग करी है। चेन खींचने वाला बन्दा पटरी के उस पार भागा जा रहा है। अंधेरे में कोई उल्लू चीख रहा है... अपना उल्लू सीधा, भाड़ में जाए जनता!

लोहे के घर की बायीं तरफ वाली खिड़की के पास बैठ बनारस से जौनपुर की यात्रा में ट्रेन जब भुतहे बंगलों से आगे निकल आउटर पार होती है तब दिखती है 39 जी टी सी..गोरखा रेजीमेंट की लंबी बाउंड्री और बाउन्ड्री के भीतर दूर दूर तक फैले बबूल के जंगल। धीमी होती है #ट्रेनकी रफ्तार और देर तक दिखते हैं बबूल के जंगल। शायद सुरक्षा की दृष्टि से लगाये गए होंगे कि न आ पाए कोई, सैनिक छावनी तक।
सोचता हूँ काश ये जंगल बबूल के न होते! नीम, बरगद या पीपल के होते तो कितना अच्छा होता! बबूल के काँटे न होते, शांति की शीतल छांव होती। क्या जरूरी है सुरक्षा के लिए बबूल की बाड़? शहर के मध्य है यह जंगल। आम आदमी वैसे भी ऊँची बाउन्ड्री के भीतर नहीं घुस सकते। हाय! शायद जरूरी होता है सैनिकों के युद्धाभ्यास के लिए कंटीला वातावरण।
सोचता हूँ...देस ही न होते, सैनिक ही न होते, बबूल ही न होता तो कितना अच्छा होता!

मात्र 31.24 घण्टे लेट है कोटा पटना। कल सुबह आनी थी, आज शाम को जौनपुर के भंडारी स्टेशन पर 10 मिनट से खड़ी है। हम इस उम्मीद से बैठे हैं कि खड़ी है तो चलेगी भी। आखिर चलने के लिए ही तो आई है! जनरल में भीड़ है लेकिन स्लीपर की बोगियाँ खाली-खाली हैं। स्लीपर वाले आधे यात्री उतर कर भाग गये लगते हैं। उनके पास सड़क से जाने का पैसा होगा। जनरल वाले कहाँ जाते। एक दूसरे से चप चपा कर बैठे हैं। जो बैठ नहीं पाए हैं वे खड़े हैं। बिना टिकट के यात्रा की सुविधा सिर्फ पैसिंजर या जनरल बोगी में ही तो मिलती है! भीड़ भाड़ वाले जनरल डिब्बों में टी टी क्यों जाएं? परेशानी के सिवा क्या मिलेगा वहाँ?
भंडारी से एक टेसन आगे जफराबाद तक सिंगल पटरी है। पटना से आने वाली कोटा पटना उधर से आ रही है। जब वह आएगी तब यह चलेगी। अपनी वाली इत्मीनान से खड़ी हो, ग्रीन सिगनल की प्रतीक्षा कर रही है। सिंगल ट्रैक में यही होता है। एक स्पेस देगा तो दूसरी को मौका मिलेगा। आजकल के बच्चे शायद इसीलिए #सिंगल रहना चाहते हैं। एक फ़िल्म आई है 'करीब करीब सिंगल' । अभी फ़िल्म नहीं देखा, पोस्टर देखा है। दो ट्रेनें अगल बगल खड़ी हैं और दोनो की खिड़कियों से हीरो हीरोइन हाथ उठाते हुए एक दुसरे को कुछ इशारे कर रहे हैं। उधर से आने वाली पटना कोटा आ गई। किसी खिड़की से हीरोइन नहीं झाँक रही। झाँकती होती तो बोल देता ..मैं भी करीब करीब सिंगल हूँ। बच्चे बड़े हो चुके। थका मांदा घर जाता हूँ, बुढ़िया भाव खाती है, भाव नहीं देती। हाय! लंबी प्रतीक्षा के बाद उधर वाली से कोई झाँकी, मेरी वाली #ट्रेन चल दी। हम फिर करीब करीब सिंगल के सिंगल रह गए।
आधे घण्टे बाद अब पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी। मेरे साथ अगल बगल सब सिंगल पुरुष ही हैं। कोई लेटा है कोई बैठा है। कोई दोनो टाँगे उठाकर ऐसे लेटा है जैसे इस आसन में घर में सोता मिल गया तो पत्नी बेलन से पीटती हो! कोई एक हाथ से सर टिकाए विष्णु भगवान के शेषनाग आसन की तरह दाएं करवट लेटा है और बाएं हाथ से मोबाइल में पुराने क्रिकेट मैच का वीडियो देख रहा है। मेरे बगल में बैठे मोटे सरदार जी सामने वाली बर्थ पर दोनों टाँगे फैलाये, दोनो हाथों से मोबाइल पकड़े कोई फिलिम देखने में लीन हैं।
भंडारी से छूटने के बाद ट्रेन करीब करीब अच्छी चली। लगता है बनारस आउटर पर जाकर ही दम तोड़ेगी। हाय! किसी ने चेन पुलिंग कर दिया। ट्रेने यूँ ही थोड़ी न लेट होती है।


