हो नहीं पाया अभी
पूरा वणिक ही
हो नहीं पाया अभी
इतना विवश भी
खेत में न छोड़ पाये चार दाने
कृषिजीवी
हैं अभी भी
अन्नदाता
देखिये न!
परिंदे,
उड़ रहे हैं गगन में।
माना प्रदूषित
हो चुकी हैं शैलबाला
आचमन भी असंभव
कूल में अब
प्राण रक्षक
हैं अभी कल्लोलिनी ही
देखिये न!
मछलियाँ,
तैरतीं अब भी नदी में।
आदमी भी रहेगा इस धरा में
जायेगा फिर
इस सदी से उस सदी में
होगी नहीं उसकी कभी
यात्रा अधूरी
देखिये न!
प्रेम है,
दर्द भी है हृदय में।
...................................................
दृश्य और कविता...दोनो खूबसूरत !!
ReplyDeleteदृश्य प्रभावशाली है।
ReplyDeleteजिसने मनुष्य को बनाया है , उसी ने अन्य जीवों को भी जिंदगी दी है।
फिर भी जीव जीव को ही खाता है। अज़ब दुनिया है ये।
बहुत ही ख़ूबसूरत दृश्य और उतनी ही सुन्दर कविता
ReplyDeleteमनुष्यता के चिरन्तन भविष्य के प्रति आश्वस्त करती एक बहुत खूबसूरत वैचारिक कविता!
ReplyDeleteसुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार सर जी। मैं डर रहा था कि कविता अभिव्यक्त हुई है या नहीं। आज ही लिखी और आज ही पोस्ट कर दी..।
Deleteबहुत कुछ बचा है
ReplyDeleteनदी पहाड़ जंगल
मेरे लिए !
थोड़े से हम थोड़े से वो,
ReplyDeleteदोनों है तभी तो ये है।
अमाँ ये तो कविता सी हो गई:)
अमाँ पूरी कर ही डालिये..कविता ऐसे भी बनती है। :)
Deleteप्रकृति निर्बाध अपने कर्म में लगी रहती है
ReplyDeleteसत्य है..
Deleteआभार।
ReplyDeleteआशान्वित करती कविता। बिल्कुल शुद्ध और नए बिम्ब!
ReplyDelete..आभार।
Deleteसुन्दर....बहुत सुन्दर कविता.
ReplyDeleteअनु
अच्छा है!
ReplyDeleteव्यवहारिकता के बीच भी कही कुछ सहज बचा ही हुआ है !
ReplyDeleteतभी अब भी धरती , सूरज ,चाँद , हवा , पौधे , खुशबू , पक्षी हैं , रहेंगे !
प्रिय ब्लॉगर मित्र,
ReplyDeleteहमें आपको यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है साथ ही संकोच भी – विशेषकर उन ब्लॉगर्स को यह बताने में जिनके ब्लॉग इतने उच्च स्तर के हैं कि उन्हें किसी भी सूची में सम्मिलित करने से उस सूची का सम्मान बढ़ता है न कि उस ब्लॉग का – कि ITB की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगों की डाइरैक्टरी अब प्रकाशित हो चुकी है और आपका ब्लॉग उसमें सम्मिलित है।
शुभकामनाओं सहित,
ITB टीम
पुनश्च:
1. हम कुछेक लोकप्रिय ब्लॉग्स को डाइरैक्टरी में शामिल नहीं कर पाए क्योंकि उनके कंटैंट तथा/या डिज़ाइन फूहड़ / निम्न-स्तरीय / खिजाने वाले हैं। दो-एक ब्लॉगर्स ने अपने एक ब्लॉग की सामग्री दूसरे ब्लॉग्स में डुप्लिकेट करने में डिज़ाइन की ऐसी तैसी कर रखी है। कुछ ब्लॉगर्स अपने मुँह मिया मिट्ठू बनते रहते हैं, लेकिन इस संकलन में हमने उनके ब्लॉग्स ले रखे हैं बशर्ते उनमें स्तरीय कंटैंट हो। डाइरैक्टरी में शामिल किए / नहीं किए गए ब्लॉग्स के बारे में आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा।
2. ITB के लोग ब्लॉग्स पर बहुत कम कमेंट कर पाते हैं और कमेंट तभी करते हैं जब विषय-वस्तु के प्रसंग में कुछ कहना होता है। यह कमेंट हमने यहाँ इसलिए किया क्योंकि हमें आपका ईमेल ब्लॉग में नहीं मिला।
[यह भी हो सकता है कि हम ठीक से ईमेल ढूंढ नहीं पाए।] बिना प्रसंग के इस कमेंट के लिए क्षमा कीजिएगा।
यही जीवन है।
ReplyDeleteसंभावना.. वही देख सकता है जिसके ह्रदय में आप जैसी भावना हो... यह कविता मानवता/मनुष्यता और प्रकृति के सहअस्तित्व को भूतकाल से खींचकर भविष्य में ले जा रही है, देखती हुई एक संभावना के तौर पर!!
ReplyDeleteआपके चित्र, आपके चित्रों के कैप्शन, आपके यात्रा वृत्तान्त और आपकी कवितायें.. आनन्द प्रदान करती हैं!!
आपकी प्रशंसा से पुलकित हूँ।
Deleteप्रेम है,दर्द है, और दर्द के साथ प्रेम है...
ReplyDeleteतीन गुणों में नित उतराती अपनी राम कहानी है।
ReplyDeleteसंक्षिप्त सार बताना प्रवीण जी की निशानी है।
Deletea difficult poem to understand,after reading 3 times,could follow it,and a pleasure felt in the heart.Don know exactly what will happen in futre,but at prsent the faith on life should be present as u wrote.It`s a nice poem,but the meaning of "kallolini"don know.
ReplyDelete'कल्लोलिनी' भी नदी का पर्यायवाची है।
Deleteकहीं कुछ है जो बांधे रखता है ..... सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteवाह! देवेन्द्र जी। अच्छी प्रस्तुति सामयिक समस्या पर। चिन्तित बधाई!
ReplyDeleteसुन्दर कृति
ReplyDeleteपरिवर्तन शील युग में मानव रहेगा हर रूप में इस प्राकृति के साथ ...
ReplyDeleteशशक्त प्रभावी रचना है देवेन्द्र जी ...
sach hai devendra ji niyati ki zindagi kabhi khatm nahi hoti .bahut hi sundar kvita
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