17.1.10

जाड़े की धूप


इस कविता का सृजन आज से 25 वर्ष पूर्व, सन 1985 में मकरसंक्रांति के दिन , एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को देखकर किया था. आज... जब मैं अपनी पुरानी डायरी पलटने लगा... तो इसे देखकर... उसी दुनियाँ में खो गया. मन हुआ, समर्पित कर दूं इसे अपनी श्रीमती जी को .....वो भी क्या याद करेंगी कि किससे पाला पड़ा है.





जाड़े की धूप


षोडसी को नहलाकर

प्यार से सहलाकर

छत की मुंडेर से

उतरने लगी है

जाड़े की धूप.


स्वेटर बुनती

गोरी उंगलियाँ

आँखों में अनगिन

ख्वाबों की गलियाँ

ऊन के गोले सा

गोरी की बाँहों से

लुढ़कने लगा है

सूरज .


पंछियों में बदल गए

सभी पतंग सहसा

शर्म से

लाल हुआ जाता है

दिन !

42 comments:

  1. shayad khwabo kee gliya se aapka taatpary tha na ki gaaliya se .
    bhav dayree sabhee sambhal kar rakhe hai .accha laga .pyaree kavita!

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  2. धन्यवाद अपनत्व जी, टंकण की त्रुटी बताने के लिए...मैंने सुधार दिया है.

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  3. Namaskar.Sabse pehle aabhar. Ab ,is thandi subah me ek achi kavita maine pad li . Iske liye aapko hardik Dhanyawad.Shubhkamnay...

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  4. बहुत सुन्दर 25 साल पहले भी आप इतना सुन्दर लिखते बहुत खूब बधाई।

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  5. सटीक बिम्बों से सजी उत्तम रचना।

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  6. वाह, बहुत खूब
    ......ऊन के गोले सा
    गोरी की बाँहों से
    लुढ़कने लगा है
    सूरज.......
    अब 25 साल बाद
    क्या हाल हैं, 'प्रेमी' जी के?
    आगामी रचना में खुलासे का इंतजार रहेगा...

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  7. अब तक छुपा कर रखे थे डायरी में इस खूबसूरत कविता को...प्रेम और भावनाओं की एक खूबसूरत अभिव्यक्ति..बढ़िया कविता के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर प्रणाम देवेन्द्र जी!!

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  8. बहुत सुंदर कविता

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  9. sharm se lal hota suraj apki patni ki lalima bani ki nahi?

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  10. पंछियों में बदल गए
    सभी पतंग सहसा
    शर्म से
    लाल हुआ जाता है
    दिन !
    बहुत खूब।
    ये पंक्तियाँ अच्छी लगी।

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  11. स्वेटर बुनती
    गोरी उंगलियाँ
    आँखों में अनगिन
    ख्वाबों की गलियाँ
    ऊन के गोले सा
    गोरी की बाँहों से
    लुढ़कने लगा है
    सूरज .....

    सोचिए मत ........ जल्दी ही समर्पित करें इस दिलकश रचना को .......... खूबसूरत शब्दों से बुनी है यह कविता ..... मासूम एहसास हैं इसमें ........... लाजवाब .........

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  12. लाजवाब !!! सूरज की सुन्दर महिमा!! और एक अछि बात आपके ब्लॉग पे ये लगी की आपने जो ब्लॉग हेडिंग में तस्वीर लगा रखि है आहा! हा!! जी करता हैं वही जाकर बैठ जाऊं!!!!

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  13. वाह भाई आपकी रचना हमारे सूर्य देव की गरिमा को बढ़ा रही है एक सांड सूर्य देव का ही होता है ! अगर इजाजत हो तो ऊपर की घाटी की हरियाली में ज़रा आराम फरमा लूँ!

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  14. बेहतरीन..एक दम सर्दी की गुलाबी प्रेम कविता लग रही है यह..
    ..विशेषकर सूरज का ऊन के गोले सा लुढ़कना..जनवरी के सूरज मे ऊन सी गरमी ही होती है..स्पर्शयुक्त..और पक्षियों की पतंगें..जो ऊँचे आकाश मे भी धरती की डोर से जुड़ी रहते हैं..और शाम होते ही उतर आती हैं नीचे...और भी खूबसूरत...
    समर्पण भी कर ही डालिये इसका..