लोहे का घर-29

आज छठ की भीड़ है लोहे के घर में। साइड अपर में सामानों के बीच चढ़ कर बैठ गए हैं हम। सामने एक महिला ऊपर के बर्थ पर दो बच्चों को टिफिन में रखा दाना चुगा रही हैं। चूजे कभी इधर फुदकते हैं, कभी उधर। गिरने-गिरने को होते हैं कि मां हाथ बढ़ाकर संभाल लेती हैं। बगल के बर्थ में एक लड़का घोड़ा बेच कर सो रहा है। जफराबाद में ट्रेन रुकी, ८-१० और यात्री चढ़ कर बैठने का जुगाड तलाश रहे हैं। नीचे के दोनो बर्थ पर कोहराम है। छोटे-छोटे पांच बच्चे, दो महिलाएं और चार पुरुष आपस में गड्डमगड्ड हैं। खाना बेचने वाला भी खड़ा है, यात्रियों के साथ। आवाज़ लगा रहा है-'सब्जी-भात, डिम- भात, मछछी-भात।' डिंबा से डिम बना हो शायद! अंडा को डिम बोल रहा था हाकर। कोई-कोई खरीद भी रहे हैं। जो खरीद रहे हैं वे खा भी रहे हैं। बगल वाले अपर बर्थ में एक महिला अपने बच्चे को चम्मच से अंडा-भात खिला रही है। खिलाते खिलाते मैंगो जूस बेचने वाले हाकर को रोक कर पूछ रही है-ऐ! पानी है?
एक आदमी और चढ़ कर मेरे बगल में बैठ गया है। इसे मालदा टाउन जाना है। बता रहा है कि हम छठ वाले नहीं हैं, बी एस एफ में हैं। छठ वाले वे लोग हैं। इसी भीड़ भाड़ वाले कोहराम में लोग मनोरंजन भी कर रहे हैं। नीचे एक आदमी मोबाइल में वीडियो देख रहा है। बच्चे लगातार 'चिल्ल-पों' मचाए हैं। बड़े उनको संभालने में लगे हैं। डिम-भात खाने वाले बच्चे को पानी की बोतल मिल गई है। पीने के बाद वो उसी बोतल से खेल रहा है। किसी स्टेशन पर रुक गई है ट्रेन। कुछ घबरा कर पूछ रहे हैं-बनारस कब आएगा?

बहुत काम बटोरा गया है लोहे के घर में। फोटोग्राफी किया जाय, किताब पढ़ा जाय या लिखा जाय? आज तो एक और मुसीबत आ गई। साथी ने तीन फिलिम भेज दिया मेरे मोबाइल में। गोलमाल अगेन के लालच में दो और आ गई। एक जान और कितना सारा काम!
लोहे के घर की खिड़की से सुबह फोटोग्राफी संभव है, शाम को नहीं। शाम को अभी दूर दूर तक अंधेरे में डूबा खेत और साथ साथ चलता एक टुकड़ा चांद ही नजर आ रहा है। मेरे मोबाइल कैमरे से इसकी तस्वीर नहीं ली जा सकती। दूर कंकरीट के जंगल से छिटके जुगनू की तरह टिमटिमाते बल्ब दिख रहे हैं। लोहे की अप #ट्रेन वाली पटरी पीछे भाग रही है, दूर टिमटिमाते बल्ब आगे-आगे दौड़ रहे हैं, इंजन हारन बजा रहा है और ऊपर नील गगन में टंगा-टंगा चांद साथ चल रहा है। कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि धरती नाच रही है और ऊपर से चांद मजा ले रहा है!
आज भीड़ नहीं है लोहे के घर में। यह सूरत जाने वाली ट्रेन है। बिहार जाने वाली होती तो #छठकी भीड़ दिखती। बड़ा शांत वातावरण है। चांद गगन से उतर कर बगल में आ बैठता तो मामला रोमांटिक होता। पूनम का न सही, एक टुकड़ा चांद तो होता अपने पास। अभी भी ऊपर आकाश में टंगा है, वैसे का वैसा। मंजिल आएगी तो मुझे कंकरीट के अंधेरे में छोड़ गुम हो जाएगा। मन करता है चलता रहूं यूं ही, जब तक चांद साथ है।

#ट्रेन बड़ी देर से रुकी है। यह फास्ट ट्रेन है लेकिन लोग कह रहे हैं पीछे सुपर फास्ट आने वाली है, उसी को पास देगी। अच्छा है अभी #बुलेट नहीं चलती। चलती होती तो उसे भी पास देती। ताकतवर अपने से कमजोर को ऐसे ही दबाते हैं।
लोग ऊब कर अजीबोगरीब हरकत कर रहे हैं। एक सज्जन यू ट्यूब में सचिन की बैटिंग देख रहे हैं, कुछ ऊंघ रहे हैं, कुछ ट्रेन से उतरकर प्लेटफार्म पर टहल रहे हैं। एक गुट मूंगफली फोड़ चुकने के बाद इंजन की तरफ देखते हुए हाथ मल रहा है। मेरे अलावा कोई रुकने की खुशी नहीं मना रहा! सब दुखी हैं। जो मंजिल की चिंता में सफर का आंनद न ले पाएं उन्हें चलना ही नहीं चाहिए।
अंडा-चावल, सब्जी-चावल, चना, चाय बेचने वाले आ जा रहे हैं। ऐसे बोर वातावरण में इनकी बिक्री बढ़ जाती है। साहेब जब अधिक बोर होने लगते हैं तो उनकी भूख अनायास बढ़ जाती है। कुछ नहीं तो मिनरल वाटर ही खरीद लेते हैं। मजदूर बोर हो ते हैं तो सुर्ती रगड़ने लगते हैं।
सुपर फास्ट के जाने के दस मिनट बाद अपनी फास्ट भी पटरी पर दौड़ने लगी है। आकाश में टंगा कार्तिक का चांद अब आधा हो गया है। जब पूरा होगा तब दिवाली होगी अपने शहर में। इधर गंगा के घाटों पर दीप जलेंगे, उधर उस पार रेती से निकलेगा कार्तिक पूर्णिमा का चांद। देव भी आएंगे दिवाली मनाने। अभी आधा है चांद। गगन में तारे नहीं दिख रहे, अकेला है। साथ चल रहे यात्रियों की तरह अकेला।
मन करता है आधे चांद से बातें करूं। पूछूं कि टुकड़े टुकड़े पूरे होने में क्या आंनद है? धीरे-धीरे छोटे होने में कितनी तकलीफ होती है? छोड़ो! नहीं पूछता। मूर्ख कहेगा और ज्ञान बघारेगा..हम कब अधूरे हैं रे पगले? तू हमेशा देख ही नहीं पाता मुझे पूरा!
किसी ने चेन पुलिंग की है। रो रो कर रुकी है ट्रेन। अब चुप हुई। सरकार की तरह जोर से हारन बजाएगी और फिर छुक छुक करती चल देगी पटरी पर। चलती गाड़ी की चेन कोई खीच ले तो इंजन हारन बजाने के सिवा और कर भी क्या सकता है? जनता की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है। जितनी देर तकलीफ होती है रोती/चीखती है, फिर भूल जाती है। ट्रेन फिर चल दी। लोग फिर खुश हो गए।

लोहे के घर में शाम तो होती है पर हर खिड़की को चांद नसीब नहीं होता। बाहर अंधेरा अंधेरा और अंधेरे के सिवा दूर दूर टिमटिमाते बल्ब ही दिख रहे हैं। चांद दूसरी तरफ है।
रुकी है #ट्रेन। इस स्टेशन पर रुकना नहीं चाहिए था मगर रुक गई। यही क्या कम है कि स्टेशन पर ही रुकी है? बीच जंगल में भी रुक सकती थी। उस पार प्लेटफार्म पर एक मरकरी लाइट जल रही है। जिसके प्रकाश के नीचे दो लोग इत्मीनान से बैठ कर बीड़ी सुलगा रहे हैं। शेष सब अंधकार में डूबा हुआ। छोटा स्टेशन है। छोटे स्टेशन पर ऐसा ही होता है। ट्रेन के रुकने से यहां के लोकल वेंडरों की किस्मत खुल गई है। अंडा चावल बेच रहे हैं। अभी चढ़े कुछ एक यात्री बहुत खुश हैं...आहा! रुक गई तो पकड़ लिए! भीतर बैठे जो यात्री ट्रेन के अनावश्यक रुकने से दुखी थे वे उनके चेहरे की खुशी देख रहे हैं। दुखी और सुखी की निगाहें चार हुईं। ट्रेन चल दी फिर दोनो में प्यार हो गया! अभी चढ़े यात्रियों में से एक ने कहा.. हें हे हे ..न रुकती तो कैसे पाते? मेरे मन ने कहा.. धन्य है भारतीय रेल! बहुतों को दुखी करती है तो बहुतों को खुशी भी देती है। दुखी यात्री, खुश यात्रियों की खुशी सहन नहीं कर पाते।
ट्रेन फिर रुक गई। यहां भी रुकना नहीं चाहिए था। अब हमारे साथ वे भी दुखी हैं जो पिछले स्टेशन पर ट्रेन के रुकने से चढ़ कर खुश थे! एक दो दूसरे खुशकिस्मत यात्री यहां से भी चढ़े हैं। पता नहीं यह खुशी किस चिड़िया का नाम है? अभी यहां तो अभी वहां! एक ही सफर में कितने प्रकार के लोग यात्रा करते हैं! कभी कभी तो लगता है हाड़ मांस से बना यह शरीर भी लोहे के घर के समान है और बेचैन_आत्मा एक यात्री