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  15. devendra ji bahut khoobsurat rachna. aur bhaagyeshali hongi vo jinke liye ye rachna likhi gayi.

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  16. २५ साल पहले लिखी गयी कविता वाकई बहुत अच्छी और सार्थक लिखी गयी...शुभकामनायें !

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  17. वाह डियर...
    बहुत सुन्दर लगी ये रचना....
    स्वेटर बुनती

    गोरी उंगलियाँ

    आँखों में अनगिन

    ख्वाबों की गलियाँ

    ऊन के गोले सा

    गोरी की बाँहों से

    लुढ़कने लगा है


    मजा ही आ गया बस....

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  18. शर्म से


    लाल हुआ जाता है


    दिन !

    सुभानाल्लाह......२५ साल पहले भी आप इतना अच्छा लिखते थे ......????

    एक प्रेमी.....???????

    कहीं आप ही तो नहीं थे....??????????????

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  19. तभी तो आत्मा बेचैन रहती है .....!!

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  20. ओये होए मनु जी आप भी ......?????

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  21. मनु जी, शुक्रिया!

    आप आए

    बहार आई...

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  22. बेहतरीन भाई !
    जरा भी अधिक नहीं , एकदम बैलेंस , बिम्बों
    के सधे हुए 'स्ट्रोक्स' , दिल से निकलती हुयी प्रेम कविता ...
    .............. आभार ,,,

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  23. इतने सुन्‍दर शब्‍द, बहुत ही बेहतरीन रचना ।

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  24. प्रेम में सराबोर कविता. क्या उपमाएं हैं,क्या दिलकश नज़ारा है,कहीं ये मकर संक्रांति के दिन छत पे पतंग उड़ाते हुए तो नहीं लिख डाली ये सुंदर रचना. ह....हा...

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  25. खुबसूरत रचना
    बहुत बहुत आभार

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  26. पतंग पंछियों में बदल गए ....यानि की गोरी के ख्वाब पंछी बन कर उड गए दूर दिशाओंमे....तभितो वो शर्म से लाल हो गई.....वो पंछी आप ही पाल रहे हैं न ?

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  27. २२-२३ साल की आयु मे रची रचना ,जिस दिन डायरी हाथ मे आई होगी ,कितना अच्छा लगा होगा

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  28. षोडसी को नहलाकर


    प्यार से सहलाकर


    छत की मुंडेर से


    उतरने लगी है


    जाड़े की धूप.
    bahut sundar hai rachna .

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  29. लग रहा है जैसे भावना का अन्तर्मन छूकर निकल आये हैं बिम्ब !
    शानदार प्रस्तुति । सुन्दर कविता ।

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  30. इस कविता के लिए कोई भी तारीफ़ कम है ... नासरी नाले की तरह सीधे एक ऊंचाई से गिरती है और भावक के मन में निर्विरोध गहरे तक उतर कर बहने लगती है ..वाह! वाह ! मेरी बेचैन आत्मा !

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  31. बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी ! इस लाजवाब और बेहतरीन रचना के लिए बधाई!

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  32. bahut acha likha hai aapne..but aapne apne blog ka naam bechain atma kyu rakha hai?

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  33. wah wah wah kya likha hai...bahut hi khubsurat..ek ek pankti bolti hui.

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  34. सुंदर पंक्तियों के साथ बहुत सुंदर रचना....

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  35. 25 sal bad bhi ye ahsas aannd aagya .bhabhiji ko bdhai asherwad

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  36. धन्यवाद शोभना जी,

    आपका आशीर्वाद पाकर हमारा मन प्रफुल्लित हो गया.

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  37. ... बहुत खूब ... २५ साल....कमाल...!!!!!

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  38. ऊन के गोले सा
    लुढकता हुआ सूरज....
    बहुत सुन्दर शब्द-चित्र उकेरे हैं आपने. बधाई.

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  39. ukera hain sayad aapne apne lafzo ko thand se tang hoker
    louta hain jaise aapka man ,gami ki bachani se hoker

    bahut khub sir ,aapse sayad kafi kuch seekh paunga

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  40. खुबसूरत रचना
    बहुत बहुत आभार

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