ट्रेन लेट है। लेट होने की वजह से हम इस ट्रेन में हैं। राइट होती तो 3.45A.M. में चली जाती। अब 6 बजे चली है तो मिल गई। यह न मिलती तो दूसरी मिलती। इसके मिलने से थोड़ा आराम हो गया। रेलवे को धन्यवाद देना तो बनता है। डायरेक्ट #बनारस पहुंचाने वाली ट्रेन है मगर पूरी उम्मीद है कि हर स्टेशन पर रुकेगी और बहुत से यात्री रेलवे को धन्यवाद देंगे।
हिजड़ों का दल घुसा है बोगी में। खूब ताली पीट पीट कर पैसे ऐंठ रहा है। हमसे नहीं मांगेगा। कहता है..'ये रोज के यात्री हैं, #स्टाफ के है!' जो मर्दानगी से पैसे न दे उसे ये अपने स्टाफ का, मतलब #हिजड़ा समझते हैं!
ट्रेन हवा से बातें कर रही है। जब मस्त चाल से चलती है तो झूला झुलाती है। प्लेटफॉर्म पर नहीं रुकती, पटरियां बदलती है, तो लोहे के घर के यात्रियों के जिस्म हिल्लम- डुल्लम होते हैं। कोई तोंदू नहीं बैठा अपने आस पास वरना ऐसे में उसकी तोंद देखने का मजा आता।
तारीफ किया तो पटरी पर रेंगने लगी ट्रेन! तारीफ पा कर कौन नहीं इतराने लगता है? एक कविता अख़बार में छपने पर नौसिखिया अपने को कवि मान लेता है, प्रशंसा पा कर भ्रष्ट अधिकारी भी खुद को विक्रमादित्य समझने लगता है, यह तो ट्रेन है। ठुनक कर रुकी, फिर इंजन ने सीटी बजाई तो साथ-साथ चल दी।
पुल से गुजरी है ट्रेन। उसके थरथराने की आवाज गूंज रही है कानों में। हमेशा की तरह शांत थी नदी। मछलियों को भी शोर शराबे की आदत पड़ चुकी है। नदी हो या व्यवस्था छोटे मोटे थरथराहटों से तनिक भी नहीं घबराती। पुल ढह जाए या ट्रेन उलट जाए तो थोड़ी देर के लिए हलचल होती है नदी में। कुछ समय बाद गाड़ी फिर पुरानी पटरी पर चलने लगती है।
ट्रेन फिर रुकी। कुछ और यात्रियों को ट्रेन में चढ़ने का अवसर मिला। #रेलवे को फिर धन्यवाद मिला। विलम्ब के लिए खेद प्रकट करने पर कितना धन्यवाद मिलता है रेलवे को! रुकी ट्रेन में #वेंडर फिर आए। ठंडा पानी, मसाला चाट, मैंगो जूस। ये मैंगोजूस जाड़े में भी बिकता रहेगा क्या? लगता है लोगों के स्वभाव में ही नहीं टेस्ट में भी बहुत फ़र्क आ गया है। जाड़े में आइस्क्रीम और चाव से खाते हैं!
मोबाइल में सेक्सी गाना बज रहा है मगर लोग उदासीन भाव से सुन रहे हैं! पहले हिरोइन के सर से जरा सा आंचल सरक जाने पर पूरा बदन थरथराने लगता था, अब रश्के कमर ..मजा आ गया... सुनकर भी उदासीन! सही कहता है हिजड़ों का दल...ये स्टाफ के लोग हैं!